ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 122/ मन्त्र 7
स्तु॒षे सा वां॑ वरुण मित्र रा॒तिर्गवां॑ श॒ता पृ॒क्षया॑मेषु प॒ज्रे। श्रु॒तर॑थे प्रि॒यर॑थे॒ दधा॑नाः स॒द्यः पु॒ष्टिं नि॑रुन्धा॒नासो॑ अग्मन् ॥
स्वर सहित पद पाठस्तु॒षे । सा । वा॒म् । व॒रु॒ण॒ । मि॒त्र॒ । रा॒तिः । गवा॑म् । श॒ता । पृ॒क्षऽया॑मेषु । प॒ज्रे । श्रु॒तऽर॑थे । प्रि॒यऽर॑थे । दधा॑नाः । स॒द्यः । पु॒ष्टिम् । नि॒ऽरु॒न्धा॒नासः॑ । अ॒ग्म॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तुषे सा वां वरुण मित्र रातिर्गवां शता पृक्षयामेषु पज्रे। श्रुतरथे प्रियरथे दधानाः सद्यः पुष्टिं निरुन्धानासो अग्मन् ॥
स्वर रहित पद पाठस्तुषे। सा। वाम्। वरुण। मित्र। रातिः। गवाम्। शता। पृक्षऽयामेषु। पज्रे। श्रुतऽरथे। प्रियऽरथे। दधानाः। सद्यः। पुष्टिम्। निऽरुन्धानासः। अग्मन् ॥ १.१२२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 122; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यथा विद्वांसः पज्रे श्रुतरथे प्रियरथे सद्यः पुष्टिं दधाना दुःखं निरुन्धानासोऽग्मंस्तथा हे वरुण मित्र युवां पृक्षयामेषु गवां शता गच्छतम् या युवयो रातिः स्त्री सा वां युवां यथा स्तुषे तथाऽहमपि स्तौमि ॥ ७ ॥
पदार्थः
(स्तुषे) स्तौति। अत्र व्यत्ययेन मध्यमः। (सा) (वाम्) युवाम् (वरुण) गुणोत्कृष्ट (मित्र) सुहृत् (रातिः) या राति ददाति सा (गवाम्) वाणीनाम् (शता) शतानि (पृक्षयामेषु) पृच्छ्यन्ते ये ते पृक्षास्तेषामिमे यामास्तेषु। अत्र पृच्छधातोर्बाहुलकादौणादिकः क्सः प्रत्ययः। (पज्रे) गमके (श्रुतरथे) श्रुते रमणीये रथे (प्रियरथे) कमनीये रथे (दधानाः) धरन्तः (सद्यः) (पुष्टिम्) (निरुन्धानासः) निरोधं कुर्वाणाः (अग्मन्) गच्छेयुः ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेह विद्वांसः पुरुषार्थेनानेकान्यद्भुतानि यानानि रचयन्ति तथान्यैरपि रचनीयानि ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जैसे विद्वान् जन ! (पज्रे) पदार्थों के पहुँचानेवाले (श्रुतरथे) सुने हुए रमण करने योग्य रथ वा (प्रियरथे) अति मनोहर रथ में (सद्यः) शीघ्र (पुष्टिम्) पुष्टि को (दधानाः) धारण करते और दुःख को (निरुन्धानासः) रोकते हुए (अग्मन्) जावें, वैसे हे (वरुण) गुणों से उत्तमता को प्राप्त और (मित्र) मित्र तुम (पृक्षयामेषु) जो पूँछे जाते उनके यम-नियमों में (गवां, शता) सैकड़ों वचनों को प्राप्त होओ। और जो तुम्हारी (रातिः) दान देनेवाली स्त्री है (सा) वह (वाम्) तुम दोनों की (स्तुषे) स्तुति करती है, वैसे मैं भी स्तुति करूँ ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे इस संसार में विद्वान् जन पुरुषार्थ से अनेकों अद्भुत यानों को बनाते हैं, वैसे औरों को भी बनाने चाहिये ॥ ७ ॥
विषय
श्रुतरथ - प्रियरथ
पदार्थ
१. हे (वरुण मित्र) = अपान व प्राण! (वाम्) = आप दोनों की (पृक्षयामेषु) = अन्नों का नियमन होने पर, अर्थात् सात्त्विक अन्न का ही सेवन करने पर और उसके परिणामरूप (पज्रे) = मुझ आङ्गिरस के विषय में (शता गवाम्) = ज्ञान की सैकड़ों वाणियों - सम्बन्धी (रातिः) = दान (स्तुषे) = मुझसे स्तुत होता है । जब हम सात्त्विक अन्न का प्रयोग करते हैं तब हमारी बुद्धि भी सात्त्विक बनती है । वैषयिक वृत्ति न होने से हम पन - आङ्गिरस बनते हैं । उस समय यह प्राणापान की साधना हमें ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करानेवाली होती है । बुद्धि की तीव्रता से हम उन वाणियों को ग्रहण करनेवाले बनते हैं । प्राणापान का हमारे लिए यह शतशः ज्ञानवाणियों का दान वस्तुतः स्तुत्य है । २. (श्रुतरथे) = ज्ञानयुक्त है शरीर - रथ जिसका, उस श्रुतरथ में तथा (प्रियरथे) = स्वास्थ्य के कारण दर्शनीय है शरीर - रथ जिसका, उस प्रियरथ में (सद्यः) = शीघ्र ही (पुष्टिम्) = पोषण को (दधानाः) = स्थापित करते हुए और (निरुन्धानासः) = उस पुष्टि को वहीं स्थिर रखते हुए ये वरुण - मित्र आदि देव (अग्मन्) = प्राप्त होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से ही हमारा ज्ञान बढ़ता है, इसी से हमारा स्वास्थ्य उत्तम बनता है, यही हमें पुष्टि देती है और उस पुष्टि को हममें स्थिर रखती है ।
विषय
पिता, आचार्य का शिष्यवत् पुत्रों के प्रति और शिष्यों और पुत्रों का गुरु, आचार्य, माता और पिता जनों के प्रति कर्त्तव्य का वर्णन ।
भावार्थ
हे (वरुण) गुणों में उत्कृष्ट ! पापों से निवारक ! ( मित्र ) तथा स्नेहवान् दोनों प्रकार के सज्जनो ! ( वां स्तुषे ) मैं आप दोनों की स्तुति करता हूं। क्यों कि ( गवां शता ) सैकड़ों गौओं और भूमियों के समान उपकार करने वाली, या अमूल्य सैकड़ों ज्ञानवाणियों का ( वृक्षयामेषु ) प्रश्न करने योग्य ज्ञानरहस्यों के निमित्त यम नियमों का आचरण करने वाले ब्रह्मचारियों में ( वां ) तुम दोनों का ( रातिः ) दान ही श्रेष्ठ दान है। जिस प्रकार लोग ( पज्रे ) गमन करने वाले रथ में ( पुष्टिं दधानाः निरुन्धानासः ) पोषणकारी धन सम्पत् और अन्नादि रखकर और उसकी रक्षा करते हुए आगे बढ़ते हैं उसी प्रकार पिता गुरु तथा उपदेशक आदि ( निरुन्धानासः ) प्रिय शिष्यों को कुमार्गों से रोकते हुए अथवा अपनी इन्द्रियों को विषय-विलासों से रोकते हुए और जितेन्द्रिय होकर ( पज्रे ) प्राप्तव्य (श्रुतरथे) गुरुपदेश से श्रवण करने योग्य, रमणीय, और ( प्रियरथे ) अतिप्रिय रस स्वरूप आत्मा में ( पुष्टिम् ) पोषण सामर्थ्य को ( दधानाः ) धारण करते हुए ( सद्यः ) शीघ्र ही ( अग्मन् ) गमन करते हैं, आगे बढ़ते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
औशिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवताः॥ छन्दः–१, ७, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । २, ८, १० त्रिष्टुप् । ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे या संसारात विद्वान लोक पुरुषार्थाने अनेक अद्भुत याने तयार करतात तशी इतरांनीही तयार करावीत. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Mitra and Varuna, lord of light and lord of water, friends and chosen comrades, I worship you, I honour you, for the gifts of your power and generosity. The gifts of your benevolence and hundred voices of the Divine and a hundred cows of milky nourishment in the battles of speed and progress are showered on those who ride and advance in stout chariots of the Divine Word and chariots of love and beauty, always and instantly bearing gifts of nourishment and growth, ruling out all negativities and nonsense.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As learned persons mounting on their quick - going famous and favorite car come having nourishing food in abundance and alleviating suffering of others, in the same way, O ye exalted or excellent scholars and friends, come to those Brahamacharis who are enquirers and observers of the rules of self-restraint to give them hundreds of inspiring words. As your wives who are givers of joy to you admire you immensely, so I also do.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(रातिः) या राति-ददाति (सुखं) सा स्त्री = Wife who gives joys to her husband. (पज्त्रे) गमने = Quick moving. (वृक्षयामेषु ) पृच्छयन्ते ये ते पक्षास्तेषामिमे यामास्तेषु अत्र पुच्छ धातोर्बाहुलकादौणादिक: वस: प्रत्ययः । = Inquisitive observers of the rules of self-restraint.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As learned persons manufacture many kinds of wonderful vehicles, industriously, so others also should do.
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