ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 173/ मन्त्र 6
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
प्र यदि॒त्था म॑हि॒ना नृभ्यो॒ अस्त्यरं॒ रोद॑सी क॒क्ष्ये॒३॒॑ नास्मै॑। सं वि॑व्य॒ इन्द्रो॑ वृ॒जनं॒ न भूमा॒ भर्ति॑ स्व॒धावाँ॑ ओप॒शमि॑व॒ द्याम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । यत् । इ॒त्था । म॒हि॒ना । नृऽभ्यः॑ । अस्ति॑ । अर॑म् । रोद॑सी॒ इति॑ । क॒क्ष्ये॒ इति॑ । न । अ॒स्मै॒ । सम् । वि॒व्ये॒ । इन्द्रः॑ । वृ॒जन॑म् । न । भूम॑ । भर्ति॑ । स्व॒धाऽवा॑न् । ओ॒प॒शम्ऽइ॑व । द्याम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यदित्था महिना नृभ्यो अस्त्यरं रोदसी कक्ष्ये३ नास्मै। सं विव्य इन्द्रो वृजनं न भूमा भर्ति स्वधावाँ ओपशमिव द्याम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र। यत्। इत्था। महिना। नृऽभ्यः। अस्ति। अरम्। रोदसी इति। कक्ष्ये३ इति। न। अस्मै। सम्। विव्ये। इन्द्रः। वृजनम्। न। भूम। भर्ति। स्वधाऽवान्। ओपशम्ऽइव। द्याम् ॥ १.१७३.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 173; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रकृतविषये लोकलोकान्तरविषयमाह ।
अन्वयः
यद्य इन्द्रो वृजनं न भूम संविव्ये स्वधावानोपशमिव द्यां प्रभर्त्ति अस्मै कक्ष्ये रोदसी नारं पर्यास इत्था महिना नृभ्योऽरमस्ति ॥ ६ ॥
पदार्थः
(प्र) (यत्) (इत्था) अस्माद्धेतोः (महिना) महिम्ना निजमहत्त्वेन (नृभ्यः) नायकेभ्यः (अस्ति) (अरम्) अलम् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (कक्ष्ये) कक्षासु भवे (न) निषेधे (अस्मै) (सम्) (विव्ये) संवृणोति (इन्द्रः) सूर्यः (वृजनम्) बलम् (न) इव (भूम) भूमानि वस्तूनि। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (भर्त्ति) बिभर्त्ति। अत्र बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (स्वधावान्) अन्नवान् (ओपशमिव) अत्यन्तं सम्बद्धम् (द्याम्) प्रकाशम् ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोमालङ्कारौ। यथा प्रकाशरहिताः पृथिव्यादयः पदार्थाः सर्वमावृण्वन्ति तथा सूर्यः स्वप्रकाशेन सर्वमाच्छादयति यथा भौमान् पदार्थान् पृथिवी धरतीत्थमेव सूर्यो भूगोलान् बिभर्त्ति ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब इस प्रकृत विद्वद्विषय में लोकलोकान्तर विज्ञान विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यत्) जो (इन्द्रः) सूर्य (वृजनम्) बल के (न) समान (भूम) बहुत पदार्थों को (सम्, विव्ये) अच्छे प्रकार स्वीकार करता और (स्वधावान्) अन्नादि पदार्थवाला यह सूर्यमण्डल (ओपशमिव) अत्यन्त एक में मिले हुए पदार्थ के समान (द्याम्) प्रकाश को (प्र, भर्त्ति) धारण करता (अस्मै) इसके लिये (कक्ष्ये) अपनी-अपनी कक्षाओं में प्रसिद्ध हुए (रोदसी) द्युलोक और पृथिवीलोक (न) नहीं (अरम्) परिपूर्ण होते वह (इत्था) इस प्रकार (महिना) अपनी महिमा से (नृभ्यः) अग्रगामी मनुष्यों के लिये परिपूर्ण (अरमस्ति) समर्थ हैं ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे प्रकाशरहित पृथिवी आदि पदार्थ सबका आच्छादन करते हैं, वैसे सूर्य अपने प्रकाश से सबका आच्छादन करता है। जैसे भूमिज पदार्थों को पृथिवी धारण करती है, ऐसे ही सूर्य भूगोलों को धारण करता है ॥ ६ ॥
विषय
प्रभु का विराट् रूप
पदार्थ
१. (यत्) = जो (इत्था) = इस प्रकार-गत मन्त्र में वर्णित प्रकार से हमारे शत्रुओं का नाश करके (महिना) = अपनी महिमा से (नृभ्यः) = मनुष्यों के लिए (प्र अस्ति) = [प्र भवति] प्रकृष्ट सत्ता को प्राप्त करानेवाले हैं, स्वर्ग-उत्तम स्थिति में प्राप्त करानेवाले हैं । २. (अस्मै) = इस प्रभु के लिए (रोदसी) = ये द्यावापृथिवी (कक्ष्ये) = दाएँ-बाएँ पांसे के रूप में (अरं न) = पर्याप्त नहीं हैं। ये द्युलोक व पृथिवीलोक प्रभु को अपने में समा नहीं सकते। ३. (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (भूम) = इस पृथिवी को (वृजनं न) = एक गोचर भूमि के रूप में (संविव्ये) = आच्छादित किये हुए हैं। प्रभु गोप हैं, जीव गौएँ हैं। प्रभु ने इनके चरने के लिए इस पृथिवीरूप चरागाह को संवृत किया [ढका] हुआ है। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि मनुष्य प्रायः चरते ही रहते हैं। ४. वह (स्वधावान्) = आत्मधारण शक्तिवाले प्रभु (द्याम्) = इस द्युलोक को (ओपशम् इव) = [head-dress] शिरोवस्त्र के समान (भर्ति) = धारण करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - उस विराट् प्रभु को ये द्युलोक व पृथिवीलोक अपने में समा नहीं सकते। पृथिवी उस प्रभु से एक चरागाह के रूप में मनोनीत की गई है तो द्युलोक प्रभु के शिरोवस्त्र के समान है।
विषय
अद्वितीय होकर प्रजापालन ।
भावार्थ
( यत् ) जो ऐश्वर्यवान् ( महिना ) अपने महान् सामर्थ्य से ( इत्या ) इस प्रकार, सचमुच ( नृभ्यः ) मनुष्यों के हित के लिये ( प्र अस्ति ) सब कार्य करने में समर्थ है ( अस्मै ) उसके लिये ( कक्ष्येन ) अगल बगल में रहने वाले छोटे मकानों के समान ( रोदसी ) स्वपक्ष और परपक्ष की सेनाएं भी ( अरं न ) पर्याप्त नहीं है। वह ( इन्द्रः ) महान् ऐश्वर्यवान् शत्रुनाशक राजा ( सं विव्य ) सबको अच्छी प्रकार अपने वश कर लेता है। और ( वृजनं भूम न ) शत्रुवर्जक बल जिस प्रकार बहुत प्रजा की रक्षा करता है उसी प्रकार वह भी ( भूम ) बलवान् होकर बहुत से ऐश्वर्य और बड़े राज्य को (भर्ति) धारण करता है और (स्वधावान् ) जलमय मेघ जिस प्रकार ( ओपशं धाम ) समीप विद्यमान अन्तरिक्ष और पृथिवी को भरण पोषण करता है उसी प्रकार वह भी ( स्वधावान् ) अन्न समृद्धि का स्वामी होकर ( ओपशम् इव ) समीप सोने वाली स्त्री या बन्धुजन के समान ( द्याम् ) कामना शील, स्नेहमयी प्रजा को या पृथिवी को ( भर्ति ) पालन करता है । ( २ ) परमेश्वर पक्ष में—( महिना इत्था नृभ्यः अस्ति ) वह परमेश्वर अपने महान् सामर्थ्य से इतना भारी हित है कि उसके लिये आकाश और भूमि भी समाने को पर्याप्त नहीं है, वह पापनिवारक बल स्वरूप ( भूम ) महान् आत्मा सब में व्यापक है । वही शक्तिमान् होकर पृथिवी को मेघ के समान धारण करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ११ पङ्क्तिः । ६, ९, १०, १२ भुरिक पङ्क्तिः। २, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ७, १३ निचृत् त्रिष्टुप । ४ बृहती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे प्रकाशरहित पृथ्वी इत्यादी पदार्थ सर्वांचे आच्छादन करतात तसे सूर्य आपल्या प्रकाशाने सर्वांचे आच्छादन करतो. जसे भूमीज पदार्थांना पृथ्वी धारण करते तसेच सूर्य भूगोलांना धारण करतो. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra who, thus with His omnipotence, is all in all self-sufficient for the sustenance of humanity, who keeps the heaven and earth and the middle regions in orbit but not for Himself, Indra who weaves the web and wields the entire worlds of existence together, each as on its own path, and then the mighty lord of His own power and Prakrti holds the high heavens up above as the pillar in the centre.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The planets in the universe are dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The sun with planets and Satellites envelops all great objects with its power. He is the producer of food grains and upholds the sky. The sky and earth combined are not sufficient to encompass Him. So He with His grandeur is the model of strength for all leaders.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The earth and other planets without light envelop all substances, while the sun showers the light. As the earth upholds all earthly objects, likewise the sun upholds all the Satellites and planets controlled by it.
Foot Notes
(इन्द्रः) सूर्य: = The sun (ओपशम्) अत्यन्तं सम्बद्धम् = Intimately (वृजनम् ) बलम् = Strength or closely related.
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