ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 122/ मन्त्र 15
ऋषिः - कक्षीवान्
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
च॒त्वारो॑ मा मश॒र्शार॑स्य॒ शिश्व॒स्त्रयो॒ राज्ञ॒ आय॑वसस्य जि॒ष्णोः। रथो॑ वां मित्रावरुणा दी॒र्घाप्सा॒: स्यूम॑गभस्ति॒: सूरो॒ नाद्यौ॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठच॒त्वारः॑ । मा॒ । म॒श॒र्शार॑स्य । शिश्वः॑ । त्रयः॑ । राज्ञः॑ । आय॑वसस्य । जि॒ष्णोः । रथः॑ । वा॒म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । दी॒र्घऽअ॑प्साः॒ । स्यूम॑ऽगभस्तिः । सूरः॑ । न । अ॒द्यौ॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
चत्वारो मा मशर्शारस्य शिश्वस्त्रयो राज्ञ आयवसस्य जिष्णोः। रथो वां मित्रावरुणा दीर्घाप्सा: स्यूमगभस्ति: सूरो नाद्यौत् ॥
स्वर रहित पद पाठचत्वारः। मा। मशर्शारस्य। शिश्वः। त्रयः। राज्ञः। आयवसस्य। जिष्णोः। रथः। वाम्। मित्रावरुणा। दीर्घऽअप्साः। स्यूमऽगभस्तिः। सूरः। न। अद्यौत् ॥ १.१२२.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 122; मन्त्र » 15
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजधर्मविषयमाह।
अन्वयः
हे मित्रावरुणा यो वां रथः स मा मां प्राप्नोतु यस्य मशर्शारस्यायवसस्य जिष्णो राज्ञः स्यूमगभस्तिः सूरो त रथोऽद्यौत् तथा यस्य दीर्घाप्साश्चत्वारस्त्रयश्च शिश्वः स्युः स राज्यं कर्तुमर्हेत् ॥ १५ ॥
पदार्थः
(चत्वारः) वर्णा आश्रमाश्च (मा) माम् (मशर्शारस्य) यो मशान् दुष्टान् शब्दान् शृणाति हिनस्ति तस्य। अत्र पृषोदरादिना पूर्वपदस्य रुगागमः। (शिश्वः) शासनीयाः (त्रयः) अध्यक्षप्रजाभृत्याः (राज्ञः) न्यायविनयाभ्यां राजमानस्य प्रकाशमानस्य (आयवसस्य) पूर्णसामग्रीकस्य (जिष्णोः) जयशीलस्य (रथः) यानम् (वाम्) युवयोः (मित्रावरुणा) सुहृद्वरौ (दीर्घाप्साः) दीर्घा बृहन्तोऽप्साः शुभगुणव्याप्तयो येषां ते (स्यूमगभस्तिः) समूहकिरणः (सूरः) सविता (न) इव (अद्यौत्) प्रकाशयति ॥ १५ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यस्य राज्ञो राष्ट्रे विद्यासुशिक्षायुक्ता गुणकर्मस्वभावतो नियता धार्मिकाश्चत्वारो वर्णा आश्रमाश्च त्रयः सेनाप्रजान्यायाधीशाश्च सन्ति स सूर्य इव कीर्त्या सुशोभितो भवति ॥ १५ ॥अत्र राजप्रजामनुष्यधर्मवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥इति द्वाविंशत्युत्तरं शततमं सूक्तं तृतीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजधर्म विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (मित्रावरुणा) मित्रः और उत्तम जन ! जो (वाम्) तुम लोगों का (रथः) रथ है वह (मा) मुझको प्राप्त होवे, जिस (मशर्शारस्य) दुष्ट शब्दों का विनाश करते हुए (आयवसस्य) पूर्ण सामग्रीयुक्त (जिष्णोः) शत्रुओं को जीतनेहारे (राज्ञः) न्याय और विनय से प्रकाशमान राजा का (स्यूमगभस्तिः) बहुत किरणों से युक्त (सूरः) सूर्य के (न) समान रथ (अद्यौत्) प्रकाश करता तथा जिसके (दीर्घाप्साः) जिनको अच्छे गुणों में बहुत व्याप्ति वे (चत्वारः) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्ण और ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास ये चार आश्रम तथा (त्रयः) सेना आदि कामों के अधिपति, प्रजाजन तथा भृत्यजन ये तीन (शिश्वः) सिखाने योग्य हों, वह राज्य करने को योग्य हो ॥ १५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जिस राजा के राज्य में विद्या और अच्छी शिक्षायुक्त गुण, कर्म, स्वभाव से नियमयुक्त धर्मात्माजन चारों वर्ण और आश्रम तथा सेना, प्रजा और न्यायाधीश हैं, वह सूर्य्य के तुल्य कीर्त्ति से अच्छी शोभायुक्त होता है ॥ १५ ॥इस सूक्त में राजा, प्रजा और साधारण मनुष्यों के धर्म के वर्णन से इस सूक्त में कहे हुए अर्थ की पिछले सूक्त के साथ एकता है, यह जानना चाहिये ॥यह १२२ एकसौ बाईसवाँ सूक्त और तीसरा वर्ग पूरा हुआ ॥
विषय
मशर्शार के चार व आयवस के तीन पुत्र
पदार्थ
१. (मशर्शारस्य) = मशार के (चत्वारः) = चार (शिश्वः) = पुत्र (मा) = मुझे प्राप्त हों । 'मशर्' शब्द क्रोध [anger] का वाचक है । उसका शार - हिंसन करनेवाला मशार है । क्रोध को नष्ट करनेवाला व्यक्ति ही धर्मकार्यों में प्रवृत्त हो सकता है, क्रोध की अवस्था में कोई भी धर्मकार्य सम्भव नहीं । क्रोधरहित व्यापारी ही व्यापार में सफल होकर अर्थ का अर्जन करता है । क्रोध की अवस्था में सांसारिक आनन्दों [काम] का भी सम्भव नहीं । क्रोध में भूख भी समाप्त हो जाती है और खाया हुआ अन्न विष ही पैदा करता है । क्रोध से मोक्ष भी सम्भव नहीं । क्रोध को शीर्ण करनेवाला ही 'धर्म - अर्थ - काम व मोक्षरूप' चारों पुरुषार्थों को सिद्ध करता है । क्रोध को शीर्ण करनेवाले मशार के ये ही चार पुत्र हैं । ये मुझे प्राप्त हों । २. (आयवसस्य) = [घासो, यवसम्] चारों ओर से ज्ञानरूप भोजन को प्राप्त करनेवाले, अतएव (जिष्णोः) = सदा कामादि शत्रओं पर विजय पानेवाले (राज्ञः) = दीस जीवनवाले व्यक्ति के (त्रयः) [शिश्वः] = 'ज्ञान, कर्म, उपासना' - रूप तीन पुत्र भी मुझे प्राप्त हों । अथवा इस ज्ञानी के तीन (पुत्र) = प्रेम, करुणा और त्याग हैं, ये मुझे प्रास हों । ३. हे (मित्रावरुणा) = प्राणापानो! (वां रथः) = यह आपका शरीररूप रथ मुझे प्राप्त हो । प्राणापान का रथ वह कहलाता है जिसमें प्राणसाधना चलती है । यह रथ (दीर्घाप्साः) = [दीर्घ+अप्स] विस्तृत रूपवाला है । इस साधक का शरीर मरियल - सा, दुबला - पतला नहीं होता । (स्यूमगभस्तिः) = सुखकर ज्ञानकिरणोंवाला यह रथ है । इन ज्ञानकिरणों से (सूरः न) = सूर्य की भाँति (अद्यौत्) = यह चमकता है । संक्षेप में भाव यह है कि मेरा यह शरीर बलिष्ठ, ज्ञानसम्पन्न मस्तिष्कवाला व सूर्य की भाँति चमकनेवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ - क्रोध को जीतकर मैं 'धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष' को सिद्ध करूँ । ज्ञान का संग्रह करता हुआ मैं 'प्रेम, करुणा व त्याग' को अपनाऊँ । मेरा शरीर स्वस्थ व ज्ञानसम्पन्न हो । इसमें शक्ति का समुच्चय हो ।
विषय
‘मशर्शार’ के चार शिशुओं का रहस्य ।
भावार्थ
( मशर्शारस्य ) दुष्टों को नाश करने और ( जिष्णोः ) विजय करने वाले ( राज्ञः ) राजा के ( चत्वारः ) चारों वर्ण और चारों आश्रम, या सेना के चारों अंग और ( आयवसस्य ) सर्वत्र व्यापक अन्नादि सामग्री के स्वामी पुरुष के (त्रयः) तीन, अध्यक्ष जन, भृत्यजन और प्रजाजन ये सब ( शिश्वः ) शिशु या बालक के समान पालन करने एवं शासन करने योग्य हैं । वे सब (मा) मुझ प्रजाजन को प्राप्त हों । हे (मित्रावरुणा) मित्र और वरुण ! सर्वस्नेही और सर्वश्रेष्ठ, या दुष्टों के निवारक ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग ! आप दोनोंका ( रथः ) धारण करने योग्य, रथ के समान यह राष्ट्र ( दीर्घाप्साः ) विशाल रूप और काया और विस्तृत उत्तम गुणों से युक्त ( स्यूमगभस्तिः ) सुखकारी किरणों वाले ( सूरः न ) सूर्य के समान (स्यूमगभस्तिः) सुखकारी शासन प्रबन्ध से युक्त होकर (अद्यौत्) प्रकाशित हो [ २ ] देहके अधिष्ठाता राजा आत्मा बाधक कारणों पर विजय करने से ‘विष्णु’ है । अन्नादि का स्वामी होने से ‘आयवस’ है । अज्ञान नाशक होने से हो ‘मशर्शार’ हैं । ४ +३= ७ प्राण उसके शिशु हैं । अथवा यह मुख्य आत्मा स्वयं सब में व्यापक होने से ‘शिशु’ है । उसके ये सातों सेवक हैं ! मित्र वरुण, प्राण और अपान है। उन में रमणकारी ( रथः ) रस रूप आत्मा महान् रूपवान् और कर्मवान् होकर, सुखकारी साधनों से युक्त होकर सूर्य के समान प्रकाशित होता है। इति तृतीयो वर्गः।
टिप्पणी
‘शिशु’ आत्मा का वर्णन देखो बृहदारण्यक उपनिषद् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
औशिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवताः॥ छन्दः–१, ७, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । २, ८, १० त्रिष्टुप् । ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्या राजाच्या राज्यात विद्या व उत्तम शिक्षणयुक्त गुण कर्म स्वभावाचे स्वशासित धर्मात्मा लोक असतात. तसेच चार वर्ण व आश्रम आणि सेना, प्रजा, न्यायाधीश असतात तो सूर्याप्रमाणे कीर्तिमान व सुशोभित होतो. ॥ १५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The four classes and the four orders of society and the three councils of the ruling order, destroyer of evil, prosperous and victorious may, I pray, protect and advance me. Mitra and Varuna, friendly ruling powers of our highest choice, may your chariot, far-reaching, bright and beaming like the rising sun, shine on and brighten us up in life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of a King are told now in the fifteenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O good friends, may your chariot come to my house. He alone deserves to rule who is a destroyer of bad words or is a man of noble words, who keeps all necessary articles in abundance, who is victorious, whose chariot shines like the sun of bright rays, and who has in his State four Varnas, four Ashramas and three-President, subjects and servants under control and virtuous.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(मशशरिस्य) य: मशान् दुष्टान् शब्दान् शृणति हिनस्ति । अत्र पृषोदरादि पूर्व पदस्य रुगागम: = Who destroys all ignoble words or is a man of noble words. (चत्वारः) वर्णा आश्रमाश्च । = Four classes and four Ashramas (Stages of life). (शिश्व:) शासनीयाः = To be ruled or controlled. (आयवसस्य) पूर्णसामग्रीकस्य = Or him who keeps all necessary articles in abundance. शृ-हिंसायाम् मश-शब्दे रोषकृते च चत्वारो बर्णा:- ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः चत्वारः आश्रमाः - ब्रह्मचर्य गृहस्थ वानप्रस्थसंन्यासा: It is very wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take Masharshara and Ayavasa as the names of some kings about whom no particulars are given anywhere-even as frankly admitted by them. Prof. Wilson remarks of the two princes, no particulars are given in the commentary, nor have they been met with elsewhere, the whole hymn is very elliptical and obscure." (Notes on Vol. II P. 211.) H. H. Griffith also quoting Wilson's words says:- "The whole hymn as Prof. Wilson observes is very elliptical and obscure, and much of it is at present unintelligible." (Hymns of the Rigveda Vol. 1 P. 169).
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The King of whose State the four Varnas (Classes) and four Ashramas (Stages of (life) are endowed with knowledge and good education, determined by merits, actions and temperaments and who has good army, subjects and Judges, shines like the sun with good reputation and glory.
Translator's Notes
This hymn has connection with the previous hymn, as there is mention of the attributes of the King, the subjects and men in general as in that hymn. Here ends the commentary on the 122nd hymn and third Verga of the First Mandala of the Rigveda.
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