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  • यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 25
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - स्वराट त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    वाज॑स्य॒ नु प्र॑स॒व आब॑भूवे॒मा च॒ विश्वा॒ भुव॑नानि स॒र्वतः॑। सने॑मि॒ राजा॒ परि॑याति वि॒द्वान् प्र॒जां पुष्टिं॑ व॒र्धय॑मानोऽअ॒स्मे स्वाहा॑॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वाज॑स्य। नु। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वः। आ। ब॒भू॒व॒। इ॒मा। च॒। विश्वा॑। भुव॑नानि। स॒र्वतः॑। सने॑मि। राजा॑। परि॑। या॒ति॒। वि॒द्वान्। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। पुष्टि॑म्। व॒र्धय॑मानः। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। स्वाहा॑ ॥२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाजस्य नु प्रसव आबभूवेमा च विश्वा भुवनानि सर्वतः । सनेमि राजा परियाति विद्वान्प्रजाम्पुष्टिँवर्धयमानो ऽअस्मे स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वाजस्य। नु। प्रसव इति प्रऽसवः। आ। बभूव। इमा। च। विश्वा। भुवनानि। सर्वतः। सनेमि। राजा। परि। याति। विद्वान्। प्रजामिति प्रऽजाम्। पुष्टिम्। वर्धयमानः। अस्मेऽइत्यस्मे। स्वाहा॥२५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 9; मन्त्र » 25
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    भावार्थ -

     जो पुरुष ( वाजस्य ) ज्ञान, बल और ऐश्वर्य को ( नु ) बहुत शीघ्र ( प्रसव ) प्राप्त करने, उत्पन्न करने और साधन में ( आ बभूव ) समर्थ होता और (इमा च ) इन ( विश्वा भुवनानि समस्त लोकों, उनमें उत्पन्न प्राणियों और अधीन शासकपदों के भी ( सर्वत: आ बभूव च ) सब प्रकार से ऊपर उनके शासकरूप से विद्यमान है, वह (विद्वान् राजा ) विद्वान्, ज्ञानी राजा ( अस्मे ) हमें ही ( स्वाहा ) उत्तम व्यवस्था, नीति और कीर्त्ति से ( प्रजाम् ) प्रजा और ( पुष्टिम् ) धन, अन्न और पशुओं की समृद्धि को ( वर्धयमानः ) बढ़ाता हुआ ( सनेमि ) अपने सदातन, स्थिर नीति से ( परियाति ) सबसे ऊपर के पद को प्राप्त हो जाता है। वही हमारा राजा होने योग्य है ॥ शत० ५ ॥ २ । २ । ७ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    वसिष्ठ ऋषिः । प्रजापतिर्देवता । स्वराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥ 

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