अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 5
दे॒वानां॑ भा॒ग उ॑पना॒ह ए॒षो॒पां रस॒ ओष॑धीनां घृ॒तस्य॑। सोम॑स्य भ॒क्षम॑वृणीत श॒क्रो बृ॒हन्नद्रि॑रभव॒द्यच्छरी॑रम् ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वाना॑म् । भा॒ग: । उ॒प॒ऽना॒ह: । ए॒ष: । अ॒पाम् । रस॑: । ओष॑धीनाम् । घृ॒तस्य॑ । सोम॑स्य । भ॒क्षम् । अ॒वृ॒णी॒त॒ । श॒क्र: । बृ॒हन् । अद्रि॑: । अ॒भ॒व॒त् । यत् । शरी॑रम् ॥४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
देवानां भाग उपनाह एषोपां रस ओषधीनां घृतस्य। सोमस्य भक्षमवृणीत शक्रो बृहन्नद्रिरभवद्यच्छरीरम् ॥
स्वर रहित पद पाठदेवानाम् । भाग: । उपऽनाह: । एष: । अपाम् । रस: । ओषधीनाम् । घृतस्य । सोमस्य । भक्षम् । अवृणीत । शक्र: । बृहन् । अद्रि: । अभवत् । यत् । शरीरम् ॥४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 5
विषय - ऋषभ के दृष्टान्त से परमात्मा का वर्णन।
भावार्थ -
(एषः) यह पूर्वोक्त ऋषभ नाम से कहा गया ईश्वर ही (देवानाम्) समस्त देवों का (भागः) भजन करने योग्य, आश्रय स्थान, और (उपनाहः) अति समीपतम होकर उनको परस्पर बांध कर वश करने वाले, उनमें पिरोये सूत्र के समान है। और वही (अपां रसः) सूक्ष्म ‘आपः’ रूप परम प्रकृति के परमाणुओं का सूक्ष्मरस अर्थात् उनके भीतर उनको भी धारण करने हारा शक्तिरूप होकर उनमें भी व्यापक है। और वही (ओषधीनां रसः) ओषधियों, दिव्य शक्तियों अथवा अग्निमय रेतस पदार्थ के धारण करने वाले सूर्यों और (घृतस्य रसः) स्वतः तैजस द्रव्य के परम रूप का भी स्वयं धारण करने वाला ‘रस’ रूप है। वही (शक्रः) सर्व शक्तिमान् होकर (सोमस्य) उत्पन्न इस जगत् के या जीव संसार के (भक्षम्) प्राण को (अवृणीत) वश किये हुए हैं। और (यत्) जो स्वयं (शरीरम्) सबका आश्रय होकर (बृहत्) सबसे महान् (अद्रिः) अखण्ड, सबको अपने में ग्रस लेने वाला, संहारकारी (अभवत्) होता है।
(१) ‘अपां रसः’—‘स्वधायै त्वेति रसाय त्वेत्येवैतद् आह, अर्थात् [ स्वधा=रसः ] इति श० ५। ४। ३। ७॥ (२) ‘ओषधयः’—जगत्यः ओषधयः। श० १। २। २। २॥ ओषधयो वै देवानां पत्न्यः। श० ६। ५। ४। ४॥ प्रजापतिस्तां आहुतिम अग्नौ व्यौक्षत् ओषं धयेति। ततः ओषधयः समभवन् तस्मादोषधयो नाम। श० २। २। ४। ५॥ (३) ‘सोमःस्वा वै मे एषा [ मूर्त्तिः ] इति तस्मात् सोमो नाम’। श० ३। ९। ४। २२॥ (४) ‘भक्षम्’—प्राणो वै भक्षः। श० ४। २। १। २९॥ (५) शरीरम्’—अथ यत् सर्वमस्मिन्नश्रयन्त तस्साद् उ शरीरम्। श०६। १। १। ४॥
(१) रस का अर्थ स्वधा है अर्थात् स्वयं धारण करने हारा। (२) देव दिव्य पदार्थों की शक्तियां ओषधि कहाती हैं, जिनमें परमात्मा ने अग्नि पदार्थ स्थापित किया है। वे सूर्य आदि पदार्थ जगती सौरमण्डल आदि ‘ओषधि’ शब्द से कहे जाते हैं। (३) प्रजापति का अपना व्यक्त शरीर-जगत् सोम है। (४) ‘भक्ष’ प्राण का नाम है। (५) वह इस समस्त जगत् का आश्रय है अतः परमात्मा ‘शरीर’ कहाता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। ऋषभो देवता। १-५, ७, ९, २२ त्रिष्टुभः। ८ भुरिक। ६, १०,२४ जगत्यौ। ११-१७, १९, २०, २३ अनुष्टुभः। १२ उपरिष्टाद् बृहती। २१ आस्तारपंक्तिः। चतुर्विंशर्चं सूक्तम्॥
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