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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 173 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 173/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    तमु॑ ष्टु॒हीन्द्रं॒ यो ह॒ सत्वा॒ यः शूरो॑ म॒घवा॒ यो र॑थे॒ष्ठाः। प्र॒ती॒चश्चि॒द्योधी॑या॒न्वृष॑ण्वान्वव॒व्रुष॑श्चि॒त्तम॑सो विह॒न्ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । उँ॒म् इति॑ । स्तु॒हि॒ । इन्द्र॑म् । यः । ह॒ । सत्वा॑ । यः । शूरः॑ । म॒घवा॑ । यः । र॒थे॒ऽस्थाः । प्र॒ती॒चः । चि॒त् । योधी॑यान् । वृष॑ण्ऽवान् । व॒व॒व्रुषः॑ । चि॒त् । तम॑सः । वि॒ऽह॒न्ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमु ष्टुहीन्द्रं यो ह सत्वा यः शूरो मघवा यो रथेष्ठाः। प्रतीचश्चिद्योधीयान्वृषण्वान्ववव्रुषश्चित्तमसो विहन्ता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। उँम् इति। स्तुहि। इन्द्रम्। यः। ह। सत्वा। यः। शूरः। मघवा। यः। रथेऽस्थाः। प्रतीचः। चित्। योधीयान्। वृषण्ऽवान्। ववव्रुषः। चित्। तमसः। विऽहन्ता ॥ १.१७३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 173; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सदसद्विवेचनपरं विद्वद्विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे विद्वँस्त्वं यः सत्वा यश्चिच्छूरो मघवा यश्चिद्रथेष्ठा योधीयान् वृषण्वान् प्रतीचो ववव्रुषस्तमसो विहन्ता सूर्यइवाऽस्ति तमु हेन्द्र स्तुहि ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (तम्) (उ) वितर्के (स्तुहि) प्रशंस (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं सेनेशम् (वः) (ह) किल (सत्वा) बलिष्ठः (यः) (शूरः) निर्भयः (मघवा) परमपूजितधनयुक्तः (यः) (रथेष्ठाः) रथे तिष्ठति (प्रतीचः) यत् प्रत्यगञ्चति तस्य (चित्) अपि (योधीयान्) अतिशयेन योद्धा (वृषण्वान्) बलवान् (ववव्रुषः) रूपवतः। अत्र वव्रिरिति रूपनाम धातोर्लिटः क्वसुः। (चित्) अपि (तमसः) अन्धकारस्य (विहन्ता) विशेषेण नाशकः ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैस्तस्यैव स्तुतिः कार्या यः प्रशंसितानि कर्माणि कुर्यात्। तस्यैव निन्दा कार्या यो निन्द्यानि कर्माण्याचरेत् सैव स्तुतिर्यत्सत्यभाषणं सैव निन्दा यन्मिथ्याप्रलपनम् ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब भले-बुरे के विवेक करने पर जो विद्वानों का विषय उसका अगले मन्त्र में उपदेश किया है ।

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! आप (यः) जो (सत्वा) बलवान् (यः, चित्) और जो (शूरः) शूर (मघवा) परमपूजित धनयुक्त (यः, चित्) और जो (रथेष्ठाः) रथ में स्थित होनेवाला (योधीयान्) अत्यन्त युद्धशील (वृषण्वान्) बलवान् (प्रतीचः) प्रति पदार्थ प्राप्त होनेवाले (ववव्रुषः) रूपयुक्त (तमसः) अन्धकार का (विहन्ता) विनाश करनेवाले सूर्य के समान हैं (तम्, उ, ह) उसी (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान् सेनापति की (स्तुहि) प्रशंसा करो ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि उसीकी स्तुति करें जो प्रशंसित कर्म करे और उसीकी निन्दा करें जो निन्दित कर्मों का आचरण करे। वही स्तुति है जो सत्य कहना और वहीं निन्दा है जो किसी के विषय में झूठ बकना है ॥ ५ ॥

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    विषय

    नियन्ता प्रभु ( रथेष्ठाः )

    पदार्थ

    १. (तम्) = उस (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (हि) = ही (ह स्तुहि) = स्तुत कर उस प्रभु का स्तवन करनेवाला बन । (यः) = जो उ निश्चय से (सत्वा) = बल के पुञ्ज हैं, [सत्त्वम् - बलम्] बल के पुञ्ज होने के कारण (यः शूरः) = जो शत्रुओं का हिंसन करनेवाले हैं, (मघवा) = शत्रुओं का हिंसन करके परमैश्वर्यवाले हैं । (यः) = जो (रथेष्ठाः) = हमारे शरीररूप रथों पर नियन्ता के रूप से स्थित हैं 'भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया' । २. (प्रतीचः चित्) = [प्रति अञ्च] हमारे विरोध में आनेवाले कामादि शत्रुओं को योधीयान् युद्ध द्वारा पराजित करनेवाले हैं। हमारे इन शत्रुओं के साथ युद्ध करनेवाले उत्कृष्ट योद्धा हैं, (वृषण्वान्) = शत्रुओं के पराजय द्वारा हमें शक्तिशाली बनानेवाले हैं अथवा हम पर सुखों का वर्षण करनेवाले हैं । ३. कामादि शत्रुओं के पराजय के द्वारा (ववव्रुषः चित्) = आवरकभूत भी (तमसः) = अन्धकार के (विहन्ता) = नष्ट करनेवाले हैं। ज्ञान पर आवरण के रूप में होनेवाले अन्धकार के आप नाशक हैं। इस आवरण को दूर करके आप हमारे ज्ञान को दीप्त करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे कामादि शत्रुओं का संहार करके हमारे ज्ञान को बढ़ाते हैं, इस प्रकार हम वास्तविक ऐश्वर्य को प्राप्त करनेवाले बनते हैं।

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    विषय

    सेनापति का सूर्यवत् पराक्रम । आत्मा, सत्वा, मघवा ।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! तू ( तम् इन्द्रं उस्तुहि ) उस ऐश्वर्यवान् की ही सदा स्तुति कर ( यः सत्वा ) जो निश्चय से बड़ा बलवान्, ( यः ) जो ( शूरः ) शूरवीर, ( मघवा ) ऐश्वर्यवान्, ( यः रथेष्ठाः ) जो स्थ या रथसेना पर स्थित हो। और जो ( प्रतीचः चित् ) अपने प्रति आने वाले शत्रुओं के साथ ( योधीयान् ) सबसे अधिक युद्ध करने वाला, ( वृषण्वान् ) मेघ के समान शस्त्रवर्षी, वीरों का स्वामी, वा बलवान् वीर्यवान्, और ( ववव्रुषः तमसः चित् ) आवरणकारी अन्धकार को सूर्य के समान शत्रुओं को ( विहन्ता ) विविध उपायों से नाश करने वाला है । ( २ ) अध्यात्म में—इन्द्र अर्थात् आत्मा परमात्मा सत्व गुण से युक्त होने से ‘सत्वा’, ऐश्वर्यवान् और पूजा योग्य होने से ‘मधवा’, देह और ब्रहमाण्ड रूप रथ पर स्थित, या रस रूप आनन्द में स्थित होने से ‘रथेष्टा’ है । वह बड़े योद्धा के समान आवरणकारी तम, अज्ञान का नाशक है। इति त्रयोदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ११ पङ्क्तिः । ६, ९, १०, १२ भुरिक पङ्क्तिः। २, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ७, १३ निचृत् त्रिष्टुप । ४ बृहती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी त्यांचीच स्तुती करावी जे प्रशंसित कार्य करतात व त्याचीच निंदा करावी जे निन्दित कर्माचे आचरण करतात, कुणाविषयी सत्य सांगणे हीच स्तुती व खोटे सांगणे ही निंदा होय. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Praise be to Indra, celebrate Him in gratefulness. He alone is wholly pure and true. He is mighty and omnipotent. His is the power and the glory. He rides the chariot of the universe as the sole master. Right in front, He is in and with everyone and everything, the great fighter, shower of life and joy, and He is the Light, dispeller of the darkness that hides the truth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The enlightened persons should have discriminative powers.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Glorify that Indra (Chief Commander of the Army) who is mighty, and a fearless hero possessing abundant admirable wealth. Seated at focal point, he is a valiant combatant against adversaries and the wielder of the powerful weapons. He dispels the gloom and inertia like the sun.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should admire the noble and censure who perform condemn noble actions. Verily the praise and condemnation should be real and truthful.

    Foot Notes

    ( इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं सेनेशम् = The wealthy Chief Commander of the army. (प्रतौच:) य: प्रत्यक् अन्चति तस्य = of an adversary (who stands against a person ).

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