ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 166/ मन्त्र 3
ऋषिः - मैत्रावरुणोऽगस्त्यः
देवता - मरुतः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
यस्मा॒ ऊमा॑सो अ॒मृता॒ अरा॑सत रा॒यस्पोषं॑ च ह॒विषा॑ ददा॒शुषे॑। उ॒क्षन्त्य॑स्मै म॒रुतो॑ हि॒ता इ॑व पु॒रू रजां॑सि॒ पय॑सा मयो॒भुव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मै॑ । ऊमा॑सः । अ॒मृताः॑ । अरा॑सत । रा॒यः । पोष॑म् । च॒ । ह॒विषा॑ । द॒दा॒शुषे॑ । उ॒क्षन्ति॑ । अ॒स्मै॒ । म॒रुतः॑ । हि॒ताःऽइ॑व । पु॒रु । रजां॑सि । पय॑सा । म॒यः॒ऽभुवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मा ऊमासो अमृता अरासत रायस्पोषं च हविषा ददाशुषे। उक्षन्त्यस्मै मरुतो हिता इव पुरू रजांसि पयसा मयोभुव: ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मै। ऊमासः। अमृताः। अरासत। रायः। पोषम्। च। हविषा। ददाशुषे। उक्षन्ति। अस्मै। मरुतः। हिताःऽइव। पुरु। रजांसि। पयसा। मयःऽभुवः ॥ १.१६६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 166; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वांसोऽमृता ऊमासो भवन्तो यथा मयोभुवो हिताइव मरुतोऽस्मै पयसा पुरु रजांस्युक्षन्ति तथा यस्मै ददाशुषे हविषा रायस्पोषं विद्याञ्चारासत सोऽप्येवमेवेह वर्त्तेत ॥ ३ ॥
पदार्थः
(यस्मै) (ऊमासः) रक्षणादिकर्त्तारः (अमृताः) नाशरहिताः (अरासत) रासन्ते (रायः) धर्म्यस्य धनस्य (पोषम्) पुष्टिम् (च) (हविषा) विद्यादिदानेन (ददाशुषे) दात्रे (उक्षन्ति) सिञ्चन्ति (अस्मै) संसाराय (मरुतः) वायवः (हिताइव) यथा हितसंपादकास्तथा (पुरु) पुरूणि बहूनि। अत्र संहितायामिति दीर्घः। सुपां सुलुगिति शसो लुक्। (रजांसि) (पयसा) जलेन (मयोभुवः) सुखं भावुकाः ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्वायुवत्सर्वेषां सुखानि संसाध्य विद्यासत्योपदेशैर्जलेन वृक्षं सिक्त्वेव मनुष्या वर्द्धनीयाः ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वानो ! (अमृताः) नाशरहित (ऊमासः) रक्षणादि कर्मवाले आप जैसे (मयोभुवः) सुख की भावना करनेवाले (हिताइव) हित सिद्ध करनेवालों के समान (मरुतः) पवन (अस्मै) इस प्राणी के लिये (पयसा) जल से (पुरु) बहुत (रजांसि) लोकों वा स्थलों को (उक्षन्ति) सींचते हैं वैसे (यस्मै) जिस (ददाशुषे) देनेवाले के लिये (हविषा) विद्यादि देने से (रायः) धर्मयुक्त धन की (पोषम्) पुष्टि को (च) और विद्या को (अरासत) देते हैं वह भी ऐसे ही वर्त्ते ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को वायु के समान सबके सुखों को अच्छे प्रकार विद्या और सत्योपदेश से जल से वृक्षों के समान सींचकर मनुष्यों की वृद्धि करनी चाहिये ॥ ३ ॥
विषय
धन का पोषण
पदार्थ
१. (यस्मै) = जिसके लिए (ऊमासः) = रोगों से रक्षित करनेवाले (अमृताः) = असमय की मृत्यु से बचानेवाले प्राण (रायस्पोषम् च) = धन के पोषण को भी अरासत देते हैं, उस (हविषा ददाशुषे) = हवि के द्वारा प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले (अस्मै) = इस उपासक के लिए (मरुतः) = प्राण (हिताः इव) = हितकर मित्रों के समान (रजांसि) = इसके शरीरस्थ भिन्न-भिन्न लोकों को– सब अङ्गों को (पुरु:) = पालन व पूरणात्मक प्रकार से उक्षन्ति सिक्त करते हैं । [क] प्राणसाधना से शरीर में शक्ति का रक्षण होता है, [ख] इससे यह साधक धन कमाने के योग्य बनता है, [ग] प्राणसाधना से वृत्ति की पवित्रता के कारण यह भोगों में न फँसकर धन का यज्ञों में विनियोग करता है, (घ) इस यज्ञात्मक वृत्ति के कारण इसके अङ्ग प्रत्यङ्ग शक्ति सम्पन्न बने रहते हैं । २. इस प्रकार प्राण इस साधक के लिए पयसा-आप्यायन के द्वारा (मयोभुवः) = कल्याण उत्पन्न करनेवाले होते हैं। इसका एक-एक अङ्ग शक्ति से पूर्ण होता है और इस प्रकार यह कल्याणयुक्त जीवनवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्राण हमें नीरोग व शक्तिसम्पन्न बनाते हैं। इससे हमें धन के पोषण की योग्यता प्राप्त होती है और हम उन धनों को भोगों में व्यय न करके यज्ञों में लगाते हैं ।
विषय
गृहस्थों के अन्नोपभोगवत् तेजस्वी मुमुक्षुओं की ब्रह्मरति, रुद्र विद्वानों का सर्वोपकार ।
भावार्थ
( मरुतः ) जिस प्रकार वायु गण ( हिताः ) हितकारी मित्रों के समान ( पयसा मयोभुवः ) जल से सबको सुखजनक होकर ( अस्मै ) इस जीवगण के सुख के लिये ( पुरु रजांसि ) बहुत लोकों को जल से सेंचते हैं। और वे (ऊमासः) सब के रक्षक और (अमृताः) अमृत, प्राणमय हो ( हविषा ददाशुषे ) हवि द्वारा यज्ञ करने वाले को ( रायः पोषं अरासत ) धन, गौ आदि समृद्धि को प्रदान करते हैं। उसी प्रकार ( मरुतः ) विद्वान् पुरुष, वीर सैनिक, ( हिताः-इव ) हितकारी मित्रों के समान, अपने अपने पदों पर स्थित होकर (पयसा) अन्न और पुष्टि कारक पदार्थों से ( मयोभुवः ) सबको सुख देने वाले, ( यस्मै ) जिस ( ददाशुषे ) अपने अन्न दाता के वृद्धयर्थ (रायः पोषं अरासत) धनों की समृद्धि को दें ( ऊमासः ) वे राष्ट्ररक्षक ( अमृताः ) अमर होकर ( अस्मै सिञ्चन्ति ) उसी के ऐश्वर्य को बढ़ाते हैं, ( पुरु रजांसि उक्षन्ति ) बहुत से लोकों को बढ़ाते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मैत्रावरुणोऽगस्त्य ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, २, ८ जगती । ३, ५, ६, १२, १३ निचृज्जगती । ४ विराट् जगती । ७, ९, १० भुरिक् त्रिष्टुप् । ११ विराट् त्रिष्टुप् । १४ त्रिष्टुप् । १५ पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी वायूप्रमाणे सर्वांच्या सुखासाठी चांगल्या प्रकारे विद्या व सत्योपदेश करावा. जलाने वृक्षाला सिंचित केले जाते, त्याप्रमाणे माणसाची वृद्धी केली पाहिजे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as imperishable protectors provide wealth and nourishment for the man who gives liberally in charity alongwith offerings of fragrant materials into the yajna fire, so do the Maruts, winds and other natural energies, kind and beneficent, like favourable helpers at the beck and call of a friend, overflow many regions of earth and skies with milk and water for the sake of the man of yajna.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The learned should show the path of progress to mankind.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! you are protectors and immortal (by the nature of the soul). You bestow happiness and are benevolent like the air and water when mixed. A person surrendering himself to you is blessed with several benefits. In fact, he gives knowledge and prosperity of all kinds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The men should help in the advancement of people by imparting the knowledge and true sermons like the tress. They should accomplish the happiness and welfare of all like the air.
Foot Notes
(हविषा) विद्यादिदानेन = By giving knowledge and other good things.
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