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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 173 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 173/ मन्त्र 9
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    असा॑म॒ यथा॑ सुष॒खाय॑ एन स्वभि॒ष्टयो॑ न॒रां न शंसै॑:। अस॒द्यथा॑ न॒ इन्द्रो॑ वन्दने॒ष्ठास्तु॒रो न कर्म॒ नय॑मान उ॒क्था ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असा॑म । यथा॑ । सु॒ऽस॒खायः॑ । ए॒न॒ । सु॒ऽअ॒भि॒ष्टयः॑ । न॒राम् । न । शंसैः॑ । अस॑त् । यथा॑ । नः॒ । इन्द्रः॑ । व॒न्द॒ने॒ऽस्थाः । तु॒रः । न । कर्म॑ । नय॑मानः । उ॒क्था ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असाम यथा सुषखाय एन स्वभिष्टयो नरां न शंसै:। असद्यथा न इन्द्रो वन्दनेष्ठास्तुरो न कर्म नयमान उक्था ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असाम। यथा। सुऽसखायः। एन। सुऽअभिष्टयः। नराम्। न। शंसैः। असत्। यथा। नः। इन्द्रः। वन्दनेऽस्थाः। तुरः। न। कर्म। नयमानः। उक्था ॥ १.१७३.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 173; मन्त्र » 9
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मित्रपरत्वेन विद्वद्विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे एन विद्वन् यथा स्वभिष्टयः सुसखायो वयं नरां शंसैर्नोत्तमगुणैस्त्वां प्राप्ता असाम यथा वा वन्दनेष्ठाः तुर इन्द्रः कर्म नेव नोऽस्माकमुक्था नयमानोऽसत् तथा वयमाचरेम ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (असाम) भवेम (यथा) (सुसखायः) शोभनाः सखायो येषान्ते (एन) एति पुरुषार्थेन सुखानि यस्तत्सम्बुद्धौ (स्वभिष्टयः) शोभना अभिष्टयोऽभिप्राया येषान्ते (नराम्) नायकानाम् (न) इव (शंसैः) प्रशंसाभिः (असत्) भवेत् (यथा) (नः) अस्मान् (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्तो मित्रः (वन्दनेष्ठाः) स्तवने तिष्ठति यः (तुरः) शीघ्रकारी (न) इव (कर्म) धर्म्यं कृत्यम् (नयमानः) प्राप्नुवन् प्रापयन् वा (उक्था) प्रशस्तानि विज्ञानानि ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये सर्वेषु प्राणिषु सुहृद्भावेन वर्त्तन्ते ते सर्वैरभिवन्दनीयाः स्युः। ये सर्वान् सुबोधन्नयन्ति ते अत्युत्तमविद्या भवन्ति ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब मित्रपरत्व से विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (एन) पुरुषार्थ से सुखों को प्राप्त होते हुए विद्वान् ! (यथा) जैसे (स्वभिष्टयः) सुन्दर अभिप्राय और (सुसखायः) उत्तम मित्र जिनके वे हम लोग (नराम्) अग्रगामी प्रशंसित पुरुषों की (शंसैः) प्रशंसाओं के (न) समान उत्तम गुणों से आपको प्राप्त (असाम) होवें वा (यथा) जैसे (वन्दनेष्ठाः) स्तुति में स्थिर होता हुआ (तुरः) शीघ्रकारी (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्त मित्र (कर्म) धर्म युक्त कर्म के (न) समान (नः) हमारे (उक्था) प्रशंसा युक्त विज्ञानों को (नयमानः) प्राप्त करता वा कराता हुआ (असत्) हो वैसा आचरण हम लोग करें ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो सब प्राणियों में मित्रभाव से वर्त्तमान हैं, वे सबको अभिवादन करने योग्य हों, जो सबको उत्तम बोध को प्राप्त कराते हैं, वे अतीव उत्तम विद्यावाले होते हैं ॥ ९ ॥

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    विषय

    प्रभुरूप उत्तम मित्रवाले

    पदार्थ

    १. (एन) = [आ इन] हे महान् स्वामिन् ! सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के अधीश ! आप ऐसी कृपा कीजिए (यथा) = जिससे हम (सुषखायः) = आपके उत्तम मित्र असाम हों अथवा आपको पाकर उत्तम मित्रवाले हों । (न) = और (न इति चार्थे) आपकी कृपा से हम नराम्- हमें आगे ले-चलनेवाले 'माता-पिता, आचार्य व अतिथियों' के (शंसै:) = उपदेशों से (स्वभिष्टयः) = [शोभना-भ्येषणाः] वासनाओं पर प्रबल आक्रमण करनेवाले हों [अभ्येषण=attack] अथवा सदा उत्तम इच्छाओंवाले हों [अभिष्टि= desire]। २. हम इस प्रकार उत्तम इच्छाओंवाले हों कि (यथा) = जिससे (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (नः) = हमारे (वन्दनेष्ठाः असत्) = वन्दन में स्थित होनेवाले हों, हम सदा प्रभु का ही वन्दन करें। (तुरः न) = वे हमारे शत्रुओं का संहार करनेवाले के समान हों [तुर्वी हिंसायाम्] । इन शत्रुओं के संहार के लिए ही हमें कर्म-कर्त्तव्य कर्मों को (नयमानः) = प्राप्त कराएँ तथा (उक्था) = स्तोत्रों को प्राप्त कराएँ । हम कर्त्तव्यपालन करनेवाले बनें और सदा प्रभु का स्तवन करें। यही वस्तुतः वासनाओं से बचने का मार्ग है।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभुरूप मित्रवाले हों । प्रभु हमें कर्त्तव्यकर्मों में प्रेरित करके और स्तोत्रों को प्राप्त कराके वासनाओं के आक्रमण से बचाएँ ।

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    विषय

    स्वामी, और सेवक का परस्पर व्यवहार ।

    भावार्थ

    ( नरां शंसैः न ) जिस प्रकार नायक अग्रणी पुरुषों के उत्तम उपदेशों से लोग ( सु-अभिष्टयः ) अपनी उत्तम कामनाओं को पूर्ण करने में सफल होते हैं उसी प्रकार हे ( इन ) स्वामिन् ! पुरुषार्थ से सब सुखों को प्राप्त करने कराने हारे नायक विद्वान हम लोग ( शंसैः ) उत्तम उपदेशों से ही ( स्वभिष्टयः ) सुखदायी कामनाओं को प्राप्त होकर (यथा) उत्तम रीति से ( सुसखायः ) उत्तम मित्र भाव से सखा होकर रहें । ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् पुरुष जिस प्रकार ( वन्दनेष्ठाः ) सत्कार पूजा और स्तुति में दत्तचित्त होकर ( उक्था नयमानः ) उत्तम स्तुत्य पदार्थ प्रदान करता है उसी प्रकार ( इन्द्रः ) वह ऐश्वर्यवान् प्रभु ( यथा ) जैसे भीतर वैसे ( नः ) हमारे ( वन्दनेष्ठाः असत् ) स्तुति प्रार्थना और उपासना के भीतर विद्यमान रहे । ( तुरः कर्मा ) जिस प्रकार वेगवान् रथ या पुरुष हरकाम बहुत शीघ्र फुर्ती से कर लेता है उसी प्रकार ( तुरः ) सब विघ्नों का नाशक, शीघ्र फलप्रद परमेश्वर ( उक्था ) उत्तम २ वेदोपदेशों और पदों को ( नयमानः ) प्राप्त कराता ( असत् ) रहे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ११ पङ्क्तिः । ६, ९, १०, १२ भुरिक पङ्क्तिः। २, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ७, १३ निचृत् त्रिष्टुप । ४ बृहती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे सर्व प्राणिमात्राला मित्रभावाने पाहतात ते अभिनंदनीय असतात. जे सर्वांना उत्तम बोध करवितात ते अत्यंत विद्यावान असतात. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Lord of knowledge, divine action and human progress, guide us the way we may be blest with good friends and allies, with noble aims and intentions as with good wishes and approbations of the people around, and the way that Indra, happy with our praise and worship, be with us always, taking us forward in action like a carrier rocket in the holy field of science and technology.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    A learned person is a friend, and as such should be dealt with in that way.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons you achieve happiness by being industrious. May we of noble intentions be your valued friends. May we come to you with good virtues, by the praise of noble leading men, and ultimately initiating them in our practical life. May we behave as an admirable prosperous and active friend who does righteous acts leading to the acquisition of sciences.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who treat all living beings as friends are revered by all. Those are good scholars, who lead all towards good knowledge.

    Foot Notes

    (एन) एति पुरुषार्थेन सुखानियः तत्सम्बुद्धौ = He who attains happiness by being industrious. (उस्था ) प्रशस्तानि विज्ञानानि = Admirable sciences.

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