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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 122 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 122/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    म॒मत्तु॑ न॒: परि॑ज्मा वस॒र्हा म॒मत्तु॒ वातो॑ अ॒पां वृष॑ण्वान्। शि॒शी॒तमि॑न्द्रापर्वता यु॒वं न॒स्तन्नो॒ विश्वे॑ वरिवस्यन्तु दे॒वाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒मत्तु॑ । नः॒ । परि॑ऽज्मा । व॒स॒र्हा । म॒मत्तु॑ । वातः॑ । अ॒पाम् । वृष॑ण्ऽवान् । शि॒शी॒तम् । इ॒न्द्रा॒प॒र्व॒ता॒ । यु॒वम् । नः॒ । तत् । नः॒ । विश्वे॑ । व॒रि॒व॒स्य॒न्तु॒ । दे॒वाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ममत्तु न: परिज्मा वसर्हा ममत्तु वातो अपां वृषण्वान्। शिशीतमिन्द्रापर्वता युवं नस्तन्नो विश्वे वरिवस्यन्तु देवाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ममत्तु। नः। परिऽज्मा। वसर्हा। ममत्तु। वातः। अपाम्। वृषण्ऽवान्। शिशीतम्। इन्द्रापर्वता। युवम्। नः। तत्। नः। विश्वे। वरिवस्यन्तु। देवाः ॥ १.१२२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 122; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सद्गुणानां व्यवसायं व्यवहारं चाह ।

    अन्वयः

    यथा वसर्हा परिज्मा नो ममत्वपां वृषण्वान् वातो नो ममत्तु। हे इन्द्रापर्वतेव वर्त्तमानावध्यापकोपदेशकौ युवं नश्शिशीतं विश्वे देवा नो वरिवस्यन्तु तथा तत् तान् सर्वान् सत्कृतान् वयं सततं कुर्याम ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (ममत्तु) हर्षयतु (नः) अस्मान् (परिज्मा) परितो जमत्यत्ति यः सोऽग्निः (वसर्हा) वसानां वासहेतूनामर्हकः। अत्र शकन्ध्वादिना पररूपम्। (ममत्तु) (वातः) वायुः (अपाम्) जलानाम् (वृषण्वान्) वृष्टिहेतुः (शिशीतम्) तीक्ष्णबुद्धियुक्तान् कुरुतम् (इन्द्रापर्वता) सूर्य्यमेघाविव (युवम्) युवाम् (नः) अस्मान् (तत्) (नः) अस्मभ्यम् (विश्वे) सर्वे (वरिवस्यन्तु) परिचरन्तु (देवाः) विद्वांसः ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या यथाऽस्मान् प्रसादयेयुस्तथा वयमप्येतान् प्रीणयेम ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में अच्छे गुणों के विचार और व्यवहार का उपदेश करते हैं ।

    पदार्थ

    जैसे (वसर्हा) निवास कराने की योग्यता को प्राप्त होता और (परिज्मा) पाये हुए पदार्थों को सब ओर से खाता जलाता हुआ अग्नि (नः) हम लोगों को (ममत्तु) आनन्दित करावे वा (अपाम्) जलों की (वृषण्वान्) वर्षा करानेहारा (वातः) पवन हम लोगों को (ममत्तु) आनन्दयुक्त करावे। हे (इन्द्रापर्वता) सूर्य्य और मेघ के समान वर्त्तमान पढ़ाने और उपदेश करनेवालो ! (युवम्) तुम दोनों (नः) हम लोगों को (शिशीतम्) अतितीक्ष्ण बुद्धि से युक्त करो वा (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (नः) हम लोगों के लिये (वरिवस्यन्तु) सेवन अर्थात् आश्रय करें, वैसे (तत्) उन सबको सत्कारयुक्त हम लोग निरन्तर करें ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य जैसे हम लोगों को प्रसन्न करें, वैसे हम लोग भी उन मनुष्यों को प्रसन्न करें ॥ ३ ॥

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    विषय

    इन्द्रपर्वता [सूर्य व पर्जन्य]

    पदार्थ

    .१. (वसर्हा) = [वस्+अर्ह] हमारे निवास को योग्य एवं उत्तम बनानेवाला (परिज्मा) = परितः गतिवाला सूर्य (नः) = हमें (ममत्तु) = [मादयतु] हर्षित करे । सूर्य अपनी किरणों के द्वारा रोगकृमियों को नष्ट करता है और सर्वत्र प्राणशक्ति का सञ्चार करता है, इस प्रकार सूर्य हमारे निवास को उत्तम बनाता है । यह हमें स्वस्थ बनाकर आनन्दित करनेवाला हो । २. (अपां वृषण्वान्) = जलों का वर्षण करनेवाला (वातः) = वायु (ममत्तु) = हमारे जीवनों को आनन्दित करे । वृष्टि लानेवाली वायुएँ सन्ताप को तो दूर करती ही हैं, वे अन्न को उत्पन्न करके भी हमारे जीवन को आनन्दित करनेवाली होती हैं । ३. हे इन्द्रापर्वता - सूर्य व बादल [पर्वतः वृष्ट्यादिपूर्णवान् पर्जन्यः - सा०] (युवम्) = आप (नः) = हमारी (शिशीतम्) = शक्तियों को तीक्ष्ण करनेवाले होओ । सूर्य व बादलों की सम्मिलित क्रिया से हमारी सब शक्तियों का ठीक प्रकार से वर्धन हो । ४. (तत्) = तब, ऐसा होने पर (विश्वे) = सब (देवाः) = देव - प्राकृतिक शक्तियाँ (नः) = हमें (वरिवस्यन्तु) = उत्तम अन्नादि देनेवाली हों [समृद्धानप्रदानेन प्रीणयन्तु - सा०] । इन उत्तम अन्नों के सेवन से हमारी सब शक्तियों का ठीक प्रकार से विकास हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - सूर्य व वृष्टिवात हमारे जीवन को आनन्दित करें । सब प्राकृतिक शक्तियाँ समृद्ध अन्नप्रदान से हमारी शक्तियों का वर्धन करनेवाली हों ।

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    विषय

    पिता, आचार्य का शिष्यवत् पुत्रों के प्रति और शिष्यों और पुत्रों का गुरु, आचार्य, माता और पिता जनों के प्रति कर्त्तव्य का वर्णन ।

    भावार्थ

    (वसर्हा) वसने और आच्छादन करने योग्य, गृह-वस्त्रादि से आदर करने हारा, (परिज्मा) उद्यमी या अन्न देने वाला, और (अपां वृषण्वान्) आप्त पुरुषों के हितार्थ मेघके समान ऐश्वर्यो की वृष्टि करने वाला ऐश्वर्यवान् पिता तथा ( वसर्हा ) अपने समीप बसने वाले शिष्यों को आदर से रखने वाला और उनके द्वारा आदरणीय, ( परिज्मा ) सबको अन्न तथा ज्ञान प्रदान करनेवाला, और ( अपां वृषण्वान् ) आप्त या प्राप्त शिष्यों के हितार्थ ज्ञान जलों का वर्षण करने वाला गुरु ये दोनों हमें हर्षित करें । हे ( इन्द्रापर्वता ) सूर्य या विद्युत् या वायु और पर्वत या मेघ के समान सर्वोपकारक, ज्ञानप्रकाश और ऐश्वर्य जल, के देने वाले पिता और गुरु ! ( युवं ) आप दोनों ( निः शिशीतम् ) हम अधीनस्थ ब्रह्मचारियों और सन्तानों को तीक्ष्ण बुद्धि, तपस्या और अभ्यास से शिक्षित करें। और ( नः ) हमें ( विश्वे देवाः ) सब विद्वान् और दानशील पुरुष भी ( तत् वरिवस्यन्तु ) ज्ञान और ऐश्वर्य प्रदान करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    औशिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवताः॥ छन्दः–१, ७, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । २, ८, १० त्रिष्टुप् । ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे आम्हाला प्रसन्न करतात त्यांना आम्हीही प्रसन्न करावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May the light of the sun and heat of fire, all radiating, all consuming and creating, give us joy. May the winds, harbingers of rain showers, give us joy. May Indra, cosmic energy, and the clouds, both, sharpen our intellect, and may He, the Lord Almighty, and all the generous divinities of nature and humanity bless us with the wealth and joy of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The cultivation of virtues is taught in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May fire that consumes all and is the sustainer of many things delight us. May the wind, the shedder of rain gladden us O teacher and preacher, you who are like the sun and the cloud sharpen our intellects. May all enlightened persons show us favor.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ममत्तु ) हर्षयतु = May delight. (परिज्मा ) परितः जमति अति स: अग्निः = Fire that consumes on all sides. (इन्द्रपर्वता) सूर्यमेघाविव वर्तमान अध्यापकोपदेशकौ = The teacher and preacher who are like the sun and the cloud. (वरिवस्यन्तु) परिचरन्तु = Serve or favor.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    We must also please and satisfy those persons, who try to please and gladden us.

    Translator's Notes

    ममत्सु is from मदी-हर्षे । जसु प्रदने भ्वा पर्वत इति मेघनाम [निघ० १.१०] एष एवेन्द्रो य एष [सूर्य:] तपति [शतपथ २.६.४.१२] स यः स इन्द्रः एष एव स य एष [सूर्य:] तपति [जैमिनीयोपनिषद्ब्राह्मणे १.२८.२]

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