ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 166/ मन्त्र 11
ऋषिः - मैत्रावरुणोऽगस्त्यः
देवता - मरुतः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
म॒हान्तो॑ म॒ह्ना वि॒भ्वो॒३॒॑ विभू॑तयो दूरे॒दृशो॒ ये दि॒व्या इ॑व॒ स्तृभि॑:। म॒न्द्राः सु॑जि॒ह्वाः स्वरि॑तार आ॒सभि॒: सम्मि॑श्ला॒ इन्द्रे॑ म॒रुत॑: परि॒ष्टुभ॑: ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हान्तः॑ । म॒ह्ना । वि॒ऽभ्वः॑ । विऽभू॑तयः । दू॒रे॒ऽदृशः॑ । ये । दि॒व्याःऽइ॑व । स्तृऽभिः॑ । म॒न्द्राः । सु॒ऽजि॒ह्वाः । स्वरि॑तारः । आ॒सऽभिः॑ । सम्ऽमि॑श्लाः । इन्द्रे॑ । म॒रुतः॑ । प॒रि॒ऽस्तुभः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
महान्तो मह्ना विभ्वो३ विभूतयो दूरेदृशो ये दिव्या इव स्तृभि:। मन्द्राः सुजिह्वाः स्वरितार आसभि: सम्मिश्ला इन्द्रे मरुत: परिष्टुभ: ॥
स्वर रहित पद पाठमहान्तः। मह्ना। विऽभ्वः। विऽभूतयः। दूरेऽदृशः। ये। दिव्याःऽइव। स्तृऽभिः। मन्द्राः। सुऽजिह्वाः। स्वरितारः। आसऽभिः। सम्ऽमिश्लाः। इन्द्रे। मरुतः। परिऽस्तुभः ॥ १.१६६.११
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 166; मन्त्र » 11
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
ये विद्वांसो मह्ना महान्तो विभ्वो विभूतयो दूरेदृश इन्द्रे संमिश्ला स्तृभिः सह वर्त्तमानाः परिष्टुभो मरुतो दिव्याइव मन्द्राः सुजिह्वाः स्वरितारः सन्त आसभिरध्यापयन्त्युपदिशन्ति च ते निर्मलविद्या जायन्ते ॥ ११ ॥
पदार्थः
(महान्तः) परिमाणेनाधिकाः (मह्ना) स्वमहिम्ना (विभ्वः) समर्थाः (विभूतयः) विविधैश्वर्यप्रदाः (दूरेदृशः) दूरे पश्यन्ति ते (ये) (दिव्याइव) यथा सूर्यस्थाः किरणास्तथा (स्तृभिः) आच्छादितैर्नक्षत्रैः (मन्द्राः) कामयमानाः (सुजिह्वाः) सत्यवाचः (स्वरितारः) अध्यापका उपदेष्टारो वा (आसभिः) मुखैः (संमिश्लाः) सम्यक् मिश्रिताः। अत्र कपिलकादित्वाल्लत्वम्। (इन्द्रे) विद्युति (मरुतः) वायव इव (परिष्टुभः) सर्वतो धर्त्तारः ॥ ११ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा वायवः सर्वमूर्त्तद्रव्यधर्त्तारो विद्युत्संयुक्तप्रकाशका व्याप्ताः सन्ति तथा विद्वांसो मूर्त्तद्रव्यविद्योपदेष्टारो विद्याविद्यार्थिसंयुक्तविज्ञानदातारः सकलविद्याशुभाचरणव्यापिनः सन्तो नरोत्तमा भवन्ति ॥ ११ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो विद्वान् जन (मह्ना) अपनी महिमा से (महान्तः) बड़े (विभ्वः) समर्थ (विभूतयः) नाना प्रकार के ऐश्वर्यों को देनेवाले (दूरेदृशः) दूरदर्शी (इन्द्रे) बिजुली के विषय में (संमिश्लाः) अच्छे मिले हुए (स्तृभिः) आच्छादन करने संसार पर छाया करनेहारे तारागणों के साथ वर्त्तमान (परिष्टुभः) सब ओर से धारण करनेहारे (मरुतः) पवनों के समान तथा (दिव्या इव) सूर्यस्थ किरणों के समान (मन्द्राः) कमनीय मनोहर (सुजिह्वाः) सत्य वाणी बोलनेवाले (स्वरितारः) पढ़ाने और उपदेश करनेवाले होते हुए (आसभिः) मुखों से पढ़ाते और उपदेश करते हैं वे निर्मल विद्यावान् होते हैं ॥ ११ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पवन समस्त मूर्त्तिमान् पदार्थों को धारण करनेवाले बिजुली के संयोग से प्रकाशक और सर्वत्र व्याप्त है, वैसे विद्वान् जन मूर्त्तिमान् द्रव्यों की विद्या के उपदेष्टा विद्या और विद्यार्थियों के संयोग के विशेष ज्ञान को देनेवाले सकल विद्या और शुभ आचरणों में व्याप्त होते हुए मनुष्यों में उत्तम होते हैं ॥ ११ ॥
विषय
प्राणसाधक पुरुष
पदार्थ
१. (मरुतः) = प्राणसाधक पुरुष (मह्ना) = अपनी महिमा से (महान्तः) = आदरणीय, (विभ्वः) = विशिष्ट शक्तिवाले, (विभूतयः) = ऐश्वर्यसम्पन्न, (दूरेदृश:) = दूर से ही दिखनेवाले, अर्थात् अपने यश व तेज से इस प्रकार प्रकाशमान होते हैं (इव) = जैसे कि (दिव्याः) = द्युलोक में होनेवाले पिण्ड (स्तृभिः) = तारों से चमकते हैं। २. (मन्द्राः) = ये आनन्दमय स्वभाववाले, (सुजिह्वा:) = उत्तम जिह्वावाले, अर्थात् मधुरभाषी तथा (आसभिः) = मुखों से (स्वरितारः) = सदा स्तुतिवचनों का उच्चारण करनेवाले होते हैं । ३. (इन्द्रे) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु में (संमिश्ला:) = सम्यक् मेलवाले ये मरुत् प्राणसाधक पुरुष (परिष्टुभः) = सदा स्तुतियुक्त होते हैं। अपने सब कार्यों को करते हुए ये प्राणसाधक लोग प्रभु का स्मरण करते हैं। प्रभु स्मरणपूर्वक ही इनके सब कार्य होते हैं, इसी कारण ये 'महिमा से महान्, विशिष्ट शक्तिवाले, ऐश्वर्यसम्पन्न, प्रकाशमान, आनन्दमय व मधुरभाषी' होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से मनुष्य आत्मतत्त्व की ओर झुकता है और प्रभु का उपासक बनकर उत्तम जीवनवाला होता है।
विषय
सूर्य के अधीन वायुगणवत् सेनापति के अधीन वीरों और गुरु के अधीन शिष्यों का व्रतपालन ।
भावार्थ
( मरुतः इन्द्रे ) जिस प्रकार विद्युत् या सूर्य के आश्रय वायुगण होते हैं । उसी प्रकार ( इन्द्रे ) ऐश्वर्यवान् राजा के अधीन सैनिक वीर और अन्धकारनाशक विद्वान् आचार्य के अधीन विद्वान्, चतुर विद्यार्थी जन रहें । वे ( महा ) महान् सामर्थ्य से ( महान्तः ) गुणों में महान् अर्थात् आदरयोग्य हों, वे ( विभ्वः ) कार्य करने में समर्थ, शक्तिशाली, ( विभूतयः ) नाना ऐश्वर्यों से युक्त, ( दिव्याः इव ) दिव्य पदार्थ सूर्य, चन्द्र आदि लोक जिस प्रकार ( स्तृभिः ) नक्षत्रगणों सहित ( दूरेदृशः ) दूर से दीखने वाले होते हैं उसी प्रकार ये भी ( दिव्याः ) ज्ञान प्रकाश से युक्त होकर ( स्तृभिः ) विस्तृत गुणों और अनुभवों सहित ( दूरेदृशः ) दूरदर्शी हों । अथवा—( स्तृभिः ) शरीर के आच्छादक उत्तम वस्त्रों से युक्त और दूरदर्शी हों । वे ( मन्द्राः ) स्वयं सब उत्तम पदार्थों की कामना करने वाले, आह्लादकारी और स्तुति युक्त, ( सु जिह्वाः ) उत्तम वाणीवाले, ( आसभिः स्वरितारः ) मुखों से उत्तम वचन बोलने हारे, ( संमिश्लाः ) परस्पर अच्छी प्रकार मिले हुए, स्नेही, ( परिस्तुभः ) सब को धारण करने और सब विद्याओं का अध्ययन करने वाले हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मैत्रावरुणोऽगस्त्य ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, २, ८ जगती । ३, ५, ६, १२, १३ निचृज्जगती । ४ विराट् जगती । ७, ९, १० भुरिक् त्रिष्टुप् । ११ विराट् त्रिष्टुप् । १४ त्रिष्टुप् । १५ पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे वायू संपूर्ण पदार्थांना धारण करणाऱ्या विद्युतच्या संयोगाने प्रकाशक असून सर्वत्र व्याप्त आहेत. तसे विद्वान लोक मूर्तिमान द्रव्याच्या विद्येचे उपदेष्टे, विद्या व विद्यार्थ्यांच्या संयोगाने विशेष ज्ञान देणारे, संपूर्ण विद्या व शुभ आचरणात व्याप्त होणारे असून, माणसांमध्ये उत्तम असतात. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Great are the Maruts with their own innate greatness, powerful, magnanimous, far-sighted, refulgent with brilliant stars which light the world, joyous and loved of all, sweet of tongue, true of the word of mouth, and they are sustainers of all in company with Indra, universal energy and power.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
In the praise of Maruts (learned and brave persons).
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The learned persons are great and competent to do work. They oblige human-kind by giving various. kinds of wealth and are far sighted shining like sun rays, renowned like the stars of heaven, exhilarating and lovely with pleasant sweet and truthful language. Such people are upholders of all, being the teachers or preachers and become men of clear and pure knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The airs are upholders of the all embodied substances and pervading. Shining like the electricity or lightning the enlightened persons should be teachers in various disciplines of arts and sciences to students. The turn out to be the best among all men.
Foot Notes
(विभ्व:) समर्था: = Competent to do work. ( स्वरितारः) अध्यापका उपदेष्टारो वा = Teachers or Preachers. (परिष्टुभः) सर्वतोधर्तार: = Upholders from all sides.
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