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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 173 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 173/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒मत्सु॑ त्वा शूर स॒तामु॑रा॒णं प्र॑प॒थिन्त॑मं परितंस॒यध्यै॑। स॒जोष॑स॒ इन्द्रं॒ मदे॑ क्षो॒णीः सू॒रिं चि॒द्ये अ॑नु॒मद॑न्ति॒ वाजै॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मत्ऽसु॑ । त्वा॒ । शू॒र॒ । स॒ताम् । उ॒रा॒णम् । प्र॒प॒थिन्ऽत॑मम् । प॒रि॒ऽतं॒स॒यध्यै॑ । स॒जोष॑सः । इन्द्र॑म् । मदे॑ । क्षो॒णीः । सू॒रिम् । चि॒त् । ये । अ॒नु॒ऽमद॑न्ति । वाजैः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समत्सु त्वा शूर सतामुराणं प्रपथिन्तमं परितंसयध्यै। सजोषस इन्द्रं मदे क्षोणीः सूरिं चिद्ये अनुमदन्ति वाजै: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    समत्ऽसु। त्वा। शूर। सताम्। उराणम्। प्रपथिन्ऽतमम्। परिऽतंसयध्यै। सजोषसः। इन्द्रम्। मदे। क्षोणीः। सूरिम्। चित्। ये। अनुऽमदन्ति। वाजैः ॥ १.१७३.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 173; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ प्रकृतविषये राज्यप्राप्तिसाधनमाह ।

    अन्वयः

    हे शूर ये सजोषसः समत्सु परितंसयध्यै सतामुराणं प्रपथिन्तममिन्द्रं त्वा मदे क्षोणीः सूरिं चिदिव वाजैरनुमदन्ति ताँस्त्वमप्यनुमन्दय ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (समत्सु) सङ्ग्रामेषु (त्वा) त्वाम् (शूर) दुष्टहिंसक (सताम्) सत्पुरुषाणाम् (उराणम्) बहुबलं कुर्वन्तम् (प्रपथिन्तमम्) अतिशयेन प्रकृष्टपथगामिनम् (परितंसयध्यै) परितः सर्वतस्तंसयितुं भूषयितुम् (सजोषसः) समानप्रीतिसेवनाः (इन्द्रम्) सेनेशम् (मदे) हर्षाय (क्षोणीः) भूमीः (सूरिम्) विद्वांसम् (चित्) इव (ये) (अनु, मदन्ति) (वाजैः) वेगादिगुणयुक्तैर्वीरैरश्वैर्वा ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    त एव निर्वैरा स्वात्मतुल्यानन्यान् प्राणिनो जानन्ति तेषामेव राज्यं वर्द्धते ये सत्पुरुषाणामेव सङ्गं प्रतिदिनं कुर्वन्ति ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वद्विषय में राज्यप्राप्ति का साधन विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (शूर) दुष्टों की हिंसा करनेवाले सेनाधीश ! (ये) जो (सजोषसः) समान प्रीति सेवनेवाले (समत्सु) सङ्ग्रामों में (परितंसयध्यै) सब ओर से भूषित करने के लिये (सताम्) सत्पुरुषों में (उराणम्) अधिक बल करते हुए (प्रपथिन्तमम्) अतिशयता से उत्तम पथगामी (इन्द्रम्) सेनापति (त्वा) तुमको (मदे) हर्ष आनन्द के लिये (क्षोणीः) भूमियों को (सूरिम्) विद्वान् के (चित्) समान (वाजैः) वेगादि गुणयुक्त वीर वा अश्वादिकों के साथ (अनु, मदन्ति) अनुमोद आनन्द देते हैं उनको तूँ भी आनन्दित कर ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    वे ही निर्वैर हैं, जो अपने समान और प्राणियों को जानते हैं। उन्हीं का राज्य बढ़ता है, जो सत्पुरुषों का ही प्रतिदिन सङ्ग करते हैं ॥ ७ ॥

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    विषय

    सज्जनों के शक्तिवर्धक प्रभु

    पदार्थ

    १. हे (शूर) = शत्रु-संहारक प्रभो ! (समत्सु) = संग्रामों में सताम् सज्जनों के (उराणम्) = [उरूणि अतिप्रभूतानि बलादीनि कुर्वाणम्- सा०] प्रभूत बलादि को करते हुए (प्रपथिन्तमम्) = प्रकृष्ट मार्गभूत त्वा = आपको (परितंसयध्यै) = अपना अवतंस [वण] बनाने के लिए (सजोषस:) = [जुषी प्रीतिसेवनयोः] प्रीतिपूर्वक अपने नियत कर्मों का सेवन करनेवाले होते हैं। जो भी व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों को प्रेम से करते हैं, वे अपने कर्त्तव्यपालन से प्रभु की सच्ची पूजा कर रहे होते हैं। २. (मदे) = हर्ष-प्राप्ति के निमित्त (क्षोणी:) = मनुष्य (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को ही [परितंसयध्यै] अपना आभूषण बनाने के लिए यत्नशील होते हैं। वास्तविक आनन्द प्रभु-प्राप्ति में ही है। इस आनन्द का अनुभव वे करते हैं (ये) = जो (वाजैः) = [वज गतौ] अपनी क्रियाओं से उस (सूरिं चित्) = सर्वज्ञ प्रभु को ही (अनुमदन्ति) = [मादयन्ति - सा०] हर्षित करते हैं। जैसे पुत्र श्रेणी में प्रथम स्थान में स्थित होकर पिता को प्रसन्न करता है, उसी प्रकार हम अपने उत्तम कर्मों से प्रभु को प्रीणित कर पाते हैं । =

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सज्जन बनें, प्रभु हमें शक्ति देंगे। उस शक्ति से प्रकृष्ट मार्ग पर चलते हुए हम प्रभु के प्रिय बनेंगे ।

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    विषय

    प्रजा का सहोद्योग।

    भावार्थ

    ( क्षोणीः सूरिं चित् वाजैः ) भूमियां जिस प्रकार अन्नों को प्राप्त होकर सूर्य को लक्ष्य करके ( अनु मदन्ति ) बहुत प्रसन्न होती हैं उसी प्रकार हे ( शूर ) शूरवीर ! ( ये ) जो ( क्षोणीः ) भूमिवासी प्रजाएं ( वाजैः ) अपने ऐश्वर्यों, बलवान् अश्वों और वीरों के साथ (सूरिं) अपने प्रेरक, विद्वान् ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान् पुरुष को ( मदे ) हर्ष के अवसरों में ( अनुमदन्ति ) स्वामी के साथ २ बड़ा हर्ष अनुभव करती हैं वे ही ( समत्सु ) संग्राम के अवसरों में ( सताम् उराणां ) सज्जनों के बल को बढ़ाने वाले ( प्रपथिन्तमम् ) सबसे उत्तम मार्ग में चलने वाले ( त्वा ) तुझको (सजोषसः) प्रेम और उत्साह से युक्त होकर ( परि तंसयध्यै ) सब तरफ से सुशोभित करने के लिये तैयार रहते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ११ पङ्क्तिः । ६, ९, १०, १२ भुरिक पङ्क्तिः। २, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ७, १३ निचृत् त्रिष्टुप । ४ बृहती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे आपल्याप्रमाणे इतर प्राण्यांना मानतात ते निर्वैरी असतात. त्यांचेच राज्य वाढते जे सत्पुरुषांचा सतत संग करतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    To decorate and honour you as a mighty hero, as a pioneer and leader in the battles of life, as the highest of the best, O sagely wise Indra, lord omnipotent and omniscient, the people of the world, friends, lovers, admirers and worshippers in excitement and ecstasy celebrate you and the worlds, and celebrate with you, with all their might and main and the homage of love and faith.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (the Chief Commander of the Army)! You destroy the wicked and those people who lovingly and unitedly support you in the battles with virile heroes and speedy horses, etc. You are invigorator of good for the honor of the noble persons. Yourself follow noble path and guide others to the right way. Those who give land and its products etc. to learned men, you should also delight them.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    They never create enmity, who treat all living beings alike. They are influential persons and only expand, only those who associate and accompany with good men.

    Foot Notes

    (समत्सु) संग्रामेषु समत्सुइति संग्राम नाम (NG. 2-17) = In the battle-fields. (इन्द्रम्) सेनेशम् = The Chief Commander of an army. (उराणम्) बहुबलं कुर्वन्तम् = Strengthening or invigorating.

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