ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 122/ मन्त्र 13
ऋषिः - कक्षीवान्
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मन्दा॑महे॒ दश॑तयस्य धा॒सेर्द्विर्यत्पञ्च॒ बिभ्र॑तो॒ यन्त्यन्ना॑। किमि॒ष्टाश्व॑ इ॒ष्टर॑श्मिरे॒त ई॑शा॒नास॒स्तरु॑ष ऋञ्जते॒ नॄन् ॥
स्वर सहित पद पाठमन्दा॑महे । दश॑ऽतयस्य । धा॒सेः । द्विः । यत् । पञ्च॑ । बिभ्र॑तः । यन्ति॑ । अन्ना॑ । किम् । इ॒ष्टऽअ॑श्वः । इ॒ष्टऽर॑श्मिः । ए॒ते । ई॒शा॒नासः॑ । तरु॑षः । ऋ॒ञ्ज॒ते॒ । नॄन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
मन्दामहे दशतयस्य धासेर्द्विर्यत्पञ्च बिभ्रतो यन्त्यन्ना। किमिष्टाश्व इष्टरश्मिरेत ईशानासस्तरुष ऋञ्जते नॄन् ॥
स्वर रहित पद पाठमन्दामहे। दशऽतयस्य। धासेः। द्विः। यत्। पञ्च। बिभ्रतः। यन्ति। अन्ना। किम्। इष्टऽअश्वः। इष्टऽरश्मिः। एते। ईशानासः। तरुषः। ऋञ्जते। नॄन् ॥ १.१२२.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 122; मन्त्र » 13
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यद्ये पञ्च दशतयस्य धासेर्विद्यामन्ना च द्विर्यन्ति य एत ईशानासस्तरुष ऋञ्जते प्रसाध्नुवन्ति तान् बिभ्रतो नॄन् जनान् वयं मन्दामहे तच्छिक्षां प्राप्य जन इष्टाश्व इष्टरश्मिः किं न जायते ? ॥ १३ ॥
पदार्थः
(मन्दामहे) स्तुमः (दशतयस्य) दशविधस्य (धासेः) विद्यासुखधारकस्य विदुषः (द्विः) द्विवारम् (यत्) (पञ्च) अध्यापकोपदेशकाऽध्येत्र्युपदेश्यसामान्याः (बिभ्रतः) विद्यासुखेन सर्वान् पुष्यतः (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (अन्ना) सुसंस्कृतान्यन्नानि (किम्) प्रश्ने (इष्टाश्वः) इष्टाः सङ्गता अश्वा यस्य सः (इष्टरश्मिः) इष्टाः संयोजिता रश्मयो येन (एते) (ईशानासः) समर्थाः (तरुषः) अविद्यासंप्लवकान् (ऋञ्जते) (नॄन्) विद्यानायकान् ॥ १३ ॥
भावार्थः
ये सुशिक्षया सर्वान् विदुषः कुर्वन्तः साधनैरिष्ठसाधकान् समर्थान् विदुषो न सेवन्ते त इष्टं सुखमपि न लभन्ते ॥ १३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यत्) जो (पञ्च) पढ़ाने, उपदेश करने, पढ़ने और उपदेश सुननेवाले तथा सामान्य मनुष्य (दशतयस्य) दश प्रकार के (धासेः) विद्या सुख का धारण करनेवाले विद्वान् की विद्या को और (अन्ना) अच्छे संस्कार से सिद्ध किये हुए अन्नों को (द्विः) दो बार (यन्ति) प्राप्त होते हैं वा जो (एते) ये (ईशानासः) समर्थ (तरुषः) अविद्या अज्ञान में डुबानेवालों को (ऋञ्जते) प्रसिद्ध करते हैं उन (बिभ्रतः) विद्या सुख से सबकी पुष्टि (नॄन्) और विद्याओं की प्राप्ते करानेहारे मनुष्यों की हम लोग (मन्दामहे) स्तुति करते हैं, उनकी शिक्षा को पाकर मनुष्य (इष्टाश्वः) जिसको घोड़े प्राप्त हुए वा (इष्टरश्मिः) जिसने कला यन्त्रादिकों की किरणें जोड़ीं, ऐसा (किम्) क्या नहीं होता है ? ॥ १३ ॥
भावार्थ
जो अच्छी शिक्षा से सबको विद्वान् करते हुए साधनों से चाहे हुए को सिद्ध करनेवाले समर्थ विद्वानों का सेवन नहीं करते, वे अभीष्ट सुख को भी नहीं प्राप्त होते हैं ॥ १३ ॥
विषय
इष्टाश्व, इष्टरश्मि
पदार्थ
१. (यत्) = जब ये सब प्राकृतिक देव (दशतयस्य) = दस प्रकार के (धासेः) = धारण के लिए (द्विः पञ्च) = दस (अन्ना) = अन्नों को (बिभ्रतः) = धारण करते हुए (यन्ति) = गति करते हैं तब (मन्दामहे) = हम उन देवों का स्तवन करते हैं । प्रकृति का बना हुआ यह संसार हमारी दस इन्द्रियों के धारण के लिए दस प्रकार के भोजनों को प्राप्त कराता है । यहाँ अन्नों का ('द्विः पञ्च') = 'दो बार पाँच, अर्थात् दस' इस प्रकार इसलिए कहा गया है कि ज्ञानेन्द्रियों का अन्न अलग है और कर्मेन्द्रियों का अलग । इन इन्द्रियों को अपना भोजन ठीक प्राप्त होता रहे तो जीवन सुखी - उत्तम इन्द्रियोंवाला [सु+ख] बना रहता है । २. इन्द्रियाँ शरीर - रथ में घोड़े हैं, मन लगाम है । जब इन्हें ठीक भोजन प्राप्त होता रहता है तब ये सशक्त तो बनते ही हैं और यदि इन्हें हम ठीक मार्ग में प्रवृत्त रक्खें तो हम 'इष्टाश्व व इष्टरश्मि' होते हैं - वाञ्छनीय इन्द्रियरूप घोड़ोंवाले व वाञ्छनीय मनरूप लगामवाले । यह (इष्टाश्वः इष्टरश्मिः) = इष्ट अश्व व रश्मियोंवाला (किम्) = क्या ही अद्भुत (ऋजते) = अपने जीवन का प्रसाधन करता है । (एते) = ये इन्द्रियाश्व (ईशानासः) = बड़े प्रबल हैं । ये सब - कुछ करने में समर्थ हैं । ये (तरुषः) = वासनाओं को तैर जानेवाले (नृृन्) = मनुष्यों को (ऋजते) = सद्गुणों से मण्डित कर देते हैं । अवशीभूत इन्द्रियों मनुष्य को कुचल देती हैं, वशीभूत हुई - हुई उसे तरा देती हैं । गीता के शब्दों में 'मन उसी का मित्र है, जिसने आत्मा द्वारा मन को जीता है - न जीता गया मन महान् शत्रु है ।
भावार्थ
भावार्थ - यह प्राकृतिक संसार हमारी इन्द्रियों को उचित भोजन प्रास कराके सक्षम बनाये । ये सशक्त पर वशीभूत इन्द्रियाँ हमारे जीवनों को सद्गुणों से मण्डित करें ।
विषय
दशतय का रहस्य ।
भावार्थ
हम साधक लोग उस ( दशतयस्य ) दसों प्रकार के सर्गों को वा दशों दिशाओं से युक्त जगत् को (धासेः) धारण करने वाले परमेश्वर की ( मन्दामहे ) स्तुति करते हैं । ( यत् ) जिसके आश्रय पर ( द्विः पञ्च ) वे दसों प्रकार के सर्ग, या दसों दिशा वासी प्रजाजन (अन्नं बिभ्रतः) अन्नों को धारण करते हुए ( यन्ति ) उद्देश्य को प्राप्त होते हैं, गुजर रहे हैं । ( एते किम् ईशानासः) ये सूर्य आदि लोक भी या बड़े बड़े राजा महाराजा भी क्या स्वयं सामर्थ्यवान् हैं ? ये क्या ईश्वर हैं ? अर्थात् उस परमेश्वर की तुलना में ये सब तुच्छ हैं। वह परमेश्वर ही ( इष्टाश्वः ) समस्त वेगवान्, मन, अग्नि आदि व्यापक पदार्थों का इष्ट अर्थात् प्रेरक है वही (इष्ट रत्रिमः) समस्त रश्मियों का घोंडों के सारथी के समान प्रेरक और संचालक, सबकी बागडोर चलाने वाला है। वही परमेश्वर (तरुषः) आकाश मार्ग से सूर्य के समान जाने वाले समस्त नक्षत्रादि लोकों को और (नॄन्) समस्त नायकों या पुरुषों को (ऋञ्जते ) चलाता और वश करता है। [ २ ] अध्यात्म में—यह आत्मा दशविध प्राणगणका धारक होने से ‘धासि’ है। जिसके आश्रय पर ये दसों प्राण अन्नों को भोगते रहते हैं। वह आत्मा अश्व अर्थात् इन्द्रिय और रश्मि अर्थात् ज्ञान तन्तुओं का प्रेरक है। (एते किमीशानाः) ये प्राणगण तो क्षुद्र शक्तिवाले हैं। वह इन गतिशील नायक प्राणों को भी वश करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
औशिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवताः॥ छन्दः–१, ७, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । २, ८, १० त्रिष्टुप् । ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे सुशिक्षणाने सर्वांना विद्वान करणाऱ्या व साधनांसह वांछित सिद्ध करणाऱ्या समर्थ विद्वानांचा स्वीकार करीत नाहीत. ते अभीष्ट सुख ही प्राप्त करू शकत नाहीत. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
We praise and celebrate the generous man of tenfold food and knowledge since people come and go receiving nourishment for body and mind from his house. And such a man blest with desired power and speed in life, well in control of his desired reins of power and prosperity, generous as the flood of the ocean, and such men as he, of power and discipline worthy of governance, bring the grace of culture and beauty to the people’s life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
We admire those five kinds of men-teachers, preachers, students, hearers of sermons and other ordinary persons who twice receive knowledge from scholars possessing the tenfold knowledge and food from scholars of wisdom and happiness. We also admire those lords of wealth who -support learned men dispelling all darkness and helping them to accomplish their works. Will not a man become master of his horses in the form of ten senses and controller of his reins in the form of mind ?
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(मन्दामहे) स्तुम: = We praise or admire. (पंच) अध्यापकोपदेशकाध्येत्र्युपदेश्यसामान्याः = Five kinds of persons i. e teachers, preachers students, hearers of sermons and ordinary men. (इष्टरश्मि:) इष्टा: संयोजिताः रश्मयो येन = He who has yoked or controlled the reins (in the form of mantel attitudes) (इष्टाश्व:) इष्टा: संगता अश्वा यस्य Who has control over his horses (particularly) in the form of the senses. The following passages from the Kathopanishat throw light on the last two words. आत्मानं रथिनं विद्धि, शरीरं रथमेव तु । बुद्धि तु सारथि विद्धि, मनः प्रग्रहमेवच || इन्द्रियाणि हयानाहुः विषयांस्तेषु गीचरान् || (कठोपनिषत् १. ३. ३-४ ) Which mean- Know the soul to be the Master of the chariot this body. Intellect is the charioteer. Mind is the rein. The senses are the horses and their objects are the roads. मन्दामहे-मदि-स्तुतौ इदित्वानुम्।
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who do not serve great scholars who endow all with good education and thus able to accomplish noble tasks cannot enjoy desirable happiness.
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