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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 166 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 166/ मन्त्र 13
    ऋषिः - मैत्रावरुणोऽगस्त्यः देवता - मरुतः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    तद्वो॑ जामि॒त्वं म॑रुत॒: परे॑ यु॒गे पु॒रू यच्छंस॑ममृतास॒ आव॑त। अ॒या धि॒या मन॑वे श्रु॒ष्टिमाव्या॑ सा॒कं नरो॑ दं॒सनै॒रा चि॑कित्रिरे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । वः॒ । जा॒मि॒ऽत्वम् । म॒रु॒तः॒ । परे॑ । यु॒गे । पु॒रु । यत् । शंस॑म् । अ॒मृ॒ता॒सः॒ । आव॑त । अ॒या । धि॒या । मन॑वे । श्रु॒ष्टिम् । आव्य॑ । सा॒कम् । नरः॑ । दं॒सनैः॑ । आ । चि॒कि॒त्रि॒रे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तद्वो जामित्वं मरुत: परे युगे पुरू यच्छंसममृतास आवत। अया धिया मनवे श्रुष्टिमाव्या साकं नरो दंसनैरा चिकित्रिरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। वः। जामिऽत्वम्। मरुतः। परे। युगे। पुरु। यत्। शंसम्। अमृतासः। आवत। अया। धिया। मनवे। श्रुष्टिम्। आव्य। साकम्। नरः। दंसनैः। आ। चिकित्रिरे ॥ १.१६६.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 166; मन्त्र » 13
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अमृतासो मरुतः परे युगे यद्वः पुरु जामित्वं वर्त्तते तच्छंसमावत। अया धिया मनवे श्रुष्टिमाव्य नरः साकं युष्माभिः सह दंसनैः सर्वानाचिकित्रिरे ॥ १३ ॥

    पदार्थः

    (तत्) (वः) युष्माकम् (जामित्वम्) सुखदुःखभोगम् (मरुतः) प्राणवत् प्रियतमाः (परे) (युगे) वर्षे परजन्मनि वा (पुरु) बहु (यत्) (शंसम्) प्रशंसाम् (अमृतासः) मृत्युरहिताः (आवत) (अया) अनया (धिया) प्रज्ञया (मनवे) मनुष्याय (श्रुष्टिम्) प्राप्तव्यं वस्तु (आव्य) रक्षित्वा (साकम्) युष्मत् सत्सङ्गेन (नरः) धर्म्येषु जनानां नेतारः (दंसनैः) शुभाऽशुभसुखदुःखप्रापकैः कर्मभिः (आ) (चिकित्रिरे) जानत ॥ १३ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायवोऽत्र सृष्टौ वर्त्तमाने प्रलये च वर्त्तन्ते तथा नित्या जीवास्सन्ति यथा वायवो जडमपि वस्तु अधऊर्ध्वं नयन्ति तथा जीवा अपि कर्मभिः सह पूर्वस्मिन्मध्ये आगामिनि च समये यथाकालं यथाकर्म भ्रमन्ति ॥ १३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अमृतासः) मृत्युधर्मरहित (मरुतः) प्राणों के समान अत्यन्त प्रिय विद्वान् जनो ! (परे, युगे) परले वर्ष में वा परजन्म में (यत्) जो (वः) तुम लोगों का (पुरु) बहुत (जामित्वम्) सुख-दुःख का भोग वर्त्तमान है (तत्) उसको (शंसम्) प्रशंसारूप (आवत) रक्खो और (अया) इस (धिया) बुद्धि से (मनवे) मनुष्य के लिये (श्रुष्टिम्) प्राप्त होने योग्य वस्तु की (आव्य) रक्षा कर (नरः) धर्मयुक्त व्यवहारों में मनुष्यों को पहुँचानेवाले मनुष्य (साकम्) तुम्हारे साथ (दंसनैः) शुभ-अशुभ सुख-दुःख फलों की प्राप्ति करानेवाले कर्मों से (आ, चिकित्रिरे) सबको अच्छे प्रकार जानें ॥ १३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायु इस सृष्टि में और वर्त्तमान प्रलय में वर्त्तमान हैं, वैसे नित्य जीव हैं तथा जैसे वायु जड़ वस्तु को भी नीचे ऊपर पहुँचाते हैं, वैसे जीव भी कर्मों के साथ पिछले, बीच के और अगले समय में समय और अपने कर्मों के अनुसार चक्कर खाते फिरते हैं ॥ १३ ॥

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    विषय

    उत्कृष्ट चतुष्क सम्बन्ध

    पदार्थ

    १. (मरुतः) = प्राणसाधक पुरुषो! (वः) = आपका (तत् जामित्वम्) = वह प्रसिद्ध बन्धुत्व परे युगे उत्कृष्ट चतुष्क में होता है [युग शब्द चार के लिए भी प्रयुक्त होता है] आपका जीवन 'धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष'- रूप चारों पुरुषार्थों को लेकर चलता है। आप धर्मपूर्वक कमाते हुए संसार के उचित काम्य पदार्थों का सेवन करते हुए मोक्ष को सिद्ध करते हो। (यत्) = क्योंकि आप (अमृतास:) = संसार के विषयों के पीछे न मरते हुए-नीरोग होते हुए पुरु-पालक व पूरक (शंसम्) = ज्ञान को (आवत) = अपने में सुरक्षित करते हो । वस्तुत: ज्ञान वही है जो हमारे शरीरों को रोगों से बचाये और मन में न्यूनता न आने दे। सांसारिक विषयों में फँसने पर मनुष्य इस उत्कृष्ट ज्ञान की उपेक्षा करके व्यर्थ की बातों को ही जानने में लगा रहता है। २. हे मरुतो ! आप (अया) = इस (धिया) = बुद्धि के द्वारा (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिए (श्रुष्टिम्) = [prosperity, happiness] समृद्धि व सुख को (आव्य) = सुरक्षितरूप में प्राप्त कराके (नरः)= औरों को उन्नतिपथ पर ले-चलनेवाले बनकर (दंसनैः) = [act, deed] कर्मों के (साकम्) = साथ (आचिकित्रिरे) = जाने जाते हो। आप अपने कर्मों से प्रसिद्धि पाते हो, सदा यशस्वी कर्मोंवाले होते हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधक पुरुषों का सम्बन्ध उत्कृष्ट 'धर्मार्थकाममोक्ष' से होता है। वे औरों को ज्ञान देकर उनकी सुख-समृद्धि बढ़ानेवाले होते हैं ।

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    विषय

    सूर्य के अधीन वायुगणवत् सेनापति के अधीन वीरों और गुरु के अधीन शिष्यों का व्रतपालन ।

    भावार्थ

    वायुगण की यह ( जामित्वं ) बन्धुता है कि वे ( परे युगे यत् शंसम् अवन्ति ) गत वर्ष या गत काल के समान शान्तिदायक मेघादि को पुनः लाते हैं और उसकी रक्षा करते हैं। इसी बुद्धि से ( मनवे श्रुष्टिम् आव्या ) मनुष्य मात्रा को सुख और अन्न आदि प्राप्त कराकर ( दंसनैः साकं चिकित्रिरे ) अपने वर्षणादि कर्मों सहित ही जाने जाते हैं । उसी प्रकार हे ( मरुतः ) विद्वान् पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों का ( तत् ) वह उत्तम ( जामित्वम् ) बन्धु भाव है कि आप लोग ( अमृतासः ) दीर्घजीवी, होकर ( परे युगे ) अतीत काल में भी ( यत् ) जो ( शंसम् ) उपदेश करने योग्य उत्तम वेदवचन और ज्ञान रहता है उसकी ( आवत ) रक्षा किया करते हो। और ( अया धिया ) इसी उत्तम धारण शक्ति, बुद्धि और अध्ययन आदि कर्म से ( मनवे ) मनुष्यमात्र के हित के लिये, ( श्रुष्टिम् आव्या ) श्रवण करने योग्य ज्ञान की रक्षा करके स्वयं ( नरः ) नायक नेता बनकर ( दंसनैः साकम् ) उत्तम आचारों और कर्मों के साथ ( आ चिकित्रिरे ) ज्ञान का सम्पादन करते और कराते रहते हो । ऐसा ही किया करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मैत्रावरुणोऽगस्त्य ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, २, ८ जगती । ३, ५, ६, १२, १३ निचृज्जगती । ४ विराट् जगती । ७, ९, १० भुरिक् त्रिष्टुप् । ११ विराट् त्रिष्टुप् । १४ त्रिष्टुप् । १५ पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायू या सृष्टीत व प्रलयामध्ये वर्तमान असतात तसे नित्य जीव असतात व जसे वायू जड वस्तुलाही खालीवर नेतात, तसे जीवही कर्मांबरोबर मागच्या, मधल्या व पुढच्या वेळी काळ व आपले कर्म यानुसार भ्रमण करतात. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Maruts, immortal souls, that brotherhood of yours, that joy and suffering of yours in the last age, that high honour and reputation you earned and preserved, the same honour and reputation, protect and preserve with this intelligence and understanding of yours for humanity and further extend and preserve with your noble actions in company with men and leaders.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the Maruts is further developed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The immortal learned persons (Maruts) are dear to us like our Pranas. Bear us equally in delights and miseries, which may come to us as compliments. By this noble intellect, the Maruts get and protect what is worthy of achievement. The leaders in righteousness, with your association know the results of our actions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The souls are eternal like the air. As the airs take even the inanimate things upwards and downwards, so the pure souls of learned persons wander all the times and teach human beings according to their actions.

    Foot Notes

    (जामित्वम्) सुखदुःखभोगम् = The enjoyment or happiness and misery. (श्रुष्टिम् ) प्राप्तव्यं वस्तु = The thing to be acquired. ( दसनै:) शुभाशुभसुखदुःखप्रापर्कंः कर्मभिः = By the good and bad actions that result in happiness or misery.

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