ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 166/ मन्त्र 14
येन॑ दी॒र्घं म॑रुतः शू॒शवा॑म यु॒ष्माके॑न॒ परी॑णसा तुरासः। आ यत्त॒तन॑न्वृ॒जने॒ जना॑स ए॒भिर्य॒ज्ञेभि॒स्तद॒भीष्टि॑मश्याम् ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । दी॒र्घम् । म॒रु॒तः॒ । शू॒शवा॑म । यु॒ष्माके॑न । परी॑णसा । तु॒रा॒सः॒ । आ । यत् । त॒तन॑म् । वृ॒जने॑ । जना॑सः । ए॒भिः । य॒ज्ञेभिः॑ । तत् । अ॒भि । इष्टि॑म् । अ॒श्या॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
येन दीर्घं मरुतः शूशवाम युष्माकेन परीणसा तुरासः। आ यत्ततनन्वृजने जनास एभिर्यज्ञेभिस्तदभीष्टिमश्याम् ॥
स्वर रहित पद पाठयेन। दीर्घम्। मरुतः। शूशवाम। युष्माकेन। परीणसा। तुरासः। आ। यत्। ततनम्। वृजने। जनासः। एभिः। यज्ञेभिः। तत्। अभि। इष्टिम्। अश्याम् ॥ १.१६६.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 166; मन्त्र » 14
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे तुरासो मरुतो वयं येन युष्माकेन परीणसोपदेशेन दीर्घं प्राप्य शूशवाम येन जनासो वृजने यद्यामाततनन्तत्तामभीष्टिमेभिर्यज्ञेभिरहमश्याम् ॥ १४ ॥
पदार्थः
(येन) (दीर्घम्) प्रलम्बितं ब्रह्मचर्यम् (मरुतः) वायुवद्विद्याबलिष्ठाः (शूशवाम) वर्द्धेमहि (युष्माकेन) युष्माकं सम्बन्धेन। अत्र वा च्छन्दसीत्यनण्यपि युष्माकादेशः। (परीणसा) बहुना। परीणसा इति बहुना०। निघं० ३। १। (तुरासः) त्वरितारः (आ) (यत्) याम् (ततनन्) तन्वन्तु (वृजने) बले (जनासः) विद्यया प्रसिद्धाः (एभिः) (यज्ञेभिः) विद्वत्सङ्गैः (तत्) ताम् (अभि) (इष्टिम्) (अश्याम्) प्राप्नुयाम् ॥ १४ ॥
भावार्थः
येषां सहायेन मनुष्या बहुविद्याधनबलाः स्युस्तान्नित्त्यं वर्द्धयेयुः। विद्वांसो यादृशं धर्ममाचरेयुस्तादृशमितरेऽप्याचरन्तु ॥ १४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (तुरासः) शीघ्रता करनेवाले (मरुतः) पवन के समान विद्याबलयुक्त विद्वानो ! हम लोग (येन) जिस (युष्माकेन) आप लोगों के सम्बन्ध के (परीणसा) बहुत उपदेश से (दीर्घम्) दीर्घ अत्यन्त लम्बे ब्रह्मचर्य को प्राप्त होके (शूशवाम) वृद्धि को प्राप्त हों जिससे (जनासः) विद्या से प्रसिद्ध मनुष्य (वृजने) बल के निमित्त (यत्) जिस क्रिया को (आ, ततनन्) विस्तारें (तत्) उस (अभीष्टिम्) सब प्रकार से चाही हुई क्रिया को (एभिः) इन (यज्ञेभिः) विद्वानों के सङ्गरूपयज्ञों से मैं (अश्याम्) पाऊँ ॥ १४ ॥
भावार्थ
जिनके सहाय से मनुष्य बहुत विद्या, धन और बलवाले हों, उनकी नित्य वृद्धि करें, विद्वान् जन जैसे धर्म का आचरण करें, वैसा ही और भी जन करें ॥ १४ ॥
विषय
'अभीष्टि-लाभ', अभ्युदय और निःश्रेयस
पदार्थ
१. हे (मरुतः) = प्राणो ! (युष्माकेन) = आपसे प्राप्त करने योग्य (येन) = जिस (परीणसा) = पालन व पूरण के द्वारा (तुरासः) = त्वरावाले होते हुए [त्वर] अथवा वासनाओं का संहार करते हुए [तुर्वी] (दीर्घम्) = दीर्घजीवन को (शूशवाम) = बढ़ानेवाले हों तथा (जनासः) = शक्तियों का विकास करनेवाले लोग (वृजने) = संग्राम में–काम-क्रोधादि से होनेवाले युद्ध में (यत्) = जो (आततनन्) = अपनी विजय को विस्तृत करते हैं, (एभिः यज्ञेभिः) = इस 'वासना-संहार द्वारा दीर्घजीवन की प्राप्ति तथा कामक्रोधादि संग्राम में विजयरूप' उत्तम कर्मों के द्वारा [यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म] हम (तत्) = उस (अभीष्टिम्) = वाञ्छनीय वस्तु को (अश्याम) = प्राप्त करनेवाले हों । २. प्राणसाधना का पहला परिणाम शरीर पर इस रूप में होता है कि वासनाक्षय से शरीर में शक्ति की वृद्धि होकर दीर्घजीवन प्राप्त होता है, दूसरा परिणाम यह है कि अध्यात्म संग्राम में विजय प्राप्त करके हम शारीरिक स्वास्थ्य की भाँति मानस स्वास्थ्य को भी प्राप्त करनेवाले बनते हैं । ३. शारीरिक स्वास्थ्य से 'अभ्युदय' - रूप इष्टि की प्राप्ति होती है और मानस स्वास्थ्य से हम 'निःश्रेयस' की प्राप्ति के अधिकारी बनते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से 'स्वस्थ शरीर' बनकर हम अभ्युदय को सिद्ध करें और स्वस्थ मनवाले बनकर निः श्रेयस के अधिकारी हों।
विषय
सूर्य के अधीन वायुगणवत् सेनापति के अधीन वीरों और गुरु के अधीन शिष्यों का व्रतपालन ।
भावार्थ
हे ( तुरासः ) वेगवान्, बलवान् ( मरुतः ) वायुओं के समान सर्वोपकारक विद्वान् और बलवान् पुरुषो ! ( युष्माकेन ) आप लोगों के ( येन ) जिस ( परीणसा ) बहुत से और बड़े भारी सामर्थ्य और ज्ञान से हम ( दीर्घं ) बहुत लम्बा, चिरकाल तक का ब्रह्मचर्य या जीवन ( शूशवाम ) बढ़ा लेते हैं और आप के ( यत् ) जिस ( वृजने ) विघ्न निवारक बल पर निर्भर करके ( जनासः ) लोग ( आ ततनन् ) नाना यज्ञ करते हैं। मैं ( एभिः यज्ञैः ) उन यज्ञों, दान, सत्संग, उपासना आदि पुण्य कर्मों के साथ साथ ( तत् ) आप के उसी बल सामर्थ्य से ( अभीष्टिम् ) अपने अभीष्ट, मनचाही मनोकामना को ( अश्याम् ) प्राप्त करूं । ( २ ) प्राणों के बड़े भारी सामर्थ्य से हम दीर्घ जीवन प्राप्त करते, उनके ही बल पर लोग सब कर्म करते, उनके ही बल से हम सब मनोकामना को प्राप्त करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मैत्रावरुणोऽगस्त्य ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, २, ८ जगती । ३, ५, ६, १२, १३ निचृज्जगती । ४ विराट् जगती । ७, ९, १० भुरिक् त्रिष्टुप् । ११ विराट् त्रिष्टुप् । १४ त्रिष्टुप् । १५ पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्यांच्या साह्याने माणसे पुष्कळ विद्या, धर्म व बल प्राप्त करतात, त्यांची नित्य वृद्धी करावी. विद्वान लोक जसे धर्माचे आचरण करतात तसेच इतरांनीही करावे. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Maruts, heroes of instant action and achievement, that abundance, expertise and heroism of yours by virtue of which we achieve great things of lasting significance, by which people expand in knowledge and win victories in their battles of life, that very cherished abundance, expertise and power of action, I pray, I too may achieve by these yajnic performances.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Men should follow the learned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The learned persons quick to take proper action are mighty like the winds. We may augment our lives by observing lengthy Brahmacharya as a result of their noble sermons. The distinguished scholars increase their strength and fulfil their noble desires because of them. May I be able to fulfil my good desires through the Yajnas (association with the enlightened persons).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should always try to advance the noble cause of those persons with whose help they acquire knowledge, wealth and strength. Ordinary persons should emulate as highly learned persons do.
Foot Notes
(परीणस। ) बहुना उपदेशेन परीणस इति बहुनाम् (NG 3-1) = On account of many sermons or teachings. ( यज्ञेभि:) विद्वत्संगै: = By the association of the enlightened persons. Among the three meanings of यज-देवपूजासंग तिकरणदानेषु the second one has been particularly taken here.
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