Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 122 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 122/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उ॒त त्या मे॑ य॒शसा॑ श्वेत॒नायै॒ व्यन्ता॒ पान्तौ॑शि॒जो हु॒वध्यै॑। प्र वो॒ नपा॑तम॒पां कृ॑णुध्वं॒ प्र मा॒तरा॑ रास्पि॒नस्या॒योः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । त्या । मे॒ । य॒शसा॑ । श्वे॒त॒नायै॑ । व्यन्ता॑ । पान्ता॑ । औ॒शि॒जः॒ । हु॒वध्यै॑ । प्र । वः॒ । नपा॑तम् । अ॒पाम् । कृ॒णु॒ध्व॒म् । प्र । मा॒तरा॑ । रा॒स्पि॒नस्य॑ । आ॒योः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत त्या मे यशसा श्वेतनायै व्यन्ता पान्तौशिजो हुवध्यै। प्र वो नपातमपां कृणुध्वं प्र मातरा रास्पिनस्यायोः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। त्या। मे। यशसा। श्वेतनायै। व्यन्ता। पान्ता। औशिजः। हुवध्यै। प्र। वः। नपातम्। अपाम्। कृणुध्वम्। प्र। मातरा। रास्पिनस्य। आयोः ॥ १.१२२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 122; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यथा मे यशसा श्वेतनायै व्यन्ता पान्ता त्या हुवध्यै मातरा रास्पिनस्यायोर्वर्द्धनाय प्रवर्तेते यथापां नपातं यूयं प्रकृणुध्वं तथोतौशिजोऽहं व आयुः सततं प्रवर्द्धयेयम् ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (उत) अपि (त्या) तौ (मे) मम (यशसा) सत्कीर्त्त्या (श्वेतनायै) प्रकाशाय (व्यन्ता) विविधबलोपेतौ (पान्ता) रक्षकौ (औशिजः) कामयमानपुत्रः (हुवध्यै) आदातुम् (प्रः) (वः) युष्माकम् (नपातम्) पातरहितम् (अपाम्) जलानाम् (कृणुध्वम्) कुरुध्वम् (प्र) (मातरा) मानकारकौ (रास्पिनस्य) आदातुमर्हस्य (आयोः) जीवनस्य ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यथा सुशिक्षयाऽस्माकमायुर्यूयं वर्द्धयत तथा वयमपि युष्माकं जीवनमुन्नयेम ॥ ४ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (मे) मेरे (यशसा) उत्तम यश से (श्वेतनायै) प्रकाश के लिये (व्यन्ता) अनेक प्रकार के बल से युक्त (पान्ता) रक्षा करनेवाले (त्या) वे पूर्वोक्त पढ़ाने और उपदेश करनेहारे (हुवध्यै) हम लोगों के ग्रहण करने को (मातरा) मान करनेहारे (रास्पिनस्य) ग्रहण करने योग्य (आयोः) जीवन अर्थात् आयुर्दा के बढ़ाने को (प्र) प्रवृत्त होते हैं तथा जैसे तुम लोग (अपाम्) जलों के (नपातम्) विनाशरहित मार्ग को वा जलों के न गिरने को (प्र, कृणुध्वम्) सिद्ध करो वैसे (उत) निश्चय से (औशिजः) कामना करते हुए का सन्तान मैं (वः) तुम लोगों की आयुर्दा को निरन्तर बढ़ाऊँ ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सुन्दर शिक्षा से हम लोगों की आयुर्दा को तुम बढ़ाओ, वैसे हम भी तुम्हारी आयुर्दा की उन्नति किया करें ॥ ४ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्राणसाधना

    पदार्थ

    १. (उत) = और (त्या) = वे दोनों अश्विनीदेव - प्राणापान (मे) = मेरे (यशसा) = यश के हेतु से - मेरे यश को बढ़ाने के दृष्टिकोण से (श्वेतनायै) = मेरे जीवन की शुद्धि के लिए (व्यन्ता) = विशेषरूप से गति करते हुए तथा (पान्ता) = मुझमें सोम का पान करते हुए हैं । प्राणसाधना से जहाँ शरीर स्वस्थ होता है वहाँ मन निर्मल बनता है और बुद्धि तीव्र होती है । इस प्रकार प्राणापान हमारे जीवन को शद्ध बनाकर हमें यशस्वी बनाते हैं । यह सब क्रिया वे शरीर में वीर्य के पान व रक्षण द्वारा करते हैं । यही अश्विनीदेवों का सोमपान कहलाता है । २. (औशिजः) = मेधावी मैं - सदा हित की कामना करता हुआ (हुवध्यै) = इनको पुकारता हूँ - इनकी आराधना करता हूँ । आप दोनों (वः) = अपने (अपाम्) = इन रेतः कणरूप जलों के (नपातम्) = न गिरने देने के कार्य को (प्रकृणुध्वम्) = प्रकर्षण करनेवाले बनो । प्राणापान के द्वारा शरीर में रेतः कणों की ऊर्ध्वगति होकर हमारा उत्तमता से रक्षण हो । ३. हे प्राणापानो! आप (रास्पिनस्य) = अपने स्तोता के (आयोः) = जीवन का (प्रमातरा) = प्रकर्षेण निर्माण करनेवाले हो । प्राणसाधना से मनुष्य बहिर्मुख न रहकर अन्तर्मुख बनता है । यह अन्तर्मुखी वृत्ति उसका कल्याण - ही - कल्याण करती है । इस प्रकार प्राणसाधना से जीवन का सुन्दर निर्माण होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणायाम से जीवन शुद्ध व यशस्वी बनता है । ये प्राणापान शक्ति का क्षय नहीं होने देते । ये मनुष्य की वृत्ति को अन्तर्मुखी करके उसके जीवन को सुन्दर बनाते हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पिता, आचार्य का शिष्यवत् पुत्रों के प्रति और शिष्यों और पुत्रों का गुरु, आचार्य, माता और पिता जनों के प्रति कर्त्तव्य का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( रास्पिनस्य ) परमात्म-स्तुति में तत्पर या सुख-रस के सदा पान करने वाले ( आयोः ) पुत्र या शिष्य को ( मातरा ) निर्माण करनेवाले माता पिताओं अथवा गुरु और गुरुपत्नी जोकि ( यशसा ) ज्ञान से ( श्वेतनायै ) जगत को श्वेत करने, उज्जवल करने के लिये ( व्यन्ता ) भोजन ग्रहण करते और ( पान्ता ) जल-पान करते हैं, (त्या) आप उन दोनों का और (वः) आप सब माता पिता, और गुरुजनों का भी मैं (औशिजः) एक दूसरे को श्रद्धा पूर्वक स्वीकार करने वाले या तेजस्वी बाप का पुत्र या गुरु का शिष्य होकर ( प्र कृणोमि ) अत्यन्त अधिक आदर करता हूं । ( हुवध्यै ) और बार बार सहायतार्थ आप को पुकारता हूं। आप सब (अपां नपातम्) अपने प्राणों, ज्ञानों और आचारादि कर्तव्यों को न नष्ट होने देने वाले, मर्यादा को सुरक्षित रखने वाले पुत्र या शिष्य को ( प्र कृणुध्वम् ) उत्तम रीति से सुशिक्षित करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    औशिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवताः॥ छन्दः–१, ७, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । २, ८, १० त्रिष्टुप् । ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसे चांगल्या शिक्षणाने आमचे आयुष्य तुम्ही वाढविता तसे आम्हीही तुमच्या आयुष्याचे उन्नयन करावे. ॥ ४ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    For honour and glory with reputable action, I, child of noble ambition, invoke the two, fire and wind, one the product, the other, the giver of waters, both universal and protective as well as promotive of life and humanity. And I call upon you all: create and promote the child of waters, the fire energy, and the mother of waters, the winds.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, as I the son of a person desiring wisdom for my good reputation invoke the teachers and preachers who are mighty protectors and who make me respectable, you should also do so. They are engaged in multiplying the usefulness and strength of my life. You should not allow the water to fall down uselessly, but should utilize it for various purposes. May I also try to augment the span of your life by giving instructions about health.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (श्वेतनायै) प्रकाशाय = For light. (रास्पिनस्य) आदातुमर्हस्य = Noble or worthy of acceptance. (मातरा) मानकारकौ = Respecters or making us respectable. (औशिज:) कामयमानपुत्र: = The son of a man desiring wisdom.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, as you increase our age or the span of our life by your noble teachings, so we should also ennoble and uplift your life.

    Translator's Notes

    (औशिज:) उशिज: पुत्र: वश-कान्तौ ।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top