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  • यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 3
    ऋषिः - तापस ऋषिः देवता - सम्राड् देवता छन्दः - निचृत् अति शक्वरी, स्वरः - पञ्चमः
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    अ॒पा रस॒मुद्व॑यस॒ꣳ सूर्ये॒ सन्त॑ꣳ स॒माहि॑तम्। अ॒पा रस॑स्य॒ यो रस॒स्तं वो॑ गृह्णाम्युत्त॒ममु॑पया॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्ट॑तमम्॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम्। रस॑म्। उद्व॑यस॒मित्युत्ऽवय॑सम्। सूर्ये॑। सन्त॑म्। स॒माहि॑त॒मिति॑ स॒म्ऽआहि॑तम्। अ॒पाम्। रस॑स्य। यः। रसः॑। तम्। वः॒। गृ॒ह्णा॒मि॒। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा। जुष्ट॑तम॒मिति॒ जुष्ट॑ऽतमम् ॥३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपाँ रसमुद्वयसँ सूर्ये सन्तँ समाहितम् अपाँ रसस्य यो रसस्तँवो गृह्णाम्युत्तममुपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा जुष्टङ्गृह्णाम्येष ते योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतमम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम्। रसम्। उद्वयसमित्युत्ऽवयसम्। सूर्ये। सन्तम्। समाहितमिति सम्ऽआहितम्। अपाम्। रसस्य। यः। रसः। तम्। वः। गृह्णामि। उत्तममित्युत्ऽतमम्। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। जुष्टम्। गृह्णामि। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। जुष्टतममिति जुष्टऽतमम्॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 9; मन्त्र » 3
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    भावार्थ -

    ( उद्वयसम् ) उत्कृष्ट दीर्घ जीवन को देने वाले ( सूर्ये सन्तम् ) सूर्य में सदा वर्त्तमान, सूर्य की रश्मियों द्वारा प्राप्त और ( सम् आहितम् ) उनके बल पर सर्वत्र व्याप्त ( अपाम् ) जलों के ( रसम् ) वीर्य, ररूप जीवन को और ( अपां रसस्य ) जलों के रस अर्थात् सार- रूप भाग का भी ( या रसः ) जो रस, सारिष्ठ, सब से अधिक साररूप वीर्य धातु है, विद्वान् पुरुष जिस प्रकार  हे( आपः ) जलो ! ( वः ) आप के उसको ( तम् ) उस ( उत्तमम् ) सब से उत्कृष्ट वीर्य को ( गृहामि ) ग्रहण करता हूँ उसी प्रकार हे ( आपः ) प्राप्त प्रजाजनो ! ( अपाम् ) आप्त प्रजारूप ( वः ) आप लोगों का ( उद्वयसम् ) उत्कृष्ट, उन्नत जीवन वाले, दीर्घायु, अनुभवी ( सूर्ये ) सर्व प्रेरक राजा के आश्रय पर (सन्तम् ) विद्यमान एवं ( समाहितम् ) उसके प्रति एकाग्र चित्त होकर रहने वाले ( रसम् ) वीर्यवान् राजबल को और ( अपां रसस्य ) प्रजाओं के बलवान् भाग में से भी जो ( रसः) उत्तम बल है ( वः तम् उत्तमम् रसम् ) अप लोगों के उस सर्वोत्कृष्ट रस या बल को मैं राष्ट्र का पुरोहित ( गृह्णामि ) प्राप्त करता हूं और उसे राष्ट्र के कार्य में नियुक्त करता हूं । ( उपयामगृहीतः असि० ) इत्यादि पूर्ववत् ॥ शत० ५ । १ । २ । ७ ॥
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    इन्द्रो देवता । अतिशक्वरी । पञ्चमः ॥ 

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