ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 122/ मन्त्र 14
हिर॑ण्यकर्णं मणिग्रीव॒मर्ण॒स्तन्नो॒ विश्वे॑ वरिवस्यन्तु दे॒वाः। अ॒र्यो गिर॑: स॒द्य आ ज॒ग्मुषी॒रोस्राश्चा॑कन्तू॒भये॑ष्व॒स्मे ॥
स्वर सहित पद पाठहिर॑ण्यऽकर्णम् । म॒णि॒ऽग्री॒व॒म् । अर्णः॑ । तम् । नः॒ । विश्वे॑ । व॒रि॒व॒स्य॒न्तु॒ । दे॒वाः । अ॒र्यः । गिरः॑ । स॒द्यः । आ । ज॒ग्मुषीः॑ । आ । उ॒स्राः । चा॒क॒न्तु॒ । उ॒भये॑षु । अ॒स्मे इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हिरण्यकर्णं मणिग्रीवमर्णस्तन्नो विश्वे वरिवस्यन्तु देवाः। अर्यो गिर: सद्य आ जग्मुषीरोस्राश्चाकन्तूभयेष्वस्मे ॥
स्वर रहित पद पाठहिरण्यऽकर्णम्। मणिऽग्रीवम्। अर्णः। तम्। नः। विश्वे। वरिवस्यन्तु। देवाः। अर्यः। गिरः। सद्यः। आ। जग्मुषीः। आ। उस्राः। चाकन्तु। उभयेषु। अस्मे इति ॥ १.१२२.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 122; मन्त्र » 14
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
ये विश्वे देवा नो जग्मुषीर्गिरस्सद्य आचकन्तूभयेष्वस्मे च यदर्णः कामयेरन् योऽर्यो जग्मुषीर्गिर उस्राश्च कामयते तं हिरण्यकर्णं मणिग्रीवं तदस्मांश्चावरिवस्यन्तु तानेतान् कर्णं प्रतिष्ठापयेम ॥ १४ ॥
पदार्थः
(हिरण्यकर्णम्) हिरण्यं कर्णे यस्य तम् (मणिग्रीवम्) मणयो ग्रीवायां यस्य तम् (अर्णः) सुसंस्कृतमुदकम् (तत्) (नः) अस्मभ्यम् (विश्वे) अखिलाः (वरिवस्यन्तु) सेवन्ताम् (देवाः) विद्वांसः (अर्य्यः) वैश्यः (गिरः) सर्वदेशभाषाः (सद्यः) तूर्णम् (आ) (जग्मुषीः) प्राप्तुं योग्याः (आ) (उस्राः) गावः (चाकन्तु) कामयन्तु (उभयेषु) स्वेष्वन्येषु च (अस्मे) अस्मासु ॥ १४ ॥
भावार्थः
ये विद्वांसो याश्च विदुष्यस्तनयान् दुहितरश्च सद्यो विदुषो विदुषीश्च कुर्वन्ति। ये वणिग्जनाः सकलदेशभाषा विज्ञाय देशदेशान्तराद्द्वीपद्वीपान्तराच्च धनमाहृत्य श्रीमन्तो भवन्ति ते सर्वैः सर्वथा सत्कर्त्तव्याः ॥ १४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (विश्वे, देवाः) समस्त विद्वान् (नः) हम लोगों के लिये (जग्मुषीः) प्राप्त होने योग्य (गिरः) वाणियों की (सद्यः) शीघ्र (आ, चाकन्तु) अच्छे प्रकार कामना करें वा (उभयेषु) अपने और दूसरों के निमित्त तथा (अस्मे) हम लोगों में जो (अर्णः) अच्छा बना हुआ जल है उसकी कामना करें और जो (अर्यः) वैश्य प्राप्त होने योग्य सब देश, भाषाओं और (उस्राः) गौओं की कामना करे उस (हिरण्यकर्णम्) कानों में कुण्डल और (मणिग्रीवम्) गले में मणियों को पहिने हुए वैश्य को (तत्) तथा उस उक्त व्यवहार और हम लोगों की (आ, वरिवस्यन्तु) अच्छे प्रकार सेवा करें, उन सबकी हम लोग प्रतिष्ठा करावें ॥ १४ ॥
भावार्थ
जो विद्वान् मनुष्य वा विदुषी पण्डिता स्त्री लड़के-लड़कियों को शीघ्र विद्वान् और विदुषी करते वा जो वणियें सब देशों की भाषाओं को जानके देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर से धन को लाख ऐश्वर्ययुक्त होते हैं, वे सबको सब प्रकारों से सत्कार करने योग्य हैं ॥ १४ ॥
विषय
'हिरण्यकर्ण - मणिग्रीव'
पदार्थ
१. (हिरण्यकर्णम्) = 'हिरण्यं वै ज्योतिः' [हिरण्यं कर्णे यस्य] जिसके कान में सदा ज्ञान के शब्द पड़ रहे हैं और (मणिग्रीवम्) = मणियुक्त ग्रीवावाले, अर्थात् जिसमें मणि - सोमशक्ति ऊर्ध्वगतिवाली होकर ग्रीवा का आभूषण बनती है तत् - उस अर्णः - [अरणीयं रूपम् - सा०] प्राप्त करने योग्य रूप को (विश्वे देवाः) = सब देव (परिवस्यन्तु) = [प्रयच्छन्तु] हमें दें, अर्थात् हमारे जीवन में दो बातें मुख्य हैं - [क] हम सदा ज्ञान की बातों का श्रवण करें तथा [ख] शरीर में उत्पन्न शक्ति की ऊर्ध्वगति के द्वारा इसे ग्रीवा का आभूषण बनाएँ । २. इस रूप की प्राति के लिए अर्यः - उस निरन्तर गतिशील प्रभु की (गिरः) = ज्ञानवाणियों और (उस्त्राः) = गौएँ और उनसे प्राप्त होनेवाले दूधादि पदार्थ (सद्यः) = शीघ्र ही (आजग्मुषी) = हमारी ओर आनेवाले हों और (अस्मे) = हमारे (उभयेषु) = ऐहिक और आमुष्मिक लाभों के निमित्त (आचाकन्तु) = खूब ही कामनावाले हों । इन ज्ञानवाणियों और हव्य पदार्थों से हमें ऐहलौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार का लाभ हो । ये ज्ञानवाणियाँ ही तो हमें हिरण्यकर्ण व मणिनीव बनाएँगी ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की ज्ञानवाणियों को प्राप्त करके हम 'हिरण्यकर्ण व मणिग्रीव' बनें ।
विषय
हिरण्यकर्ण मणिग्रीव का रहस्य ।
भावार्थ
( विश्वे देवाः ) समस्त विनयशील योद्धाजन तथा विद्वान् पुरुष मिलकर ( नः ) हमारे में से ( हिरण्यकर्णं ) कान में सुवर्ण के कुण्डल पहने और ( मणिग्रीवम् ) गले में मणियों की माला पहने, उत्तम नायक पुरुष का (तत् अर्णः) वह उत्तम जल, अर्ध्य, पाद्य, आचमन और अभिषेक आदि के योग्य जल ( वरिस्यन्तु ) प्रदान कर उसकी सेवा करें । और ( अस्मे ) हमारे हित के लिये ( उभयेषु ) हमारे अपने और परायों के बीच में ( देवाः ) उत्तम विद्वान् पुरुष उसको (चाकन्तु) चाहें । (अर्यः) वह सबका स्वामी पुरुष ( सद्यः ) शीघ्र ही ( जग्मुषीः ) ज्ञान करने योग्य ( गिरः ) वाणियों, समस्त भाषाओं और वेदवाणियों को और ( उस्रा: ) दुधार गौवों को ( आ ) प्राप्त करें । ( २ ) अध्यात्म में—आत्मा या इष्टदेव तेजो मय, हित और रमणयोग्य साधनों से और प्राणों से युक्त होने हिरण्यकर्ण है। मननशील मनद्वारा समस्त ग्राह्य ज्ञानों का लेनेवाला होने से मणिग्रीव है, देह का स्वामी होने से अर्थ है वह समस्त वाणियों को वश करता है । ( देवाः ) सब प्राण उस वरिष्ठ प्राण आत्मा को चाहते और उसके अधीन रहते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
औशिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवताः॥ छन्दः–१, ७, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । २, ८, १० त्रिष्टुप् । ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे विद्वान व विदुषी मुलामुलींना विद्वान व विदुषी करतात किंवा जे वैश्य सर्व देशांच्या भाषा जाणून देशदेशान्तरी द्वीपद्वोपान्तरी जाऊन धन आणून ऐश्वर्ययुक्त होतात त्यांचा सर्वांनी सत्कार करावा असे ते असतात. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May all the powers of nature and nobilities of humanity bless the man of oceanic generosity wearing gold and diamond in the neck and ear, and may they wide open the paths of progress for him and for us. And may the generous producer of wealth always try to create the knowledge of living languages of communication and the wealth of cows for himself and for us all.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Let us honor those venerable enlightened persons who serve and protect those business men who know or desire to know the languages of various lands, who desire to serve all their Kith and Kin and strangers with good pure cold drinks and serve the cows, who are decorated with golden ear-rings and Jewels, necklaces.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अर्णः) सुसंस्कृतम् उदकम् = Pure and refined water or cold drinks of various kinds. (उस्रा:) गावः = Cows.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those learned persons are always to be respected who make their sons and daughters highly educated. Those traders are also to be honored who having learnt the languages of various countries and having brought wealth from distant lands through business become rich.
Translator's Notes
अर्णइत्युदकनाम (निघ० १.१२ ) उत्रा इति गोनाम (निघ० २.११ )
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