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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 122 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 122/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    श्रु॒तं मे॑ मित्रावरुणा॒ हवे॒मोत श्रु॑तं॒ सद॑ने वि॒श्वत॑: सीम्। श्रोतु॑ न॒: श्रोतु॑रातिः सु॒श्रोतु॑: सु॒क्षेत्रा॒ सिन्धु॑र॒द्भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्रु॒तम् । मे॒ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । हवा॑ । इ॒मा । उ॒त । श्रु॒त॒म् । सद॑ने । वि॒श्वतः॑ । सी॒म् । श्रोतु॑ । नः॒ । श्रोतु॑ऽरातिः । सु॒ऽश्रोतुः॑ । सु॒ऽक्षेत्रा॑ । सिन्धुः॑ । अ॒त्ऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रुतं मे मित्रावरुणा हवेमोत श्रुतं सदने विश्वत: सीम्। श्रोतु न: श्रोतुरातिः सुश्रोतु: सुक्षेत्रा सिन्धुरद्भिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रुतम्। मे। मित्रावरुणा। हवा। इमा। उत। श्रुतम्। सदने। विश्वतः। सीम्। श्रोतु। नः। श्रोतुऽरातिः। सुऽश्रोतुः। सुऽक्षेत्रा। सिन्धुः। अत्ऽभिः ॥ १.१२२.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 122; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मित्रावरुणा सुश्रोतुर्मे इमा हवा श्रुतमुतापि सदने विश्वतः सीं श्रुतमद्भिः सिन्धुः सुक्षेत्रेव श्रोतुरातिर्नो वचनानि श्रोतु ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (श्रुतम्) (मे) मम (मित्रावरुणा) सुहृद्वरौ (हवा) होतुमर्हाणि वचनानि (इमा) इमानि (उत) अपि (श्रुतम्) अत्र विकरणलुक्। (सदने) सदसि सभायाम् (विश्वतः) सर्वतः (सीम्) सीमायाम् (श्रोतु) शृणोतु (नः) अस्माकम् (श्रोतुरातिः) श्रोतुः श्रवणं रातिर्दानं यस्य (सुश्रोतुः) सुष्ठु शृणोति यस्तस्य (सुक्षेत्रा) शोभनानि क्षेत्राणि (सिन्धुः) (अद्भिः) जलैः ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वद्भिः सर्वेषां प्रश्नाञ्श्रुत्वा यथावत् समाधेयाः ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (मित्रावरुणा) मित्र और उत्तम जन (सुश्रोतुः मे) मुझ अच्छे सुननेवाले के (इमा) इन (हवा) देने-लेने योग्य वचनों को (श्रुतम्) सुनो (उत) और (सदने) सभा वा (विश्वतः) सब ओर से (सीम्) मर्य्यादा में (श्रुतम्) सुनो अर्थात् वहाँ की चर्चा को समझो तथा (अद्भिः) जलों से जैसे (सिन्धुः) नदी (सुक्षेत्रा) उत्तम खेतों को प्राप्त हो वैसे (श्रोतुरातिः) जिसका सुनना दूसरे को देना है, वह (नः) हम लोगों के वचनों को (श्रोतु) सुने ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वानों को चाहिये कि सबके प्रश्नों को सुन के यथावत् उनका समाधान करें ॥ ६ ॥

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    विषय

    शरीररूप क्षेत्र का जलों से सेचन

    पदार्थ

    १. हे (मित्रावरुणा) = प्राणापानो! [प्राणापान की साधना हमें राग - द्वेष से ऊपर उठाकर सबके साथ स्नेह करनेवाला तथा द्वेष से ऊपर उठनेवाला बनाती है, अतः यहाँ प्राणापान को 'मित्रा - वरुणा' कहा है ।] आप (मे) = मेरी (इमा) = इन (हवा) = पुकारों को (श्रुतम्) = सुनो (उत) = और (सदने) = इस मेरे गृह में (विश्वतः) = सब ओर (सीम्) = निश्चय से (श्रुतम्) = की जाती हुई अपनी आराधना को सुनो । मैं प्राणापान का स्तोता बनें, मेरे गृह में २. (श्रोतुरातिः) = श्रूयमान दानवाला, अर्थात् जिसके दान की सर्वत्र प्रसिद्धि है वह (नः) = हमारी पुकार को (श्रोतु) = सुने । हमारी प्रार्थना को सुनकर जीवनयात्रा के लिए आवश्यक धनों को देनेवाला हो । वह (सुश्रोतुः) = उत्तम श्रोता (सिन्धुः) = जलों की भाँति निरन्तर क्रिया - प्रवाहवाला प्रभु (अद्धिः) = [आपो रेतो भूत्वा] रेतः कणों के द्वारा (सुक्षेत्रा) = हमारे शरीररूप क्षेत्रों को उत्तम करनेवाला हो । रेतः कणों के रक्षण से ही शरीर की शक्तियाँ ठीक होती हैं । एक खेत के लिए जल का जो महत्त्व है वही महत्त्व रेतःकणों का शरीर - रूप क्षेत्र के लिए है । प्रभु के उपासन से और प्राणापान की साधना से रेतः कणों का शरीर में रक्षण होता है और शरीर की स्थिति उत्तम होती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणापान की साधना और प्रभु का आराधन रेतः कणों के रक्षण के द्वारा हमारे शरीर - क्षेत्रों को उत्तम बनाएँ ।

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    विषय

    पिता, आचार्य का शिष्यवत् पुत्रों के प्रति और शिष्यों और पुत्रों का गुरु, आचार्य, माता और पिता जनों के प्रति कर्त्तव्य का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( मित्रावरुणा ) मित्र, सर्वस्नेही ( वरुण ) और सर्वश्रेष्ठ पूजनीय, माता पिता, गुरु पत्नी उपदेशक आदि जनो ! आप दोनो ( मे ) मेरे ( इमा ) ये ( हवा ) स्वीकार करने योग्य वचनों का ( श्रुत ) श्रवण करो तथा ( सदने ) गृहमें माता-पिताओं और गुरु गृह में गुरु पत्नी तथा गुरु और ( विश्वतः ) सर्वत्र जगत् में विचरने वाले उपदेशको ! आप सब मेरे वचनों का श्रवण करो। ( नः ) हमारे वचनों को ( सुश्रोतुः ) उत्तम श्रवण शील पुरुष अर्थात् पिता गुरु तथा उपदेशक और (श्रोतुरातिः) कान देकर सुननेवाली माता गुरुपत्नी तथा उपदेशिका ( श्रोतु ) सुने । ( सिन्धुः ) बहने वाला जलप्रवाह जिस प्रकार (अद्भिः) जलों से (सुक्षेत्रा) उत्तम खेतों को सींच देता है उसी प्रकार आप हमारे हृदय-क्षेत्रों को उपदेशामृत से सींचिये ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    औशिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवताः॥ छन्दः–१, ७, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । २, ८, १० त्रिष्टुप् । ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वानांनी सर्वांचे प्रश्न ऐकून त्यांचे यथायोग्य समाधान करावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Listen ye Mitra-Varuna, friends, and all men of the chosen few, listen well to this invocation and exhortation, listen ye members of the yajnic assembly all round to this gift of wealth and well-being in the words of one who himself listened well to the voice Divine, and listen like the river receiving the waters of rain from above for the onward gift of life and growth to the fields and the farmers and so on for us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O good friends, listen to those my invocations (calls). Listen to them when they are made in an assembly or any other boundary in all directions. May the renowned generous bestower of wealth listen to our requests who hear well and attentively and may he favor us with noble sermons as a river fertilizes broad fields with water.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    [मित्रावरुणौ] सुहृद्वरौ = Good friends. [सदने] सदसि = In the assembly. [सीम्] सीमायाम् = In the boundary.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of great scholars to listen attentively to the questions put to them and to answer them satisfactorily.

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