ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 122/ मन्त्र 12
ऋषिः - कक्षीवान्
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒तं शर्धं॑ धाम॒ यस्य॑ सू॒रेरित्य॑वोच॒न्दश॑तयस्य॒ नंशे॑। द्यु॒म्नानि॒ येषु॑ व॒सुता॑ती रा॒रन्विश्वे॑ सन्वन्तु प्रभृ॒थेषु॒ वाज॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तम् । शर्ध॑म् । धाम॑ । यस्य॑ । सू॒रेः । इति॑ । अ॒वो॒च॒न् । दश॑ऽतयस्य । नंशे॑ । द्यु॒म्नानि॑ । येषु॑ । व॒सुऽता॑तिः । र॒रन् । विश्वे॑ । स॒न्व॒न्तु॒ । प्र॒ऽभृ॒थेषु॑ । वाज॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतं शर्धं धाम यस्य सूरेरित्यवोचन्दशतयस्य नंशे। द्युम्नानि येषु वसुताती रारन्विश्वे सन्वन्तु प्रभृथेषु वाजम् ॥
स्वर रहित पद पाठएतम्। शर्धम्। धाम। यस्य। सूरेः। इति। अवोचन्। दशऽतयस्य। नंशे। द्युम्नानि। येषु। वसुऽतातिः। ररन्। विश्वे। सन्वन्तु। प्रऽभृथेषु। वाजम् ॥ १.१२२.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 122; मन्त्र » 12
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
वसुतातिरहं यथा विद्वांसो यस्य दशतयस्य सूरेः सकाशाद् यच्छर्द्धं धामावोचन्। ये विश्वे वाजं रारन् येषु प्रभृथेषु द्युम्नानि सन्वन्त्विति तदेतं सर्वं सेवित्वा दुःखानि नंशे ॥ १२ ॥
पदार्थः
(एतम्) पूर्वोक्तं सर्वं वस्तुजातम् (शर्द्धम्) बलयुक्तम् (धाम) स्थानम् (यस्य) (सूरेः) विदुषः (इति) अनेन प्रकारेण (अवोचन्) वदेयुः (दशतयस्य) दशधा विद्यस्य (नंशे) अदर्शयेयम् (द्युम्नानि) यशांसि धनानि वा (येषु) (वसुतातिः) धनाद्यैश्वर्य्ययुक्तः (रारन्) दद्युः (विश्वे) सर्वे (सन्वन्तु) संभजन्तु (प्रभृथेषु) (वाजम्) ज्ञानमन्नं वा ॥ १२ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विपश्चितो मनुष्याः पूर्णविद्याविदोऽखिला विद्याः प्राप्यान्यानुपदिशन्ति ते यशस्विनो भवन्ति ॥ १२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(वसुतातिः) धन आदि ऐश्वर्य्ययुक्त मैं जैसे विद्वान् जन (यस्य) जिस (दशतयस्य) दश प्रकार की विद्याओं से युक्त (सूरेः) विद्वान् के सकाश से जिस (शर्द्धम्) बलयुक्त (धाम्) स्थान को (अवोचन्) कहें वा जो (विश्वे) सब विद्वान् (वाजम्) ज्ञान वा अन्न को (रारन्) देवें (येषु) जिन (प्रभृथेषु) अच्छे धारण किये हुए पदार्थों में (द्युम्नानि) यश वा धनों को (सन्वन्तु) सेवन करें (इति) इस प्रकार उस ज्ञान और (एतम्) इस पूर्वोक्त सब पदार्थों का सेवन कर दुःखों को (नंशे) नाश करूँ ॥ १२ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् मनुष्य पूर्ण विद्याओं को जाननेहारे समस्त विद्याओं को पाकर औरों को उपदेश देते हैं, वे यशस्वी होते हैं ॥ १२ ॥
विषय
शक्ति व धनों का यज्ञों में विनियोग
पदार्थ
१. (यस्य सूरेः) = जिस प्रेरक प्रभु का (एतम्) = यह (शर्धम्) = शत्रुओं का प्रसहन करनेवाला (धाम) = तेज है, (इति) = इस प्रकार (अवोचम्) = उस प्रभु का स्तवन करते हैं । उस प्रभु की 'तेजोऽसि' इत्यादि शब्दों से स्तुति करते हैं । इस स्तुति से ये (दशतयस्य नंशे) = दस प्रकार की शक्ति को प्राप्त करते हैं । दस इन्द्रियाँ हैं । एक - एक इन्द्रिय की शक्ति की प्राप्ति उस तेजः पुञ्ज प्रभु के सम्पर्क से प्राप्त होती है । २. (येषु) = जिनमें (द्युम्नानि) = [द्युम्न - Splendour, wealth] ज्योतिर्मय धन होते हैं, वे (वसुतातिः) = [वसुतातये] यज्ञों के लिए इन धनों को (रारन्) = देनेवाले होते हैं । ज्ञान के अभाव में धन अपने विलास में व्यय होता है । ज्ञान होने पर इनका विनियोग यज्ञों में होता है । 'धन प्रभु का है' - यही ज्ञान है । इस ज्ञान के होने पर धन का विनियोग प्रभु के कार्यों में ही तो होगा । ३. इस प्रकार (विश्वे) = औरों के जीवन में प्रवेश करनेवाले [विशन्ति] ये व्यक्ति (प्रभृथेषु) = प्रकृष्टभरणात्मक कार्यों के होने पर (वाजं सन्वन्तु) = शक्ति को सम्यक् प्राप्त करनेवाले हों । यज्ञात्मक कार्यों में लगे रहने पर शक्ति मिलती है और भोगप्रवणता में शक्ति का हास है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम सब तेज को प्रभु का समझें, उससे सम्पर्क स्थापित करके सब इन्द्रियों की शक्ति को प्राप्त करें । धनों का यज्ञ में विनियोग करें ताकि हमारी शक्ति स्थिर रहे ।
विषय
महान् परमेश्वर का वर्णन ।
भावार्थ
( यस्य ) जिस ( सूरेः ) सबके प्रेरक और सर्वोत्पादक ( दशतयस्य ) दशों दिशाओं में व्यापक परमेश्वर के ही ( नंशे ) समस्त संसार का प्रलय द्वारा नाश करने में ( एतं ) इस ( शर्धः ) बड़े भारी बल का और ( नंशे ) जगत् को व्यापने में जिसके ( धाम ) बड़े भारी धारण सामर्थ्य का विद्वान् जन ( अवोचन ) वर्णन किया करते हैं वह ( वसुतातिः ) समस्त वसने वाले जीवों और वसने योग्य लोकों के विस्तार करने वाला है । हे विद्वान् पुरुषो ! ( येषु ) जिन श्रेष्ठ यज्ञादि कार्यों के,या श्रेष्ठ पुरुषों के आश्रय पर आप (विश्वे) सब लोग (द्युम्नानि) नाना ऐश्वर्यों को ( रारन् ) भोगते हो उनसे ( प्रभृथेषु ) उत्तम प्रकार से सब का भरण पोषण करने वाले अनेक यज्ञ आदि कामों में और राजा, पुरोहित आचार्य आदि श्रेष्ठ पुरुषों में अपने (वाजम्) ऐश्वर्यका (सन्वन्तु ) दान किया करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
औशिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवताः॥ छन्दः–१, ७, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । २, ८, १० त्रिष्टुप् । ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी विद्वान माणसे पूर्ण विद्या जाणणारी असतात व संपूर्ण विद्या प्राप्त करून इतरांना उपदेश करतात ती यशस्वी होतात. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Lord, let me attain to the house of the man of tenfold knowledge of the Veda, Vedangas and yajnic liberality of which the wise and pious may say: This is the great house of the brave and generous man of fame wherein may all the wealths of the world abound and in whose rich oblations may all the divinities of nature and humanity rejoice and partake of the fragrant nourishment.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I who am possessed of wealth, destroy all my miseries by acquiring powerful position which is told by great scholars who are well-versed in tenfold knowledge Those scholars give that knowledge of ten kinds to all. In the Yajnas where all virtues are particularly preserved, there Let the scholars is all good reputation and real wealth. Let the scholars diffuse knowledge and distribute food and wealth among the needy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दशतयस्य) दशधाविद्यस्य = A scholar who possesses tenfold knowledge. (वाजम्) ज्ञानम् अन्नं वा = Knowledge or food. (द्युम्नानि) यशांसि धनानि वा = Fame or wealth.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those great scholars who having acquired the knowledge of all sciences teach others, become glorious and famous.
Translator's Notes
दशतयस्य has been translated by Rishi Dayananda Sarasvati as दशधा विद्यस्य = Possessing tenfold knowledge but not explained. In our opinion, it may mean the knowledge of the four Vedas-which are encyclopedia of various sciences with six Angas (Branches) (or limbs consisting) of शिक्षा (The science of alphabets, and their accents etc.) व्याकरण Grammar कल्प (The science of rituals, ceremonies, Yajnas etc.) ज्योतिष (The various branches of Astronomy) निरुक़्त (Vedic etymology including true philology and) छन्द (The Science of meters) This tenfold knowledge thus covers all the departments of various sciences. वाज इति अन्नाम (निघ० २.७ ) वाज is derived from वाज-गतौ the first meaning of which is at or knowledge. दयुम्नम् इति धननाम (निघ० २.१०) धुम्नं धौततेर्यशो वा अन्नवेति निरुक्ते प्रभूवेषु has not been explained in the commentary by oversight. Sayanacharya interprets it as प्रकृष्टभरणेषु यागेषु = In the Yajnas which sustain all well. It is strange to note that Sayanacharya explains वसुताति as वसूनां हविर्लक्षणानां धनानां वा विस्तारयितार ऋत्विज| वचन व्यत्यय: Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation is simple and clear धनाद्यैश्वर्ययुक्त:- Possessor of wealth.
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