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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 122 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 122/ मन्त्र 9
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    जनो॒ यो मि॑त्रावरुणावभि॒ध्रुग॒पो न वां॑ सु॒नोत्य॑क्ष्णया॒ध्रुक्। स्व॒यं स यक्ष्मं॒ हृद॑ये॒ नि ध॑त्त॒ आप॒ यदीं॒ होत्रा॑भिर्ऋ॒तावा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जनः॑ । यः । मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒ । अ॒भि॒ऽध्रुक् । अ॒पः । न । वा॒म् । सु॒नोति॑ । अ॒क्ष्ण॒या॒ऽध्रुक् । स्व॒यम् । सः । यक्ष्म॑म् । हृद॑ये । नि । ध॒त्त॒ । आप॑ । यत् । ई॒म् । होत्रा॑भिः । ऋ॒तऽवा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जनो यो मित्रावरुणावभिध्रुगपो न वां सुनोत्यक्ष्णयाध्रुक्। स्वयं स यक्ष्मं हृदये नि धत्त आप यदीं होत्राभिर्ऋतावा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जनः। यः। मित्रावरुणौ। अभिऽध्रुक्। अपः। न। वाम्। सुनोति। अक्ष्णयाऽध्रुक्। स्वयम्। सः। यक्ष्मम्। हृदये। नि। धत्त। आप। यत्। ईम्। होत्राभिः। ऋतऽवा ॥ १.१२२.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 122; मन्त्र » 9
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे सत्योपदेशकयाजकौ यो जनो वामपो मित्रावरुणाविवाभिध्रुगक्ष्णयाध्रुक् सन्न सुनोति स स्वयं हृदये यक्ष्मं निधत्ते यद्यऋतावा होत्राभिरीमाप स स्वयं हृदये सुखं निधत्ते ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (जनः) विद्वान् (यः) (मित्रावरुणौ) प्राणोदानाविव (अभिध्रुक्) अभितो द्रोहं कुर्वन् (अपः) प्राणान् (न) निषेधे (वाम्) युवयोः (सुनोति) निष्पन्नान् करोति (अक्ष्णयाध्रुक्) कुटिलया रीत्या द्रुह्यति सः (स्वयम्) (सः) (यक्ष्मम्) राजरोगम् (हृदये) (नि) (धत्ते) (आप) आप्नोति (यत्) यः (ईम्) सर्वतः (होत्राभिः) आदातुमर्हाभिः क्रियाभिः (ऋतावा) य ऋतेन सत्येन वनोति संभजति सः ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    यो मनुष्यः परोपकारकान् विदुषो द्रुह्यति स सदा दुःखी यश्च प्रीणाति स च सुखी जायते ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे सत्य उपदेश और यज्ञ करानेवालो ! (यः) जो (जनः) विद्वान् (वाम्) तुम दोनों के (अपः) प्राण अर्थात् बलों को (मित्रावरुणा) प्राण तथा उदान जैसे वैसे (अभिध्रुक्) आगे से द्रोह करता वा (अक्ष्णयाध्रुक्) कुटिलरीति से द्रोह करता हुआ (न) नहीं (सुनोति) उत्पन्न करता (सः) वह (स्वयम्) आप (हृदये) अपने हृदय में (यक्ष्मम्) राजरोग को (नि, धत्ते) निरन्तर धारण करता वा (यत्) जो (ऋतावा) सत्य भाव से सेवन करनेवाला (होत्राभिः) ग्रहण करने योग्य क्रियाओं से (ईम्) सब ओर से आपके व्यवहारों को प्राप्त होता है, वह (आप) अपने हृदय में सुख को निरन्तर धारण करता है ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य परोपकार करनेवाले विद्वानों से द्रोह करता वह सदा दुःखी और जो प्रीति करता है, वह सुखी होता है ॥ ९ ॥

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    विषय

    प्राणसाधना व दैनिक कार्यक्रम

    पदार्थ

    १. (यः जनः) = जो मनुष्य (मित्रावरुणौ अभिध्रुक्) = प्राणापान के विषय में द्रोह करनेवाला होता है, अर्थात् जो प्राणसाधना को महत्त्व न देकर उपेक्षा करता है और जो (अक्ष्णयाध्रुक्) = दैनिक, कार्यचक्र का द्रोह करनेवाला - अपने दैनिक कार्यक्रम को ठीक से न करनेवाला [अक्ष्णया - going through] (वाम्) = आप प्राणापानों के लिए (अपः) = रेतः कणरूप जलों को (न सुनोति) = नहीं उत्पन्न करता है, अर्थात् जो दैनिक कार्यचक्र में ठीक प्रकार से लगा रहकर इन सोमकणों को शरीर में सुरक्षित करने का ध्यान नहीं करता (सः) = वह (स्वयम्) = अपने - आप (हृदये) = हृदय में (यक्ष्मम्) = रोग को निधत्ते - निश्चय से धारण करता है । प्राणसाधना न करनेवाला और दैनिक कार्यक्रम में ठीक से व्यस्त न रहनेवाला वीर्य - कणों का रक्षण नहीं कर पाता और फेफड़ों में विकार उत्पन्न करनेवाले राजयक्ष्मा आदि रोगों का शिकार हो जाता है । २. इसके विपरीत यत् ईम् - यदि वह होत्राभिः - ज्ञान की बाणियों के अनुसार ऋतावा - ऋत का अवन - रक्षण करनेवाला होता है, अर्थात् वेदवाणियों के अनुसार कार्यक्रम को चलाता है तो आपः - लक्ष्य - स्थान को प्राप्त करनेवाला होता है । स्वस्थ रहकर यात्रा में आगे बढ़ता हुआ यह उद्दिष्ट स्थल पर पहुँच ही जाता है और प्रभु को प्राप्त करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना की उपेक्षा करने पर और दैनिक कार्यक्रम को पूरा न करने पर मनुष्य विनाश के मार्ग पर जाता है।

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    विषय

    पिता, आचार्य का शिष्यवत् पुत्रों के प्रति और शिष्यों और पुत्रों का गुरु, आचार्य, माता और पिता जनों के प्रति कर्त्तव्य का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( जनः ) पुरुष, हे ( मित्रावरुणा ) स्नेह करने वाले तथा श्रेष्ठ या दुःखों से निवारण करने वाले माता पिता ! या गुरु पत्नी और गुरु ! आप दोनों से ( अभिध्रुक् ) द्रोह करता है, और जो ( अक्षणयाध्रुक् ) सीधे द्रोह न करके, टेढ़े तरीके से द्रोह करके ( वां ) आप दोनों के सम्बन्ध की ( अपः ) सत्कारादि क्रियाओं को ( न सुनोति ) अच्छी प्रकार नहीं अनुष्ठान करता ( सः ) वह ( स्वयं ) आप से आप ( हृदये ) हृदय में ( यक्ष्मं ) पीड़ा, क्लेश, आदि कष्टको ( निधत्ते ) प्राप्त होता है । और ( यत् ) जो ( होत्राभिः ) सत्कार वाणियों द्वारा आपका सत्कार करता है ( ऋतावा ) वह सत्य मार्ग पर चलनेवाला ( ईम् आप ) सब प्रकार के सुखों को प्राप्त करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    औशिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवताः॥ छन्दः–१, ७, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । २, ८, १० त्रिष्टुप् । ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो माणूस परोपकार करणाऱ्या विद्वानांशी वैर करतो तो सदैव दुःखी होतो व जो प्रीती करतो तो सुखी होतो. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Mitra and Varuna, lords of friendship and liquid generosity, whoever hates you, whoever opposes you in crooked ways, whoever does not support you and life with nourishment and energy, such a man would himself wear the canker in his heart. But the man of truth and generosity supporting life all round with love, charity and sacrifice would be blest with peace and joy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Preacher of truth and priest, he who does you who are like Prana and udana wrong, who harms you in any way crookedly, contracts for himself serious diseases like T. B. in his heart, but he who being true in his dealings attains you by noble, acceptable or admirable acts enjoys happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मित्रावरुणौ) प्राणोदानाविव सत्योपदेशकयाजकौ = The Preacher of truth and priest. who are like Prana and Udana-Two kinds of vital energy (यक्ष्ण्याघ्रु क् ) कुटिलया रीत्या द्रुह्यति = He who harms or injures crookedly.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The man who hates or harms learned benevolent persons remains always miserable and he who satisfies and serves them, enjoys happiness.

    Translator's Notes

    प्राणोदानौ मित्रावरुणौ (शत० १.८.३.१२) शत० ३. ६. १. १६, ५. ३, ५, १४ ।

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