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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 173 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 173/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    विष्प॑र्धसो न॒रां न शंसै॑र॒स्माका॑स॒दिन्द्रो॒ वज्र॑हस्तः। मि॒त्रा॒युवो॒ न पूर्प॑तिं॒ सुशि॑ष्टौ मध्या॒युव॒ उप॑ शिक्षन्ति य॒ज्ञैः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विऽस्प॑र्धसः । न॒राम् । न । शंसैः॑ । अ॒स्माक॑ । अ॒स॒त् । इन्द्रः॑ । वज्र॑ऽहस्तः । मि॒त्र॒ऽयुवः॑ । न । पूःऽप॑तिम् । सुऽशि॑श्टौ । म॒ध्य॒ऽयुवः॑ । उप॑ । शि॒क्ष॒न्ति॒ । य॒ज्ञैः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विष्पर्धसो नरां न शंसैरस्माकासदिन्द्रो वज्रहस्तः। मित्रायुवो न पूर्पतिं सुशिष्टौ मध्यायुव उप शिक्षन्ति यज्ञैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽस्पर्धसः। नराम्। न। शंसैः। अस्माक। असत्। इन्द्रः। वज्रऽहस्तः। मित्रऽयुवः। न। पूःऽपतिम्। सुऽशिष्टौ। मध्यऽयुवः। उप। शिक्षन्ति। यज्ञैः ॥ १.१७३.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 173; मन्त्र » 10
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजशासनपरं विद्वद्विषयमाह ।

    अन्वयः

    वज्रहस्त इन्द्रोऽस्माकासदिति नरां शंसैर्न वादानुवादैः परस्परं विस्पर्द्धसो मित्रायुवो न मध्यायुवो जनाः सुशिष्टौ यज्ञैः पूर्पतिमुपशिक्षन्ति ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (विष्पर्द्धसः) परस्परं विशेषतः स्पर्द्धमानाः (नराम्) धर्मस्य नेतॄणाम् (न) इव (शंसैः) प्रशंसायुक्तैः (अस्माक) अस्माकम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति मलोपः। (असत्) भवेत् (इन्द्रः) सभेशः (वज्रहस्तः) शस्त्रास्त्रशासनपाणिः (मित्रायुवः) य आत्मनो मित्राणीच्छवः (न) इव (पूर्पतिम्) पुरां पालकम् (सुशिष्टौ) शोभने शासने (मध्यायुवः) य आत्मनो मध्यं मध्यस्थमिच्छवो विद्वांसः (उप) (शिक्षन्ति) शिक्षां प्रददति (यज्ञैः) अध्यापनाऽध्ययनोपदेशसङ्गतिकरणैः ॥ १० ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सत्याचरणस्पर्द्धिनः सर्वेषां सुहृदः पक्षपातविरहाः सत्यमाचरन्तो जनाः सत्यमुपदिशन्ति तथैव सभेशो राजा प्रजासु वर्त्तेत ॥ १० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजशिक्षा पर विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (वज्रहस्तः) शस्त्र और अस्त्रों की शिक्षा जिसके हाथ में है वह (इन्द्रः) सभापति (अस्माक) हमारा (असत्) हो अर्थात् हमारा रक्षक हो ऐसी (नराम्) धर्म की प्राप्ति करानेवाले पुरुषों की (शंसैः) प्रशंसायुक्त विवादों के (न) समान वादानुवादों से (विष्पर्द्धसः) परस्पर विशेषता से स्पर्द्धा ईर्ष्या करते और (मित्रायुवः) अपने को मित्र चाहते हुए जनों के (न) समान (मध्यायुवः) मध्यस्थ चाहते हुए विद्वान् जन (सुशिष्टौ) उत्तम शिक्षा के निमित्त (यज्ञैः) पढ़ना-पढ़ाना, उपदेश करना और सङ्ग मेल-मिलाप करना इत्यादि कर्मों से (पूर्पतिम्) पुरी नगरियों के पालनेवाले सभापति राजा को (उप, शिक्षन्ति) उपशिक्षा देते हैं अर्थात् उसके समीप जाकर उसे अच्छे-बुरे का भेद सिखाते हैं ॥ १० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे सत्याचरण में स्पर्द्धा करनेवाले सबके मित्र पक्षपातरहित सत्य का आचरण करते हुए जन सत्य का उपदेश करते हैं, वैसे ही सभापति राजा प्रजाजनों में वर्त्ते ॥ १० ॥

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    विषय

    मध्यायुवः

    पदार्थ

    १. (न) = जिस प्रकार (नराम्) = नेतृत्व करनेवाले माता-पिता आदि के (शंसैः) = शंसनों व उपदेशों से सन्तान (विष्पर्धसः) = विशिष्ट स्पर्धावाले होते हैं, एक-दूसरे के साथ स्पर्धा से उन्नति पथ पर आगे बढ़नेवाले होते हैं, उसी प्रकार स्पर्धापूर्वक आगे बढ़नेवाले (अस्माक) = हमारा (वज्रहस्तः) = सदा क्रियाशीलता को हाथ में लिये हुए (इन्द्रः) = यह परमैश्वर्यशाली प्रभु असत् हो, अर्थात् हम प्रभु के शंसनों से आगे बढ़ने की प्रेरणा को प्राप्त हों । २. हम (सुशिष्टौ) = उत्तम शासन के निमित्त (पूः पतिम्) = इस ब्रह्माण्डपुरी के शासक प्रभु को (मित्रायुवः न) = मित्र की भाँति प्राप्त करनेवालों की कामनावालों के समान हों। उस महान् मित्र प्रभु के शासन में (मध्यायुवः) = सदा मध्यमार्ग को अपनानेवाले लोग (यज्ञैः) = यज्ञात्मक कर्मों को करते हुए (उपशिक्षन्ति) = उस प्रभु को समीपता से प्राप्त कर सकने की इच्छावाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के उपदेशों से विशिष्ट स्पर्धावाले होकर आगे बढ़ें। मध्यमार्ग में चलते हुए यज्ञात्मक कर्मों से प्रभु को प्राप्त करें ।

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    विषय

    न्यायशील राजा के नीचे प्रजा का प्रेमसहित होकर रहना।

    भावार्थ

    ( नरां शसैः न ) जिस प्रकार उत्तम मार्ग के नायक पुरुषों के उपदेशों से मनुष्य ( विष्पर्धसः ) परस्पर स्पर्धा या द्वेष संघर्ष को छोड़कर प्रेमी हो जाते हैं उसी प्रकार (अस्माकम् ) हमारे बीच (वज्रहस्तः) दण्ड, शासन को अपने हाथ में संभालने वाला बलवान्, पराक्रमी, न्यायशील राजा रहे। हम लोग कलह हीन होकर परस्पर प्रेम से रहें । धर्मविरुद्ध स्पर्द्धा न करें। और जिस प्रकार ( मित्रायुवः ) मित्रता चाहने वाले और ( मध्यायुवः ) मध्यस्थ होने के इच्छुक राजा गण ( सुशिष्टौ ) उत्तम शासन में रहकर ( पूर्वतिम् ) पुर या नगर के स्वामी राजा को ( यज्ञैः ) नाना दानों, वा उत्तम कर्मों और परस्पर संगति या मेल मिलापों भेंट पुरस्कारों से ( उपशिक्षन्ति ) उसको देते हैं उसी प्रकार हे ईश्वर तू ज्ञान वज्र से अज्ञान दूर करने हारा होकर (अस्माकं असत्) हमारा ही होकर रह और उत्तम पुरुषों द्वारा शिक्षाओं से हम भी ( न ) मानो ( विस्पर्धसः ) द्वेष रहित होकर, या नाना स्पर्द्धा वाले, एक दूसरे से बढ़ाने की अभिलाषाएं करते हुए ( मित्रायुवः मध्यायुवः ) मित्रों के इच्छुक और मध्यस्थ पुरुषों के इच्छुक होकर ( यज्ञैः ) उत्तम उपासना और सत्संगों द्वारा इस देह पुरी के पालक आत्मा को ( उप शिक्षन्ति ) शिष्य के समान अति समीप पहुंचकर शिक्षा करते, उसकी साधना करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ११ पङ्क्तिः । ६, ९, १०, १२ भुरिक पङ्क्तिः। २, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ७, १३ निचृत् त्रिष्टुप । ४ बृहती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे सत्याचरणात स्पर्धा करणारे, सर्वांचे मित्र, पक्षपातरहित, सत्याचे आचरण करणारे लोक सत्याचा उपदेश करतात तसेच सभापतीने (राजाने) लोकांशी वागावे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    As with the praise and prayers of people trying to excel and rise in life, so with our praise and prayers may Indra, lord of armaments and the thunderbolt, be with us as a friend and guide. Like men with desire for friends, and like people of experience at the middle of age who serve Indra, lord of the city, with yajnas and sit with him for the sake of auspicious learning, we too serve the lord with yajnic offerings, meditate and pray for learning in the field of science and administration.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The qualities of an administrator.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May Indra (President of the Assembly) ! be favorable to us. He strikes with the thunderbolt. Various people contend and discuss among themselves, qualities of Indra with praiseful words. Noble persons are desirous of making and maintaining friendship with all and they give education in good administration to the protectors of the cities. To achieve it, teaching, studying, preaching and association with good and wise scholars are the means.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Good men are friendly to all and are impartial. They take a comparative view with others in the observance of the rules of righteousness, and practice and preaching of truth. Such people conduct themselves truthfully and honestly. Indra-the President of the Assembly should deal likewise with his subjects.

    Foot Notes

    (शिष्टौ ) शोभने शासने = In order to have good administration. (यज्ञै:) अध्यापनाध्ययनोपदेशसङ्गतिकरणै:= By the Yajnas in the form of reading, teaching, delivering sermons and association with capable persons.

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