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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 122 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 122/ मन्त्र 11
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अध॒ ग्मन्ता॒ नहु॑षो॒ हवं॑ सू॒रेः श्रोता॑ राजानो अ॒मृत॑स्य मन्द्राः। न॒भो॒जुवो॒ यन्नि॑र॒वस्य॒ राध॒: प्रश॑स्तये महि॒ना रथ॑वते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । ग्मन्त॑ । नहु॑षः॑ । हव॑म् । सू॒रेः । श्रोत॑ । रा॒जा॒नः॒ । अ॒मृत॑स्य । म॒न्द्राः॒ । न॒भः॒ऽजुवः॑ । यत् । नि॒र॒वस्य॑ । राधः॑ । प्रऽश॑स्तये । म॒हि॒ना । रथ॑ऽवते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध ग्मन्ता नहुषो हवं सूरेः श्रोता राजानो अमृतस्य मन्द्राः। नभोजुवो यन्निरवस्य राध: प्रशस्तये महिना रथवते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध। ग्मन्त। नहुषः। हवम्। सूरेः। श्रोत। राजानः। अमृतस्य। मन्द्राः। नभःऽजुवः। यत्। निरवस्य। राधः। प्रऽशस्तये। महिना। रथऽवते ॥ १.१२२.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 122; मन्त्र » 11
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरुपदेशककृत्यमाह ।

    अन्वयः

    हे मन्द्रा राजानो यूयममृतस्य सूरेर्नहुषो हवं श्रोत नभोजुवो यूयं यन्निरवस्य राधस्तद्ग्मन्ताध महिना प्रशस्तये रथवते राधो दत्त ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (अध) आनन्तर्ये (ग्मन्त) प्राप्नुत। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नहुषः) विदुषो नरस्य (हवम्) उपदेशाख्यं शब्दम् (सूरेः) सर्वविद्याविदः (श्रोत) शृणुत। अत्र विकरणलुक् द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (राजानः) राजमानाः (अमृतस्य) अविनाशिनः (मन्द्राः) आह्लादयितारः (नभोजुवः) विमानादिना नभसि गच्छन्त (यत्) (निरवस्य) निर्गतोऽवो रक्षणं यस्य (राधः) धनम् (प्रशस्तये) प्रशस्ताय (महिना) महत्त्वेन (रथवते) बहवो रथा विद्यन्ते यस्य तस्मै ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    ये परमेश्वरस्य परमविदुषः स्वात्मनश्च सकाशादविरोधिनस्तदुपदेशांश्च गृह्णीयुस्ते प्राप्तविद्या महाशया जायन्ते ॥ ११ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उपदेश करनेवाले का कर्त्तव्य अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (मन्द्राः) आनन्द करानेवाले (राजानः) प्रकाशमान सज्जनो ! तुम (अमृतस्य) आत्मरूप से मरण धर्म रहित (सूरेः) समस्त विद्याओं को जाननेवाले (नहुषः) विद्वान् जन के (हवम्) उपदेश को (श्रोत) सुनो (नभोजुवः) विमान आदि से आकाश में गमन करते हुए तुम (यत्) जो (निरवस्य) रक्षा हीन का (राधः) धन है उसको (ग्मन्त) प्राप्त होओ (अध) उसके अनन्तर (महिना) बड़प्पन से (प्रशस्तये) प्रशंसित (रथवते) बहुत रथवाले को धन देओ ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    जो परमेश्वर, परम विद्वान् और अपने आत्मा के सकाश से विरोधी नहीं होते और उनके उपदेशों का ग्रहण करें, वे विद्याओं को प्राप्त हुए महाशय होते हैं ॥ ११ ॥

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    विषय

    धन को प्रभु का समझना

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार जीवन बनाकर (अध) = अब (नहुषः) = यह मनुष्यों के प्रति (ग्मन्ता) = जानेवाला होता है, अर्थात् उनके हित के कर्मों में प्रवृत्त होकर सबके दुः खों को दूर करनेवाला होता है । २. साथ ही (सूरेः) = प्रेरक प्रभु की (हवं श्रोता) = पुकार को सुननेवाला होता है और उसी के अनुसार जीवन के कार्यक्रम को चलाता है । ३. इस प्रकार लोकहित के कार्यों में लगनेवाले और प्रभु की पुकार को सुननेवाले लोग - [क] (राजानः) = दीप्त जीवनवाले होते हैं [राज़ दीसौ] तथा व्यवस्थित जीवनवाले होते हैं [राज् - to regulate], [ख] (अमृतस्य) = नीरोगता के (मन्द्राः) = आनन्द को अनुभव करनेवाले होते हैं, [ग] (नभोजुवः) = ये अपने को नभस् - आकाश की ओर प्रेरित करनेवाले होते हैं । पृथिवीरूप शरीर और हृदयरूप अन्तरिक्ष से भी ऊपर उठकर ये झुलोकरूप मस्तिष्क की ओर चलनेवाले होते हैं । शरीर के स्वास्थ्य तथा मन के नैर्मल्य को सिद्ध करके मस्तिष्क के ज्ञान को ये अपना लक्ष्य बनाते हैं । ४. इस ज्ञान का ही यह परिणाम होता है (यत्) = कि (निरवस्य) = [निर् अव] 'जिसका कोई रक्षक नहीं, जो सबका रक्षक है, उस प्रभु का ही (राधः) = यह सब धन है' - ऐसा ये समझते हैं । सबसे ऊँचा ज्ञान यही है कि 'सम्पूर्ण सम्पत्ति प्रभु की है' - ऐसा समझना । ऐसा समझकर अपने को उस धन का न्यासी [trustee] मात्र समझना । ऐसा समझने पर यह धन विलास में खर्च नहीं होता, अपितु (प्रशस्तये) = जीवन की प्रशस्ति के लिए होता है तथा (महिना) = [मह पूजायाम्] पूजा की वृत्ति के द्वारा (रथवते) = हमें उत्तम शरीर रथवाला बनाने के लिए होता है । धन को प्रभु का समझने से धन का कभी दुरुपयोग नहीं होता और यह धन हमारे जीवन को धन्य बनानेवाला होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - लोकहित के कार्यों में लगने व प्रभु - प्रेरणा को सुनने से जीवन दीस व नीरोगता के आनन्दवाला होता है । धन को प्रभु का समझने से हम धन का दुरुपयोग नहीं करते और प्रशस्त जीवनवाले बनते हैं ।

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    विषय

    महान् परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( राजानः ) विद्या और ऐश्वर्य से प्रकाशमान ! हे (मन्द्राः) सबको आनन्द देने और स्वयं आनन्दित होने वाले, एवं स्तुत्य जनो ! आप लोग ( सूरेः ) विद्यावान्, सबके प्रेरक, ( अमृतस्य ) अमरण धर्मा नित्य ( नहुषः ) सबको एक सूत्र में बाँधने हारे, परम पुरुष के ( हवं ) उत्तम वचन और स्तुति को ( श्रोत ) श्रवण करो और ( ग्मन्त ) सुन कर उस मार्ग पर चलो । ( यत् ) क्योंकि ( नभोजुवः ) वायु में वेग देने वाले आकाश में प्रेरणा देने वाले, ( निरवस्य ) निःशेष समस्त ज्ञान और रक्षण सामर्थ्य वाले परमेश्वर की ( राधः ) आराधना या उस द्वारा दिया ऐश्वर्य ( महिना ) महान् सामर्थ्य से ( रथवते ) रमण साधन रूप देह को धारण करने वाले आत्मा के ( प्रशस्तये ) उत्तम उत्तम प्रशासन या ज्ञान प्राप्ति के लिये होता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    औशिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवताः॥ छन्दः–१, ७, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । २, ८, १० त्रिष्टुप् । ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे, परमेश्वर, अत्यंत विद्वान व आपल्या आत्म्याच्या विरोधी नसतात व त्यांचा उपदेश ग्रहण करतात ते विद्या प्राप्त करून श्रेष्ठ बनतात. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Divinities of nature, generous powers of humanity, brilliant and joyous, flying across the skies with your own power and grandeur, listen to the prayer and invitation of the charitable man, brave and immortal of fame and honour, leave the wealth of the uncharitable and unprotective unprotected and let it pass on to the man of love and charity for noble causes.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a preacher are told in the eleventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Kings shining on account of your virtues, causing delight to all, listen to the words of advice of a scholar who regards himself immortal (spiritually), you who travel in the sky (by a aero planes) protect the wealth of a poor man who has no guardian, grant wealth to that admirable who has person many chariots or who is the master of his chariot in the from of body.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (हवम्) उपदेशाख्यं शब्दम् = Worlds uttered in the form of sermons. (नभोजुव:) विमानादिना नभांसि गच्छन्तः = Travelling in the sky by air crafts etc.

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