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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 166 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 166/ मन्त्र 12
    ऋषिः - मैत्रावरुणोऽगस्त्यः देवता - मरुतः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    तद्व॑: सुजाता मरुतो महित्व॒नं दी॒र्घं वो॑ दा॒त्रमदि॑तेरिव व्र॒तम्। इन्द्र॑श्च॒न त्यज॑सा॒ वि ह्रु॑णाति॒ तज्जना॑य॒ यस्मै॑ सु॒कृते॒ अरा॑ध्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । वः॒ । सु॒ऽजा॒ताः॒ । म॒रु॒तः॒ । म॒हि॒ऽत्व॒नम् । दी॒र्घम् । वः॒ । दा॒त्रम् । अदि॑तेःऽइव । व्र॒तम् । इन्द्रः॑ । च॒न । त्यज॑सा । वि । ह्रु॒णा॒ति॒ । तत् । जना॑य । यस्मै॑ । सु॒ऽकृते॑ । अरा॑ध्वम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तद्व: सुजाता मरुतो महित्वनं दीर्घं वो दात्रमदितेरिव व्रतम्। इन्द्रश्चन त्यजसा वि ह्रुणाति तज्जनाय यस्मै सुकृते अराध्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। वः। सुऽजाताः। मरुतः। महिऽत्वनम्। दीर्घम्। वः। दात्रम्। अदितेःऽइव। व्रतम्। इन्द्रः। चन। त्यजसा। वि। ह्रुणाति। तत्। जनाय। यस्मै। सुऽकृते। अराध्वम् ॥ १.१६६.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 166; मन्त्र » 12
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे सुजाता मरुतो यद्वोऽदितेरिव महित्वनं दीर्घं दात्रं वो व्रतमस्ति। तद्यदिन्द्रश्चन त्यजसा विह्रुणाति तच्च यस्मै सुकृते जनायाराध्वं स जगदुपकाराय शक्नुयात् ॥ १२ ॥

    पदार्थः

    (तत्) (वः) युष्माकम् (सुजाताः) सुष्ठुप्रसिद्धाः (मरुतः) वायवइव वर्त्तमानाः (महित्वनम्) महिमानम् (दीर्घम्) विस्तीर्णम् (वः) युष्माकम् (दात्रम्) दानम् (अदितेरिव) अन्तरिक्षस्येव (व्रतम्) शीलम् (इन्द्रः) विद्युत् (चन) अपि (त्यजसा) त्यागेन (वि) (ह्रुणाति) कुटिलं गच्छति (तत्) (जनाय) (यस्मै) (सुकृते) सुष्ठुधर्मकारिणे (अराध्वम्) दत्त ॥ १२ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। येषां प्राणवन्महिमा विस्तृतं विद्यादानमाकाशवच्छान्तं शीलं विद्युद्वद्दुष्टाचारत्यागोऽस्ति ते सर्वेभ्यः सुखं दातुमर्हन्ति ॥ १२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (सुजाता) सुन्दर प्रसिद्ध (मरुतः) पवनों के समान वर्त्तमान ! जो (वः) तुम्हारा (अदितेरिव) अन्तरिक्ष को जैसे वैसे (महित्वनम्) महिमा (दीर्घम्) विस्तारयुक्त (दात्रम्) दान और (वः) तुम्हारा (व्रतम्) शील है (तत्) उसको तथा जो (इन्द्रः) बिजुली (चन) भी (त्यजसा) त्याग से अर्थात् एक पदार्थ छोड़ दूसरे पर गिरने से (वि, ह्रुणाति) टेढ़ी-बेढ़ी जाती (तत्) उस वृत्त को भी (यस्मै) जिस (सुकृते) सुन्दर धर्म करनेवाले (जनाय) सज्जन के लिये (अराध्वम्) देओ वह संसार का उपकार कर सके ॥ १२ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिनकी प्राण के तुल्य महिमा, विस्तारयुक्त विद्या का दान, आकाशवत् शान्तियुक्त शील और बिजुली के समान दुष्टाचरण का त्याग है, वे सबको सुख देने को योग्य हैं ॥ १२ ॥

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    विषय

    क्रोध व ईर्ष्या से दूर

    पदार्थ

    १. हे (मरुतः) = प्राणसाधक पुरुषो! (सुजाता:) = आप उत्तम विकासवाले होते हो और (वः) = आपका (तत्) = वह (महित्वनम्) = महत्त्व तथा (वः) = आपका (दात्रम्) = दान (दीर्घम्) = [अत्यायतमविच्छिन्नम् - सा०] अति विस्तृत व अविच्छिन्न होता है। आपका यह दान तो (अदितेः व्रतम् इव) = इस अदीना देवमाता [प्रकृति] के व्रत के समान है। प्रकृति सब उपभोगों को प्राप्त कराती हुई इस अपने दानकार्य को विच्छिन्न नहीं होने देती। इसी प्रकार प्राणसाधक पुरुष अपने दान के व्रत को विच्छिन्न नहीं होने देते। २. (यस्मै) = जिस सुकृते पुण्यशील जनाय व्यक्ति के लिए (अराध्वम्) = आप धन प्राप्त कराते हो (तत्) = उसे (इन्द्रः चन) = प्रभु भी (त्यजसा) = [anger, envy] क्रोध व ईर्ष्या से (विहुणाति) = पृथक् करता है। प्राणसाधक पुरुष के सम्पर्क से अन्य लोग भी प्राणसाधना में प्रवृत्त होते हैं। इस प्राणसाधना से उनमें भी उत्तम वृत्तियाँ जाग्रत् होती हैं। ऐसे लोगों को प्रभु क्रोध व ईर्ष्यादि अवाञ्छनीय प्रवृत्तियों से पृथक् रखते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से वृत्तियाँ शुभ होती हैं और व्यक्ति क्रोध व ईर्ष्यादि से ऊपर उठ जाता है।

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    विषय

    सूर्य के अधीन वायुगणवत् सेनापति के अधीन वीरों और गुरु के अधीन शिष्यों का व्रतपालन ।

    भावार्थ

    ( तत् मरुतः महित्वम् ) यह वायुओं का ही महान् सामर्थ्य है और उनका ही ( दीर्घं दात्रम् ) लम्बा चौड़ा दान सामर्थ्य है जो ( इन्द्रः चन ) विद्युत् भी ( त्यजसा ) जल के साथ ( विह्रुणाति ) विविध कुटिल मार्ग से चमका करता है । उसी प्रकार हे ( सुजाताः ) उत्तम कुलों में उत्पन्न और गुणों में प्रसिद्ध ( मरुतः ) विद्वान् पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों का ( तत् ) वह नाना प्रकार का ( महित्वनम् ) महान् सामर्थ्य है और ( वः ) आप लोगों का ही वह ( दीर्घम् ) लम्बा चौड़ा ( दात्रम् ) दान, विद्यादान है आप लोगों का ( व्रतम् ) व्रत आचरण भी ( आदितेः व्रतम् इतव ) सूर्य के व्रत के समान ही है । आप लोग ( यस्मै ) जिस ( सुकृते ) उत्तम पुण्यकारी पुरुष के उपकार के लिये ( अराध्वम् ) विद्या आदि दान करते हो उसके उपकार के लिये ( इन्द्रः चन ) ऐश्वर्यवान् पुरुष भी ( त्यजसा ) अपने त्यागने, दान देने योग्य धन से ( वि ) उलटे सीधे, या प्रत्यक्ष परोक्ष विविध प्रकारों से ( ह्रुणाति ) सहायकारी होता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मैत्रावरुणोऽगस्त्य ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, २, ८ जगती । ३, ५, ६, १२, १३ निचृज्जगती । ४ विराट् जगती । ७, ९, १० भुरिक् त्रिष्टुप् । ११ विराट् त्रिष्टुप् । १४ त्रिष्टुप् । १५ पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. ज्यांची प्राणाप्रमाणे महिमा, विस्तृत विद्येचे दान, आकाशाप्रमाणे शांतियुक्त शील व विद्युतप्रमाणे दुष्टाचरणाचा त्याग असतो, ते सर्वांना सुख देणारे असतात. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Maruts, high-born and arisen you are, great is your glory, abundant is your generosity, and deep and inviolable is your discipline of vows as that of imperishable Aditi. Whatever you grant and bestow on the man of noble action, even Indra commanding the thunderbolt does not touch.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The illustrious and mighty persons like the Pranas are majestic. For like the the sway of the sky, their, bounty spreads. As electricity removes impurity, so they cast aside all ignobility of the pious person under their own instructions. Such a person is able to do good to the world.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Such persons are able to bestow delight on all, whose glory is like that of the Pranas. The gift of such knowledge is vast, their conduct is peaceful and quiet like the sky and they give up all impurity.

    Foot Notes

    (अदितेः) अन्तरिक्षस्य = Of the firmament of sky. (इन्द्रः) विधुत् = Electricity or lighting.

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