ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 166/ मन्त्र 4
ऋषिः - मैत्रावरुणोऽगस्त्यः
देवता - मरुतः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
आ ये रजां॑सि॒ तवि॑षीभि॒रव्य॑त॒ प्र व॒ एवा॑स॒: स्वय॑तासो अध्रजन्। भय॑न्ते॒ विश्वा॒ भुव॑नानि ह॒र्म्या चि॒त्रो वो॒ याम॒: प्रय॑तास्वृ॒ष्टिषु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ये । रजां॑सि । तवि॑षीभिः । अव्य॑त । प्र । वः॒ । एवा॑सः । स्वऽय॑तासः । अ॒ध्र॒ज॒न् । भय॑न्ते । विश्वा॑ । भुव॑नानि । ह॒र्म्या । चि॒त्रः । वः॒ । यामः॑ । प्रऽय॑तासु । ऋ॒ष्टिषु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ये रजांसि तविषीभिरव्यत प्र व एवास: स्वयतासो अध्रजन्। भयन्ते विश्वा भुवनानि हर्म्या चित्रो वो याम: प्रयतास्वृष्टिषु ॥
स्वर रहित पद पाठआ। ये। रजांसि। तविषीभिः। अव्यत। प्र। वः। एवासः। स्वऽयतासः। अध्रजन्। भयन्ते। विश्वा। भुवनानि। हर्म्या। चित्रः। वः। यामः। प्रऽयतासु। ऋष्टिषु ॥ १.१६६.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 166; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वांसो ये व एवासः स्वयतासो रथास्तविषीभी रजांसि आ अव्यत ते प्राध्रजन्। तेषां धावने विश्वा भुवनानि हर्म्या भयन्ते तस्मात् प्रयतास्वृष्टिषु चित्रो वो यामोऽस्ति ॥ ४ ॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (ये) (रजांसि) लोकाः (तविषीभिः) बलैः (अव्यत) प्राप्नुवन्ति (प्र) (वः) युष्माकम् (एवासः) गमनशीलाः (स्वयतासः) स्वेन बलेन नियमं प्राप्ता नत्वन्येनाश्वादिनेति (अध्रजन्) धावन्ति (भयन्ते) कम्पन्ते (विश्वा) सर्वाणि (भुवनानि) लोकाः (हर्म्या) उत्तमानि गृहाणि (चित्रः) अद्भुतः (वः) युष्माकम् (यामः) प्रापणम् (प्रयतासु) नियतासु (ऋष्टिषु) प्राप्तिषु ॥ ४ ॥
भावार्थः
विद्वांसो निजशास्त्राद्भुतबलेन रथादिकं निर्माय नियतासु वृत्तिषु गत्वागत्य सत्यविद्याऽध्यापनोपदेशैः सर्वान् मनुष्यान् पालयित्वाऽसत्यविद्योपदेशान्निवर्त्तयेयुः ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वानो ! (ये) जो (वः) तुम्हारे (एवासः) गमनशील (स्वयतासः) अपने बल से नियम को प्राप्त अर्थात् अश्वादि के विना आप ही गमन करने में सन्नद्ध रथ (तविषीभिः) बलों के साथ (रजांसि) लोकों को (आ, अव्यत) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं वे (प्र, अध्रजन्) अत्यन्त धावते हैं, उनके धावन में (विश्वा) समस्त (भुवनानि) लोक (हर्म्या) उत्तमोत्तम घर (भयन्ते) काँपते हैं इस कारण (प्रयतासु) नियत (ऋष्टिषु) प्राप्तियों में (चित्रः) अद्भुत (वः) तुम्हारा (यामः) पहुँचना है ॥ ४ ॥
भावार्थ
विद्वान् जन निज शास्त्रीय अद्भुत बल से रथादि बना के नियत वृत्तियों में जा आकर सत्य विद्या पढ़ाने और उनके उपदेशों से सब मनुष्यों को पाल के असत्य विद्या के उपदेशों को निवृत्त करें ॥ ४ ॥
विषय
विश्व का भयभीत होना
पदार्थ
१. प्राणसाधना होने पर इन्द्रियरूप (अश्व) = इधर-उधर भटकते नहीं। उस समय हे प्राणो ! (ये) = जो (रजांसि) = शरीर के सब लोकों को–अङ्ग प्रत्यङ्गों को (तविषीभिः) = शक्तियों से (आ अव्यत) = पूर्णरूप से आच्छादित कर लेते हैं [व्ये-संवरणे] वे (वः) = आपके (एवास:) = इन्द्रियरूप अश्व (स्व-यतासः) = आत्मा द्वारा नियन्त्रित हुए हुए (अध्रजन्) = तीव्र गतिवाले होते हैं। प्राणसाधना से सब इन्द्रियाँ शक्तिसम्पन्न बनती हैं और साथ ही आत्मा नियन्त्रित होता है। उस समय इन इन्द्रियों की गति अत्यन्त प्रबल होती है । २. प्राणसाधकों की इन गतियों से (विश्वा भुवनानि) = सब भुवन भयन्ते काँप उठते हैं, (हर्म्या) = सब महल भी काँप उठते हैं। इनकी हलचल से सभी प्रभावित होते हैं। बड़े-बड़े राजा भी इनकी उपेक्षा नहीं कर पाते। हे मरुतो ! (वः) = आपकी (यामः) = गति (चित्रः) = अद्भुत होती है । (ऋष्टिषु प्रयतासु) अस्त्रों के उठाये हुए होने पर जैसे सामान्य लोग भयभीत हो उठते हैं, उसी प्रकार इन प्राणसाधकों की गति सभी को हिला देती है। ऐसे ही व्यक्ति प्रचार द्वारा सुधार कार्य करने में समर्थ होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से इन्द्रियाँ सबल बनती हैं। ये आत्माधीन होती हुई प्रबल गतिवाली होती हैं। ऐसे पुरुषों की गति से सर्वत्र हलचल हो जाती है। ये सारे समाज में प्रबल क्रान्ति उत्पन्न करनेवाले होते हैं ।
विषय
वायुओं के समान वीरों का प्रयाण ।
भावार्थ
( ये ) जो वीर पुरुष ( तवीषीभिः ) अपनी बलशालिनी सेनाओं से ( रजांसि ) समस्त लोकों की धूलिओं और लोकों को वायु गणों के समान (आ अव्यत) सब तरफ से व्याप लेते हैं । हे वीर पुरुषो ! वे ( वः ) आप लोगों के ( एवासः ) तीव्र वेग से जाने वाले ( स्वयतासः ) अपने आप संयत, उत्तम रीति से बंधे हुए, या जितेन्द्रिय, गण और सवार लोग (अध्रजन् ) वेग से जाते हैं उस समय (विश्वा भुवनानि ) सब प्राणी गण ( भयन्ते ) भयभीत होते हैं और ( विश्वा हर्म्या ) सब महल वा उनमें रहने वाले स्त्री आदि जन (भयन्ते) कांपते हैं। हे वीरो ! तब भी (प्र-यतासु ) खूब उत्तम नियमों में बंधे, (ऋष्टिषु) हथियारों के बीच सुसज्जित होकर ( वः ) आप लोगों का ( यामः ) प्रयाण करना बड़ा ( चित्रः ) अद्भुत, विस्मयकारी होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मैत्रावरुणोऽगस्त्य ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, २, ८ जगती । ३, ५, ६, १२, १३ निचृज्जगती । ४ विराट् जगती । ७, ९, १० भुरिक् त्रिष्टुप् । ११ विराट् त्रिष्टुप् । १४ त्रिष्टुप् । १५ पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वान लोकांनी आपल्या शास्त्रीय अद्भुत बलाने रथ इत्यादी बनवून नियमित जाणे-येणे करावे. सत्य विद्या शिकवून व त्यांचा उपदेश करून सर्व माणसांचे पालन करावे. असत्य विद्येचा नाश करावा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
As you move on to reach the regions of your choice with your power and force and while your automotive and tempestuous rockets rush forth through the skies and spaces, then all the worlds and their towers shake with terror. Amazing is that mission of flight in the programmed and guided projects of yours.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of Maruts (learned persons) are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! you are of mighty powers, and so have stirred the regions up. Your movements are well-directed and are self-run and are not dependent upon anyone else. When you move swiftly, all creatures of the universe and dwellings are frightened. Your advent is shining and brilliant, and your conveyance is self-propelled.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The learned persons should build various kinds of carriers with the help of their excellent technological know-how and travel in it. They should teach and preach Truth and Wisdom, and should protect all the people.
Foot Notes
(एबास: ) गमनशीला: = Moving, active. ( अध्रजन्) धावन्ति । धज -गतौ = Run. ( स्वयतासः) स्वेन बलेन नियमं प्राप्ता, न त्वन्येनानाश्यादिना = Controlled by themselves and not others.
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