ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 122/ मन्त्र 10
ऋषिः - कक्षीवान्
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स व्राध॑तो॒ नहु॑षो॒ दंसु॑जूत॒: शर्ध॑स्तरो न॒रां गू॒र्तश्र॑वाः। विसृ॑ष्टरातिर्याति बाळ्ह॒सृत्वा॒ विश्वा॑सु पृ॒त्सु सद॒मिच्छूर॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसः । व्राध॑तः । नहु॑षः । दम्ऽसु॑जूतः । शर्धः॑ऽतरः । न॒राम् । गू॒र्तऽश्र॑वाः । विसृ॑ष्टऽरातिः । या॒ति॒ । बा॒ळ्ह॒ऽसृत्वा॑ । विश्वा॑सु । पृ॒त्ऽसु । सद॑म् । इत् । शूरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स व्राधतो नहुषो दंसुजूत: शर्धस्तरो नरां गूर्तश्रवाः। विसृष्टरातिर्याति बाळ्हसृत्वा विश्वासु पृत्सु सदमिच्छूर: ॥
स्वर रहित पद पाठसः। व्राधतः। नहुषः। दम्ऽसुजूतः। शर्धःऽतरः। नराम्। गूर्तऽश्रवाः। विसृष्टऽरातिः। याति। बाळ्हऽसृत्वा। विश्वासु। पृत्ऽसु। सदम्। इत्। शूरः ॥ १.१२२.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 122; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ युद्धविषय उपदिश्यते ।
अन्वयः
यो दंसुजूतः शर्धस्तरो गूर्त्तश्रवा विसृष्टरातिर्बाढसृत्वा नहुषो नरां विश्वासु पृत्सु सदमिद् गृहीत्वा व्राधतो युद्धाय याति स विजयमाप्नोति ॥ १० ॥
पदार्थः
(सः) (व्राधतः) विरोधिनः (नहुषः) मनुष्यः (दंसुजूतः) यो दंसुभिरुपक्षयितृभिर्वीरैर्जूतः प्रेरितः सः (शर्धस्तरः) अतिशयेन बलवान् (नराम्) नायकानां वीराणाम् (गूर्त्तश्रवाः) गूर्त्तेनोद्यमेन श्रवः श्रवणमन्नं वा यस्य सः (विसृष्टरातिः) विविधाः सृष्टा रातयो दानादीनि येन सः (याति) प्राप्नोति (बाढसृत्वा) यो बाढेन प्रशस्तेन बलेन सरति सः (विश्वासु) (पृत्सु) सेनासु (सदम्) शत्रुहिंसकसैन्यम् (इत्) एव (शूरः) शत्रूणां हिंसकः ॥ १० ॥
भावार्थः
मनुष्यैः शत्रोरधिकां युद्धसामग्रीं कृत्वा सुसहायेन स शत्रुर्विजेतव्यः ॥ १० ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब युद्ध के विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।
पदार्थ
जो (दंसुजूतः) विनाश करनेहारे वीरों ने प्रेरणा किया (शर्धस्तरः) अत्यन्त बलवान् (गूर्त्तश्रवाः) जिसका उद्यम के साथ सुनना और अन्न आदि पदार्थ (विसृष्टरातिः) जिसने अनेक प्रकार के दान आदि उत्तम-उत्तम काम सिद्ध किये (बाढसृत्वा) जो प्रशंसित बल से चलने (शूरः) और शत्रुओं को मारनेवाला (नहुषः) मनुष्य (नराम्) नायक वीरों की (विश्वासु) समस्त (पृत्सु) सेनाओं में (सदम्) शत्रुओं के मारनेवाले वीर सेनाजन को (इत्) ही ग्रहण कर (व्राधतः) विरोध करनेवालों को युद्ध के लिये (याति) प्राप्त होता है (सः) वह विजय को पाता है ॥ १० ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि अपने शत्रु से अधिक युद्ध की सामग्री को इकट्ठी कर अच्छे पुरुषों के सहाय से उस शत्रु को जीतें ॥ १० ॥
विषय
जितेन्द्रियता व शक्ति
पदार्थ
१. गतमन्त्र की समाप्ति पर कहे गये 'वेदवाणी के अनुसार ऋत का पालन करनेवाला पुरुष लक्ष्यस्थान पर पहुँचता है' - इन शब्दों के अनुसार चलनेवाला (सः) = वह पुरुष (दंसुजूतः) = दान्त वशीभूत इन्द्रियों से सम्यक् प्रेरित हुआ - हुआ, अतएव (शर्धस्तरः) = अतिशयेन बलवान् (नराम्) = उन्नतिपथ पर चलनेवालों में (गूर्तश्रवाः) = अत्यन्त उन्नत ज्ञान व यशवाला, (विसृष्टरातिः) = खूब दान देनेवाला यह (शूरः) = शत्रुओं का हिंसनवाला होकर (विश्वासु पृत्सु) = सब संग्रामों में (सदम् इत्) = सदा ही (व्राधतः नहुषः) = महान् हिंसक मनुष्यों के प्रति (बाढसृत्वा) = खूब गतिवाला होकर - अशंकित गमनवाला होकर (याति) = जाता है । आन्तर शत्रुओं को जीतकर यह बाह्य शत्रुओं को भी जीतनेवाला होता है । २. वैदिक जीवन की विशेषताएँ निम्न हैं - [क] इन्द्रियों को वशीभूत करके संसार - यात्रा में चलना, [ख] संयम के कारण खूब तेजस्वी बनना, [ग] यशस्वी जीवनवाला होना, [घ] दान की वृत्तिवाला होना, [ङ] कामादि शत्रुओं को जीतना और बाह्य शत्रुओं पर भी विजय पाना ।
भावार्थ
भावार्थ - इन्द्रियों को वश में करके हम शक्तिशाली बनें और शत्रुओं पर विजय पाते हुए यशस्वी जीवनवाले हों ।
विषय
पिता, आचार्य का शिष्यवत् पुत्रों के प्रति और शिष्यों और पुत्रों का गुरु, आचार्य, माता और पिता जनों के प्रति कर्त्तव्य का वर्णन ।
भावार्थ
( सः ) वह ( बाधतोः नहुषः ) बड़े बड़े मनुष्यों में भी महान् होजाता है जो कि ( दंसुजूतः ) अपनी इन्द्रियों का दमन कर उन द्वारा प्रेरित होता है, ( शर्धस्तरः ) जो अत्यन्त बलशाली है, ( गूर्तश्रवाः ) और नरों में जिसके उद्यम का यश फैला हुआ है, ( विसृष्टरातिः ) जो संसार में विद्या आदि का दान करता है, ( याति बाढसृत्वा ) और जो उत्तम कर्मों के करने वाला होकर विचरता है, (विश्वासु पृत्सु सदम् इत शूरः) तथा जो सम्राट् बुरे अर्थात् असुर भावों के साथ युद्धो में सदा विजयी, शूर साबित होता है। इति द्वितीयो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
औशिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवताः॥ छन्दः–१, ७, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । २, ८, १० त्रिष्टुप् । ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी शत्रूपेक्षा जास्त युद्धसामग्री एकत्रकरून चांगल्या लोकांची मदत घेऊन शत्रूंना जिंकावे. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The man of love and generosity, the real man, inspired by the brave, of exceptional strength, of universal reputation among men of power and honour, giving in charity liberally, heroic in performance, always moves forward over the opponents fast in all the battles of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The Science of ware fare is taught in the tenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The man who is urged by heroes who are destroyers of enemies renowned among men, industrious, endowed with surpassing strength, munificent is gifts, ever undaunted in all combats even against mighty men goes to fight with his foes, gets victory.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(नहुष:) मनुष्य: (वंसुजूतः) योवंसुभिरुपक्षयितृभिः वीरैर्जूतः प्रेरितः सः = Urged by the heroes who are destroyers of their enemies. (बाढ सूत्वा) यो बाढ़ेन प्रशस्तेन बलेन सरति सः = He who moves, with admirable strength. (सदम् ) शत्रुहिंसकसैन्यम् = The army of the destroyers of enemies.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should have more war-materials than their enemies' and should conquer them with the help of great heroes.
Translator's Notes
दसु -उपक्षये जु-गतौ सौत्रोधातुः सृ-गतौ षद्लृ-विशरणगत्यवसादनेषु
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