यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 32
ऋषिः - तापस ऋषिः
देवता - पूषादयो मन्त्रोक्ता देवताः
छन्दः - कृति,
स्वरः - निषादः
1
पू॒षा पञ्चा॑क्षरेण॒ पञ्च॒ दिश॒ऽउद॑जय॒त् ताऽउज्जे॑षꣳ सवि॒ता षड॑क्षरेण॒ षड् ऋ॒तूनुद॑जय॒त् तानुज्जे॑षं म॒रुतः स॒प्ताक्ष॑रेण स॒प्त ग्रा॒म्यान् प॒शूनुद॑जयँ॒स्तानुज्जे॑षं॒ बृह॒स्पति॑र॒ष्टाक्ष॑रेण गाय॒त्रीमुद॑जय॒त् तामुज्जे॑षम्॥३२॥
स्वर सहित पद पाठपू॒षा। पञ्चा॑क्षरे॒णेति॒ पञ्च॑ऽअक्षरेण। पञ्च॑। दिशः॑। उत्। अ॒ज॒य॒त्। ताः। उत्। जे॒ष॒म्। स॒वि॒ता। षड॑क्षरे॒णेति॒ षट्ऽअ॑क्षरेण। षट्। ऋ॒तून्। उत्। अ॒ज॒य॒त्। तान्। उत्। जे॒ष॒म्। म॒रुतः॑। स॒प्ताक्ष॑रे॒णेति॑ स॒प्तऽअ॑क्षरेण। स॒प्त। ग्रा॒म्यान्। प॒शून्। उत्। अ॒ज॒य॒न्। तान्। उत्। जे॒ष॒म्। बृह॒स्पतिः॑। अ॒ष्टाक्ष॑रे॒णेत्य॒ष्टऽअक्ष॑रेण। गा॒य॒त्रीम्। उत्। अ॒ज॒य॒त्। ताम्। उत्। जे॒ष॒म् ॥३२॥
स्वर रहित मन्त्र
पूषा पञ्चाक्षरेण पञ्च दिशऽउदजयत्ता ऽउज्जेषँ सविता षडक्षरेण षडृतूनुदजयत्तानुज्जेषम्मरुतः सप्ताक्षरेण सप्त ग्राम्यान्पशूनुदजयँस्तानुज्जेषम्बृहस्पतिरष्टाक्षरेण गायत्रीमुदजयत्तामुज्जेषम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
पूषा। पञ्चाक्षरेणेति पञ्चऽअक्षरेण। पञ्च। दिशः। उत्। अजयत्। ताः। उत्। जेषम्। सविता। षडक्षरेणेति षट्ऽअक्षरेण। षट्। ऋतून्। उत्। अजयत्। तान्। उत्। जेषम्। मरुतः। सप्ताक्षरेणेति सप्तऽअक्षरेण। सप्त। ग्राम्यान्। पशून्। उत्। अजयन्। तान्। उत्। जेषम्। बृहस्पतिः। अष्टाक्षरेणेत्यष्टऽअक्षरेण। गायत्रीम्। उत्। अजयत्। ताम्। उत्। जेषम्॥३२॥
विषय - १७प्रकार के अक्षय बलों से राष्ट्र का वशीकार ।
भावार्थ -
[५] ( पूषा ) सर्व पोषक परमेश्वर या चन्द्र ( पञ्चाक्षरे ) अपने पांच अक्षय, अविनाशी और पांच भूतरूप पांच सामर्थ्यों से ( पञ्च दिश: ) पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, अधः-ऊर्ध्व, इन पांच दिशाओं को अथवा समष्टि जीव संसार में विद्यमान पांच ज्ञानदर्शक, ज्ञानेन्द्रियों को ( उद् अजयत् ) वश करता है इसी प्रकार मैं राजा ( पूषा ) स्वयं राष्ट्र की प्रजा का पोषक होकर ( पञ्चाक्षरेण ) अपने पांचों अक्षय भोग्य सामर्थ्यो से ( पन्चदिश: उत् जेषम् ) पांचों दिशाओं को वश करूं ।
[६] सविता सूर्य या सर्वोत्पादक परमेश्वर ( षड् अक्षरेण ) अपने ६ प्रकार के अक्षय बलों से ( षड् ऋतून् उद् अजयत् ) छहों ऋतुओं को अपने वश करता है उसी प्रकार मैं ( सविता ) सबको आज्ञापक होकर ( षड्-अक्षरेण ) अपने छ: प्रकार के अक्षर न द्रवित होनेवाले सन्धि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय, द्वैधीभाव ( षड् ऋतून) इन छहों ऋतुओं के समान ( तान् ) राष्ट्र के छः गुणों पर विचार करनेवाले महामात्यों या छहों गुणों पर वश करूं ।
[ ७ ] ( मरुतः ) मरुद्गण, प्राणगण जिस प्रकार ( सप्ताक्षरेण ) सात अक्षय बलों द्वारा ( सप्त ग्राम्यान् पशून् ) सातों ग्राम्य पशुओं को अपने वश करते हैं उसी प्रकार मैं भी ( सप्ताक्षरेण ) सातों प्रकार के अन्नों द्वारा (तानू ) सातों ग्राम के पशु गौ आदि को एवं ग्राम श्रर्थात् समूह में विद्यमान शीर्षण्य सातौं प्राणों को ( उत् जेषम् ) वश करूं ।
[ ८ ] ( बृहस्पतिः ) बृहत् महान् ब्रह्माण्ड का स्वामी परमेश्वर ( अष्टाक्षरेण ) अपने आठ अन्य सामर्थ्यों से ( गायत्रीम् ) आठ अक्षरोंवाली गायत्री के समान अष्टधा प्रकृति से बनी प्राणपालनी - सृष्टि को अपने वश करता है उसी प्रकार मैं राष्ट्रपति आठ अपने सामथ्यों से स्वामी अमात्य, सुहृद, कोष, राष्ट्र, दुर्ग, बल और भूमि । अथवा आठ महामात्यों से ( गायत्रीम् उत् जेषम् ) सब राष्ट्र के प्राणों की पालिका पृथिवी को अपने वश करूं ।
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