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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 166 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 166/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मैत्रावरुणोऽगस्त्यः देवता - मरुतः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    नित्यं॒ न सू॒नुं मधु॒ बिभ्र॑त॒ उप॒ क्रीळ॑न्ति क्री॒ळा वि॒दथे॑षु॒ घृष्व॑यः। नक्ष॑न्ति रु॒द्रा अव॑सा नम॒स्विनं॒ न म॑र्धन्ति॒ स्वत॑वसो हवि॒ष्कृत॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नित्य॑म् । न । सू॒नुम् । मधु॑ । बिभ्र॑तः । उप॑ । क्रीळ॑न्ति । क्री॒ळाः । वि॒दथे॑षु । घृष्व॑यः । नक्ष॑न्ति । रु॒द्राः । अव॑सा । न॒म॒स्विन॑म् । न । म॒र्ध॒न्ति॒ । स्वऽत॑वसः । ह॒विः॒ऽकृत॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नित्यं न सूनुं मधु बिभ्रत उप क्रीळन्ति क्रीळा विदथेषु घृष्वयः। नक्षन्ति रुद्रा अवसा नमस्विनं न मर्धन्ति स्वतवसो हविष्कृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नित्यम्। न। सूनुम्। मधु। बिभ्रतः। उप। क्रीळन्ति। क्रीळाः। विदथेषु। घृष्वयः। नक्षन्ति। रुद्राः। अवसा। नमस्विनम्। न। मर्धन्ति। स्वऽतवसः। हविःऽकृतम् ॥ १.१६६.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 166; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यूयं ये नित्यं न मधु बिभ्रतः सूनुमुप क्रीळन्ति विदथेषु घृष्वयः क्रीळा नक्षन्ति रुद्राइवावसा नमस्विनं न मर्द्धन्ति स्वतवसो हविष्कृतं रक्षन्ति तान्नित्यं सेवध्वम् ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (नित्यम्) नाशरहितं जीवम् (न) इव (सूनुम्) अपत्यम् (मधु) मधुरादिगुणयुक्तम् (बिभ्रतः) धरतः (उप) सामीप्ये (क्रीळन्ति) (क्रीळाः) क्रीडकाः (विदथेषु) संग्रामेषु (घृष्वयः) सोढारः (नक्षन्ति) प्राप्नुवन्ति (रुद्राः) प्राणा इव (अवसा) रक्षणाद्येन (नमस्विनम्) बह्वन्नयुक्तम् (न) निषेधे (मर्द्धन्ति) योधयन्ति (स्वतवसः) स्वं स्वकीयं तवो बलं येषान्ते (हविष्कृतम्) हविर्भिर्दानैर्निष्पादितम् ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये सर्वेषामुपकारे प्राणवत्तर्पणे जलान्नवदानन्दे सुलक्षणाऽपत्यवद्वर्त्तन्ते ते श्रेष्ठान् वर्द्धितुं दुष्टान्नमयितुं शक्नुवन्ति ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम जो लोग (नित्यम्) नाशरहित जीव के (न) समान (मधु) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ को (बिभ्रतः) धारण करते हुए (सूनुम्) पुत्र के समान (उप, क्रीडन्ति) समीप खेलते हैं वा (विदथेषु) संग्रामों में (घृष्वयः) शत्रु के बल को सहने और (क्रीडाः) खेलनेवाले (नक्षन्ति) प्राप्त होते हैं वा (रुद्रः) प्राणों के समान (अवसा) रक्षा आदि कर्म से (नमस्विनम्) बहुत अन्नयुक्त जन को (न) नहीं (मर्द्धन्ति) लड़ाते और (स्वतवसः) अपना बल पूर्ण रखते हुए (हविष्कृतम्) दानों से सिद्ध किये हुए पदार्थ को रखते हैं उसका नित्य सेवन करो ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो सबके उपकार में प्राण के समान तृप्ति करने में जल अन्न के समान और आनन्द में सुन्दर लक्षणोंवाली विदुषी के पुत्र के समान वर्त्तमान हैं, वे श्रेष्ठों को बढ़ा और दुष्टों को नमा सकते हैं अर्थात् श्रेष्ठों को उन्नति दे सकते और दुष्टों को नम्र कर सकते हैं ॥ २ ॥

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    विषय

    माधुर्य व क्रीड़क की मनोवृत्ति

    पदार्थ

    १. हमारे प्राण [मरुत] (नित्यं सूनुं न) = [औरसं पुत्रमिव - सा०] औरस पुत्र को जैसे मातापिता भृत व पोषित करते हैं, उसी प्रकार (मधुबिभ्रतः) = माधुर्य को धारण करते हुए (क्रीळा:) = सब कर्मों को क्रीड़ा का रूप देते हुए (उपक्रीळन्ति) = परमात्मा की समीपता में इस सब खेल को करते हैं। प्राणसाधना से जीवन में [क] माधुर्य उत्पन्न होता है- खिजने की वृत्ति नष्ट हो जाती है, [ख] सब कार्य क्रीड़क की मनोवृत्ति [sportsman-like spirit] में होते हैं, मनुष्य हार-जीत में समवृत्ति का रह पाता है, [ग] प्रभु का सान्निध्य बना रहता है । २. ये प्राण (विदथेषु) = ज्ञानयज्ञों के होने पर (घृष्वयः) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले होते हैं। ज्ञानाग्नि में सब शत्रुओं का दहन हो जाता है। (रुद्राः) = रोगों का विद्रावण करनेवाले प्राण (नमस्विनम्) = प्रभु के प्रति नमस्वाले व्यक्ति को (अवसा) = रक्षण के हेतु से (नक्षन्ति) = प्राप्त होते हैं। प्रभु का स्तोता इन प्राणों के द्वारा रक्षित होता हुआ सदा नीरोग बना रहता है। ३. (स्वत-वस:) = आत्मा के बलवाले ये प्राण (हविष्कृतम्) = हवि देनेवाले, यज्ञशील पुरुष को न (मर्धन्ति) = हिंसित नहीं करते। प्राणसाधना से यज्ञवृत्ति उत्पन्न होती है और यह साधक हविष्कृत् बनता है। यह हविष्कृत् प्रभु का सच्चा उपासक होता है और प्रभु के बल से बलवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से माधुर्य, क्रीड़क की मनोवृत्ति, प्रभु का सान्निध्य, नीरोगता व आत्मिक बल प्राप्त होता है।

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    विषय

    गृहस्थों के अन्नोपभोगवत् तेजस्वी मुमुक्षुओं की ब्रह्मरति, रुद्र विद्वानों का सर्वोपकार ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार गृहस्थ लोग ( क्रीळाः ) इन्द्रियोपभोग्य विषयों में रमण करते हुए, ( मधु बिभ्रतः ) मधुर अन्नादि पदार्थ धारण करते हुए ( नित्यं सूनुं ) अपने औरस पुत्र को प्राप्तकर ( उप क्रीळन्ति ) बहुत प्रसन्न होते हैं उसी प्रकार ( घृष्वयः) सहन शील तपस्वीजन ( सुनुं न ) अपने पुत्र के समान ही देह को प्रेरण करने वाले, ( नित्यं ) नित्य आत्मा को ( मधु ) मधुर आनन्दमय रूप से ( विभ्रतः ) धारण करते हुए, ( क्रीळा: ) उसी में रमण करते हुए ( उप क्रीळन्ति ) उपासना द्वारा उसको प्राप्त हो अति प्रसन्न हुआ करते हैं । वे ( रुद्राः ) सत्य ज्ञान के उपदेष्टा, विद्वान् जन ( नमस्विनं ) नमस्कार करने वाले, विनीत शिष्य को ( अवसा नक्षन्ति ) अपने ज्ञान से युक्त करते हैं । वे ( स्व-तवसः ) ‘स्व’ अर्थात् अपने आत्मा के बल से बलवान् होकर ( हविष्कृतम् ) दान योग्य अन्नादि पदार्थों के प्रदान करने वाले को ( न मर्धन्ति ) कभी नाश नहीं करते।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मैत्रावरुणोऽगस्त्य ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, २, ८ जगती । ३, ५, ६, १२, १३ निचृज्जगती । ४ विराट् जगती । ७, ९, १० भुरिक् त्रिष्टुप् । ११ विराट् त्रिष्टुप् । १४ त्रिष्टुप् । १५ पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे सर्वांवर उपकार करण्यात प्राणाप्रमाणे, तृप्ती करण्यात अन्न व जलाप्रमाणे व आनंदात सुंदर लक्षणयुक्त विदुषीच्या पुत्राप्रमाणे आहेत ते श्रेष्ठांची वाढ करून दुष्टांना नमवू शकतात. अर्थात् श्रेष्ठांची उन्नती करू शकतात व दुष्टांना नम्र बनवू शकतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    They bear the honey sweets of life for all as parents bring honey to their darling child. Heroes of courage and valour but sportive as ripples of a stream, they play their part in the battles of life. Ferocious and terrible like jaws of retributive justice, yet dear as breath of life, they come to the man of reverence and humility with love and protection and, with all their innate strength and power, they never hurt the man dedicated to yajna and charity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Learned persons while give boost to noble, they are equally ferocious to the wrong-doers.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should serve the sweet tongued and good natured persons. In fact, they finish the wicked in the battle-field. Like the eternal cum noble, and dear like Pranas, such persons always bring to the performers of Yajna and liberal persons at a reasonably compromising point. They are powerful and in spite of being resourceful protect the humble man.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The noble persons champion the cause of good people and subdue the wicked. They do good to others like their Pranas or own life. Such persons satisfy them with foodstuff and juices and make them joyful.

    Foot Notes

    (नित्यम्) नाशरहितं जीवम् = Eternal soul. ( रुद्रा:) प्राणा: इव = Like the Pranas. (मर्ध्दन्ति) योधयन्ति = Cause to fight.

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