ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 122/ मन्त्र 5
आ वो॑ रुव॒ण्युमौ॑शि॒जो हु॒वध्यै॒ घोषे॑व॒ शंस॒मर्जु॑नस्य॒ नंशे॑। प्र व॑: पू॒ष्णे दा॒वन॒ आँ अच्छा॑ वोचेय व॒सुता॑तिम॒ग्नेः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वः॒ । रु॒व॒ण्युम् । औ॒शि॒जः । हु॒वध्यै॑ । घोषा॑ऽइव । शंस॑म् । अर्जु॑नस्य । नंशे॑ । प्र । वः॒ । पू॒ष्णे । दा॒वने॑ । आ । अच्छ॑ । वो॒चे॒य॒ । व॒सुऽता॑तिम् । अ॒ग्नेः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वो रुवण्युमौशिजो हुवध्यै घोषेव शंसमर्जुनस्य नंशे। प्र व: पूष्णे दावन आँ अच्छा वोचेय वसुतातिमग्नेः ॥
स्वर रहित पद पाठआ। वः। रुवण्युम्। औशिजः। हुवध्यै। घोषाऽइव। शंसम्। अर्जुनस्य। नंशे। प्र। वः। पूष्णे। दावने। आ। अच्छ। वोचेय। वसुऽतातिम्। अग्नेः ॥ १.१२२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 122; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वांस औशिजोऽहं वो रुवण्युमाहुवध्यै अर्जुनस्य शंसं घोषेव दुःखं नंशे वः पूष्णे दावनेऽग्नेर्वसुतातिं प्राच्छा वोचेय ॥ ५ ॥
पदार्थः
(आ) (वः) युष्माकम् (रुवण्युम्) सुशब्दायमानम् (औशिजः) विद्याकामस्य पुत्रः (हुवध्यै) होतुमादातुम् (घोषेव) आप्तानां वागिव (शंसम्) प्रशस्तम् (अर्जुनस्य) रूपस्य। अर्जुनमिति रूपना०। निघ० ३। ७। (नंशे) नाशनाय (प्र) (वः) (पूष्णे) पोषणाय (दावने) दात्रे (आ) (अच्छ) (वोचेय) (वसुतातिम्) धनमेव (अग्नेः) पावकान् ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा वैद्याः सर्वेभ्य आरोग्यं प्रदाय रोगान् सद्यो निवर्त्तयन्ति तथा सर्वे विद्यावन्तः सर्वान् सुखिनो विधाय सुप्रतिष्ठितान् कुर्वन्तु ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वानो ! (औशिजः) विद्या की कामना करनेवाले का पुत्र मैं (वः) तुम लोगों के (रुवण्युम्) अच्छे कहे हुए उत्तम उपदेश के (आ, हुवध्यै) ग्रहण करने के लिये (अर्जुनस्य) रूप के (शंसम्) प्रशंसित व्यवहार को वा (घोषेव) विद्वानों की वाणी के समान दुःख के (नंशे) नाश और (वः) तुम लोगों की (पूष्णे) पुष्टि करने तथा (दावने) दूसरों को देने के लिये (अग्नेः) अग्नि के सकाश से जो (वसुतातिम्) धन उसको ही (प्र, आ, अच्छा, वोचेय) उत्तमता से भलीभाँति अच्छा कहूँ ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे वैद्यजन सबके लिये आरोग्यपन दे के रोगों को जल्दी दूर कराते, वैसे सब विद्यावान् सबको सुखी कर अच्छी प्रतिष्ठावाले करें ॥ ५ ॥
विषय
अर्जुन का नाश
पदार्थ
१. (औशिजः) = मेधावी का पुत्र, अर्थात् अत्यन्त मेधावी, सदा लोकहित की कामना करनेवाला [उशिक - मेधावी, हितेच्छु] मैं हे प्राणापानो! (वः) = आपके (रुवण्युम्) = स्तोत्र को (आहुवध्यै) = उच्चारित करता हूँ । मैं आपका स्तवन करता हुआ आपकी साधना में प्रवृत्त होता हूँ । मैं (घोषा इव) = स्तोत्रों का उच्चारण करनेवालों की भाँति (शंसम्) = प्राणापान का स्तवन करता हूँ ताकि (अर्जुनस्य नशे) = [धवलोऽर्जुनः] शरीर पर आ जानेवाले श्वेत दागों को नष्ट कर सकू तथा अर्जुनस्य नशे - [तृणमर्जुनम्] तृण के समान तुच्छ मनोवृत्ति को समाप्त कर सकूँ । एवं, प्राणसाधना के दो लाभ हैं - प्रथम तो यह कि शरीर में उत्पन्न हो जानेवाले कुष्ठ आदि रोग नहीं होते; दूसरे, मन में तुच्छ वृत्तियों का उद्गम नहीं होता । शरीर भी स्वस्थ होता है और मन भी उत्तम बनता है । २. (वः) = आपके (पूष्णे) = पोषण के लिए तथा (दावने) = आपके उत्तम फलों को देने की क्रिया के लिए मैं (अग्नेः) = उस अग्रणी प्रभु की (वसुतातिम्) = धनसमृद्धि को (अच्छ) = अच्छी प्रकार (प्र आवोचेय) = प्रकर्षरूप से सदा उच्चरित करूँ । मैं सदा प्रभु के अनन्त ऐश्वर्य का स्मरण कलै और यह न भूलूँ कि इस ऐश्वर्य के अंश को मुझे प्राणापान की साधना से ही प्राप्त करना है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से शरीर व मन स्वस्थ होते हैं, प्रभु के ऐश्वर्य के अंश को हम इसी साधना से पाते हैं ।
विषय
पिता, आचार्य का शिष्यवत् पुत्रों के प्रति और शिष्यों और पुत्रों का गुरु, आचार्य, माता और पिता जनों के प्रति कर्त्तव्य का वर्णन ।
भावार्थ
( अर्जुंनस्य नंशे ) पीडाकारी दुःख के नाश करने के लिये जिस प्रकार ( घोषा ) वेदवाणी उत्तम उपदेश प्रदान करती है, उसी प्रकार मैं (औशिजः) विद्या प्रेमी गुरु तथा माता पिता का पुत्र एवं शिष्य होकर ( हुवध्यै ) सबको ज्ञान देने, तथा सबके ( अर्जुनस्य नंशे ) दुःख के नाश करने के लिये ( अग्नेः वसुतातिम् ) ज्ञानमय परमेश्वर के श्रेष्ठ धन स्वरूप वेद ज्ञान का (वः रुवण्युम्) तथा आप लोगों के उत्तम उपदेश और ज्ञान का (पूष्णे) और पुष्टि और वृद्धि करने वाले और (दावने) आगे योग्य पात्रों में विद्या दान देनेवाले विद्यार्थी को ( प्र वोचेय ) अच्छी प्रकार प्रवचन करूँ, उन्हें उपदेश करूं । इति प्रथमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
औशिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवताः॥ छन्दः–१, ७, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । २, ८, १० त्रिष्टुप् । ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे वैद्य सर्वांना निरोगी करण्यासाठी रोग लवकर दूर करवितात तसे सर्व विद्यावंत लोकांनी सर्वांना सुखी करून चांगली प्रतिष्ठा प्राप्त करवून द्यावी. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Listen ye all, scholars of science and technology, I, son and disciple of the man of knowledge and noble ambition, call upon you and, like a voice from above, proclaim the admirable word of the gifts of the heat and light of Agni in resounding tones: its form and structure, analysis and break up, its creative re-structure for life- support and the gifts for the protection and promotion of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned men, I the son of a man desiring knowledge and wisdom, praise you earnestly to put into practice your sermons, to alleviate all miseries and to beautify myself with noble virtues, like the speech of absolutely truthful enlightened persons. Let me do so for nourishment and charity, after earning wealth by the use of fire in the form of electricity etc.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(घोषेव) आप्तानां वाक् इव = Like the speech of absolutely truthful persons. (अर्जुनस्य ) रूपस्य अर्जुनमिति रूपनाम (निघ० ३.७ ) (रुवण्युम्) सुशब्दायमानम् ॥ = Teaching well.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the Vaidyas (Physicians) make all people healthy and destroy their diseases, in the same manner, all learned men should make all happy, respectable, and well-established in life.
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