अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
इ॒यं स॒मित्पृ॑थि॒वी द्यौर्द्वि॒तीयो॒तान्तरि॑क्षं स॒मिधा॑ पृणाति। ब्र॑ह्मचा॒री स॒मिधा॒ मेख॑लया॒ श्रमे॑ण लो॒कांस्तप॑सा पिपर्ति ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । स॒म्ऽइत् । पृ॒थि॒वी । द्यौ: । द्वि॒तीया॑ । उ॒त । अ॒न्तरि॑क्षम् । स॒म्ऽइधा॑ । पृ॒णा॒ति॒ । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । स॒म्ऽइधा॑ । मेख॑लया । श्रमे॑ण । लो॒कान् । तप॑सा । पि॒प॒र्ति॒ ॥७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं समित्पृथिवी द्यौर्द्वितीयोतान्तरिक्षं समिधा पृणाति। ब्रह्मचारी समिधा मेखलया श्रमेण लोकांस्तपसा पिपर्ति ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । सम्ऽइत् । पृथिवी । द्यौ: । द्वितीया । उत । अन्तरिक्षम् । सम्ऽइधा । पृणाति । ब्रह्मऽचारी । सम्ऽइधा । मेखलया । श्रमेण । लोकान् । तपसा । पिपर्ति ॥७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
विषय - ब्रह्मचारी के कर्तव्य।
भावार्थ -
(इयं पृथिवी) यह पृथिवी (समित्) ब्रह्मचारी की प्रथम समिधा है। (द्यौः द्वितीया) यह द्यौ दूसरी समिधा है। (उत अन्तरिक्षं) और अन्तरिक्ष तीसरी समित् है। इन तीनों को ब्रह्मचारी (समिधा) अपने अग्नि में आहुति की गयी समिधा अर्थात् आचार्य रूप अग्नि से प्रज्वलित अपने ज्ञानवान् आत्मा से (पृणाति) पालन करता और पूर्ण करता है। (ब्रह्मचारी) ब्रह्म ज्ञान में दीक्षित ब्रह्मचारी (समिधा) समित् आधान द्वारा और (मेखलया) मेखला से (श्रमेण) श्रम से और (तपसा) तप से (लोकान्) समस्त लोकों, मनुष्यों का (पिपर्त्ति) पालन करता है।
समिद्-आधान में—ब्रह्मचारी नियम से आचार्य की अग्नि में तीन समिधा या पलाशकाष्ठ मन्त्र पाठपूर्वक आहुति करता है। उसका तात्पर्य यह होता है कि (यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यसे एवमहम् आयुषा मेधया वर्चसा प्रजया पशुभिः ब्रह्मवर्चसेन समिन्धे।) जिस प्रकार अनि काष्ट से प्रज्वलित होकर तेज से चमकती है उसी प्रकार मैं भी आचार्य के समीप रह कर दीर्घ आयु, ज्ञानमय बुद्धि, तेज, प्रजा, पशु और ब्रह्मचर्य से चमकूं। वह तीन समिधों को अग्नि में रखता है अर्थात् तीनों लोकों में विद्यमान अग्नियों के समान स्वयं तेजस्वी होने का दृढ़ संकल्प करता है। भूलोक में अग्नि, मध्यम लोक में विद्युत् और द्यौ लोक में सूर्य ये तीन अग्नियें हैं, उनके समान तेजस्वी होकर वह तीनों लोकों की रक्षा करने में समर्थ होता है अर्थात् जिस प्रकार तीनों लोक जगत् के प्राणियों की रक्षा करते हैं उनके समान वह भी रक्षा करने में समर्थ होता है।
टिप्पणी -
(तृ०) ‘मेखलावी’ (च०) ‘विभर्त्ति’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
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