ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 122/ मन्त्र 8
ऋषिः - कक्षीवान्
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒स्य स्तु॑षे॒ महि॑मघस्य॒ राध॒: सचा॑ सनेम॒ नहु॑षः सु॒वीरा॑:। जनो॒ यः प॒ज्रेभ्यो॑ वा॒जिनी॑वा॒नश्वा॑वतो र॒थिनो॒ मह्यं॑ सू॒रिः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्य । स्तु॒षे॒ । महि॑ऽमघस्य । राधः॑ । सचा॑ । स॒ने॒म॒ । नहु॑षः । सु॒ऽवीराः॑ । जनः॑ । यः । प॒ज्रेभ्यः॑ । वा॒जिनी॑ऽवान् । अश्व॑ऽवतः । र॒थिनः॑ । मह्य॑म् । सू॒रिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्य स्तुषे महिमघस्य राध: सचा सनेम नहुषः सुवीरा:। जनो यः पज्रेभ्यो वाजिनीवानश्वावतो रथिनो मह्यं सूरिः ॥
स्वर रहित पद पाठअस्य। स्तुषे। महिऽमघस्य। राधः। सचा। सनेम। नहुषः। सुऽवीराः। जनः। यः। पज्रेभ्यः। वाजिनीऽवान्। अश्वऽवतः। रथिनः। मह्यम्। सूरिः ॥ १.१२२.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 122; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वंस्त्वमस्याश्वावतो रथिनो महिमघस्य जनस्य राधः स्तुषे तस्य तत्सुवीरा वयं सचा सनेम यो नहुषो जनः पज्रेभ्यो वाजिनीवान् जायते स सूरिर्मह्यमेतां विद्यां ददातु ॥ ८ ॥
पदार्थः
(अस्य) (स्तुषे) (महिमघस्य) महन्मघं पूज्यं धनं यस्य तस्य (राधः) धनम् (सचा) समवायेन (सनेम) संभजेम (नहुषः) शुभाशुभकर्मबद्धो मनुष्यः। नहुष इति मनुष्यना०। निघं० २। ३। (सुवीराः) उत्कृष्टशूरवीराः (जनः) (यः) (पज्रेभ्यः) गमकेभ्यो यानेभ्यः (वाजिनीवान्) प्रशस्तवेदक्रियायुक्तः (अश्वावतः) बह्वश्वयुक्तस्य। मन्त्रे सोमाश्वेन्द्रियविश्वदेव्यस्य मतौ। अ० ६। ३। १३१। इत्यश्वशब्दस्य मतौ दीर्घः। (रथिनः) प्रशस्तरथस्य (मह्यम्) (सूरिः) विद्वान् ॥ ८ ॥
भावार्थः
यथा पुरुषार्थी समृद्धिमान् जायते तथा सर्वैर्भवितव्यम् ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वान् ! आप (अस्य) इस (अश्वावतः) बहुत घोड़ों से युक्त (रथिनः) प्रशंसित रथ और (महिमघस्य) प्रशंसा करने योग्य उत्तम धनवाले जन के (राधः) धन की (स्तुषे) स्तुति अर्थात् प्रशंसा करते हो, उन आपके उस काम को (सुवीराः) सुन्दर शूरवीर मनुष्योंवाले हम लोग (सचा) सम्बन्ध से (सनेम) अच्छे प्रकार सेवें (यः) जो (नहुषः) शुभ-अशुभ कामों में बँधा हुआ (जनः) मनुष्य (पज्रेभ्य) एक स्थान को पहुँचानेहारे यानों से (वाजिनीवान्) प्रशंसित वेदोक्त क्रियायुक्त होता है, वह (सूरिः) विद्वान् (मह्यम्) मेरे लिये इस वेदोक्त शिल्पविद्या को देवे ॥ ८ ॥
भावार्थ
जैसे पुरुषार्थी मनुष्य समृद्धिमान् होता है, वैसे सब लोगों को होना चाहिये ॥ ८ ॥
विषय
धनों का मिलकर सेवन
पदार्थ
१. (अस्य) = इस (महिमघस्य) = महत्त्वपूर्ण, महान् अथवा पूजा के योग्य ऐश्वर्यवाले प्रभु के (राधः) = ऐश्वर्य का (स्तुषे) = मैं स्तवन करता हूँ । उस प्रभु का ऐश्वर्य महान् है, अनन्त है । उसका ऐश्वर्य स्तुति के योग्य है । २. हम सब (नहुषः) = परस्पर प्रेम - सम्बन्ध में बंधे हुए (सुवीराः) = उत्तम वीर बनकर (सचा) = मिलकर (सनेम) = इस ऐश्वर्य का सेवन करनेवाले हों । वस्तुतः धनों का संविभागपूर्वक सेवन ही हमें नहुषः - परस्पर प्रीति - सम्बन्धवाला तथा सुवीर बनाता है । अन्यथा यह धन हमारे विलास का कारण बनता है और हमारी शक्तियों को जीर्ण कर देता है । २. (जनः यः) = सब शक्तियों का विकास करनेवाला वह प्रभु (पज्रेभ्यः) = आङ्गिरसों के लिए (वाजिनीवान्) = उत्तम अन्नयुक्त क्रियावाला होता है, अर्थात् प्रभु इन पञों को उत्तम अन्न प्राप्त कराते हैं । यह उत्तम सात्त्विक अन्न ही उनकी पज्रता का मूल है । यह प्रभु ही (अश्वावतः) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले (रथिनः) = प्रशस्त शरीररूप रथवाले (मह्यम्) = मेरे लिए (सूरिः) = प्रेरक होता है । प्रभुकृपा से ही मेरा रथ ठीक मार्ग पर चलता है और मेरे इन्द्रियाश्व इस रथ को तीव्रता से लक्ष्य स्थान की ओर ले चलनेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम प्रभु के महनीय ऐश्वर्य का मिलकर सेवन करनेवाले हों । प्रभु ही हमें उत्तम अन्न प्राप्त कराते हैं और हमारे लिए उत्तम प्रेरणा देनेवाले होते हैं ।
विषय
पिता, आचार्य का शिष्यवत् पुत्रों के प्रति और शिष्यों और पुत्रों का गुरु, आचार्य, माता और पिता जनों के प्रति कर्त्तव्य का वर्णन ।
भावार्थ
मैं पुत्र या शिष्य ( अस्य ) इस ( महिमघस्य ) महान् एवं पूजा योग्य उत्तम धन अर्थात् श्रेष्ठ विधि से कमाए हुए धन या विद्या के स्वामी अर्थात् पिता या गरु की ( राधः ) सम्पत्ति की ( स्तुषे ) प्रशंसा करता हूं जिस सम्पत्ति को हम ( सुवीराः ) उत्तम वीर (नहुषः) पुरुष (सनेम) स्वयं लेकर अन्यों के प्रति दान करें । ( यः ) जो स्वामी ( पज्रेभ्यः ) बलवन्तों को ( वाजिनीवान् ) ज्ञान और अन्न रूप सम्पत्ति का देने वाला है और ( मह्यं च ) मुझ पुत्र या शिष्य के हित के लिये मुझे ( सूरिः ) सन्मार्ग पर चलाने वाला है, मैं (अस्य अश्वावतः) उस इन्द्रियों के स्वामी और ( रथिनः ) शरीर-रथ के स्वामी की स्तुति करता हूं, उसकी प्रशंसा करता हूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
औशिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवताः॥ छन्दः–१, ७, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । २, ८, १० त्रिष्टुप् । ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसा पुरुषार्थी मनुष्य समृद्धियुक्त असतो तसे सर्व लोकांनी झाले पाहिजे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I honour and admire the wealth and generosity of this man of power and prosperity, and pray, we join the noble man in a spirit of friendship, blest as we are with noble and brave progeny and friends. I wish the heroic man of knowledge and the chariot, possessed of fast conveyances, power and speed, and horses and horse-power were to share the secret for me.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person! Thou praises the wealth of this man who has many horses and many chariots or cars and is prosperous. May we get his wealth distributed among the needy being ourselves heroic and having good progeny. May the man who being tied to good and bad deeds becomes doer of noble actions sanctioned by the Vedas mounting on quick moving cars, instruct me in this science..
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(नहुष:) शुभाशुभकर्मबद्धो मनुष्य: = man tied or bound by good or bad deeds. (वज्त्रेभ्यः) गमकेभ्यो यानेभ्यः = By quick moving vehicles.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As an industrious person becomes prosperous, so should other also be.
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