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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 173 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 173/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒वा हि ते॒ शं सव॑ना समु॒द्र आपो॒ यत्त॑ आ॒सु मद॑न्ति दे॒वीः। विश्वा॑ ते॒ अनु॒ जोष्या॑ भू॒द्गौः सू॒रीँश्चि॒द्यदि॑ धि॒षा वेषि॒ जना॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । हि । ते॒ । शम् । सव॑ना । स॒मु॒द्रे । आपः॑ । यत् । ते॒ । आ॒सु । मद॑न्ति । दे॒वीः । विश्वा॑ । ते॒ । अनु॑ । जोष्या॑ । भू॒त् । गौः । सू॒रीन् । चि॒त् । यदि॑ । धि॒षा । वेषि॑ । जना॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा हि ते शं सवना समुद्र आपो यत्त आसु मदन्ति देवीः। विश्वा ते अनु जोष्या भूद्गौः सूरीँश्चिद्यदि धिषा वेषि जनान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव। हि। ते। शम्। सवना। समुद्रे। आपः। यत्। ते। आसु। मदन्ति। देवीः। विश्वा। ते। अनु। जोष्या। भूत्। गौः। सूरीन्। चित्। यदि। धिषा। वेषि। जनान् ॥ १.१७३.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 173; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वदुपदेशेन राजविषयमाह ।

    अन्वयः

    हे इन्द्र सभेश समुद्र आप इव ते हि सवनाच्छमेव कुर्वन्ति ते देवीर्यदासु मदन्ति त्वं च यदि धिषा सूरींश्चिज्जनान् वेषि तदा ते विश्वा गौरनुज्जोष्याभूत् ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (एव) अवधारणे। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (हि) खलु (ते) तव (शम्) सुखम् (सवना) ऐश्वर्य्याणि (समुद्रे) अन्तरिक्षे (आपः) जलानि (यत्) यदा (ते) तव (आसु) अप्सु (मदन्ति) (देवीः) दिव्यगुणसम्पन्नाः (विश्वा) सर्वा (ते) तव (अनु) (जोष्या) सेवितुं योग्या (भूत्) भवति। अत्राडभावः। (गौः) विद्यासुशिक्षिता वाणी (सूरीन्) विदुषः (चित्) (यदि) (धिषा) प्रज्ञया (वेषि) कामयसे (जनान्) उत्तमान् मनुष्यान् ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य आकाशे मेघमुन्नीय सर्वान् सुखयति तथा सत्पुरुषस्यैश्वर्य्यं वर्द्धमानं सत्सकलानानन्दयति यथा पुरुषा विद्वांसो भवेयुस्तथैव स्त्रियोऽपि स्युः ॥ ८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वानों के उपदेश से राजविषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे सभापति ! (समुद्रे) अन्तरिक्ष में (आपः) जलों के समान (ते) आपके (हि) ही (सवना) ऐश्वर्य (शम्) सुख (एव) ही करते हैं वा (ते) आपकी (देवीः) दिव्य गुण सम्पन्न विदुषी (यत्) जब (आसु) इन जलों में (मदन्ति) हर्षित होती हैं और आप (यदि) जो (धिषा) उत्तम बुद्धि से (सूरीन्) विद्वान् (चित्) मात्र (जनान्) जनों को (वेषि) चाहते हो तब (ते) आपकी (विश्वा) समस्त (गौः) विद्या सुशिक्षायुक्त वाणी (अनु, जोष्या) अनुकूलता से सेवने योग्य (भूत्) होती है ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य आकाश में मेघ की उन्नति कर सबको सुखी करता है, वैसे सज्जन पुरुष का बढ़ता हुआ ऐश्वर्य सबको आनन्दित करता है, जैसे पुरुष विद्वान् हों, वैसे स्त्री भी हों ॥ ८ ॥

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    विषय

    यज्ञ, स्वाध्याय व स्तवन

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! (एव) = सचमुच (हि) = ही (ते) = आपके सवना यज्ञ शम् शान्ति देनेवाले हैं। हम यज्ञों को आपके निर्देश के अनुसार करते हैं और जीवन में सुख व शान्ति का अनुभव करते हैं । २. यत् = जो समुद्रे- इस ज्ञान के समुद्र वेदों में [रायः समुद्राँश्चतुरः] (ते आपः) = आपके ज्ञानजल हैं, (आसु) = उन ज्ञान-जलों में (देवी:) = दिव्य वृत्तियोंवाली प्रजाएँ मदन्ति हर्ष का अनुभव करती हैं। (ते) = आपकी यह (विश्वा गौ:) = सम्पूर्ण वेदवाणी अनु- क्रमशः 'ऋग्यजुः, साम व अथर्व' इस क्रम से (जोष्या) = प्रीतिपूर्वक सेवन करने योग्य (भूत्) = होती है । २. (सूरीन् चित् जनान्) = इन ज्ञानीजनों को भी (यदि वेषि) = यदि आप प्राप्त होते हैं या चाहते हैं तो (धिषा) = [धिष्=हृभ ह्यह्वस्त्र] स्तुतिवचनों के द्वारा ही, अर्थात् जब एक ज्ञानी पुरुष आपका उपासक बनता है तभी आप उसका धारण करनेवाले होते हैं। आपका सच्चा उपासक वही है जो 'सर्वभूतहिते रत: ' होता है। वह सब प्राणियों का धारण करता है और आपसे धारणीय होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ – यज्ञ हमारे लिए शान्तिकर हों। हम ज्ञानसमुद्र में स्नान का आनन्द लें, औरों का धारण करते हुए प्रभु के सच्चे उपासक बनें और प्रभु से धारणीय हों ।

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    विषय

    परस्पर प्रसन्नता।

    भावार्थ

    हे राजन् ! हे प्रभो ! (ते ) तेरे ( सवना ) समस्त ऐश्वर्य यज्ञ यागादि भी ( समुद्रे आपः ) समुद्र या अन्तरिक्ष के जलों के समान ( एवा हि शम् ) सदा निश्चय से सुख और कल्याणकारी होते हैं ( यत् ) जब ( ते ) तेरी ( देवीः ) दिव्य गुण वाली उत्तम प्रजाएं ( आसु ) इन आप्त पुरुषों और प्राणों में ( मदन्ति ) अति हर्ष प्राप्त करती हैं । ( यदि ) जब तू ( सूरीन् जनान् चित् ) उत्तम उत्तम, माननीय विद्वान् पुरुषों को ( घिषा ) उत्तम आदर सत्कार और उत्तम प्रज्ञा या चित्त से ( वेषि ) प्राप्त होता है तब ( ते ) तेरी ( विश्वा ) सब प्रकार की ( गौः ) मधुर वाणी अर्थात् आज्ञा भी, ( अनु जोष्या ) अनुकूल होकर सेवन करने योग्य हो जाती है। राजा विद्वानों से उत्तम ज्ञान प्राप्त करे तो राजा की सभी आज्ञाएं पालने योग्य, सुखकारी हो जाती हैं जब आप्त प्रजाएं या देवियां इन सामान्य प्रजाओं के बीच समुद्र में जलों के समान प्रसन्न, स्वच्छ सदा सन्तुष्ट होकर रहती हैं तब राजा वा गृहपति के सब कार्य, और ऐश्वर्य भी सबको शान्तिदायक होते हैं। ( २ ) परमेश्वर पक्ष में—ईश्वर की सब प्रेरणाएं, जगतों की उत्पन्न की सृष्टियां और उसकी स्तुति यागादि भी शान्तिदायक होते हैं जब उत्तम दिव्य भाव वाली प्रजाएं इन क्रियाओं सें रखें । हे परमेश्वर ! जब तू विद्वान् जनों और सूर्यो को भी ज्ञानपूर्वक प्रेरता और उनको ज्ञान दृष्टि और कर्म योग से प्राप्त होता है ( ते अनु ) तुझे लक्ष्य करके सब वाणी सेवन करने योग्य होती हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ११ पङ्क्तिः । ६, ९, १०, १२ भुरिक पङ्क्तिः। २, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ७, १३ निचृत् त्रिष्टुप । ४ बृहती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य आकाशात मेघांची वृद्धी करतो व सुखी करतो. तसे सज्जन पुरुषाचे वाढलेले ऐश्वर्य सर्वांना आनंदित करते. जसा पुरुष विद्वान असावा तशी स्त्रीही असावी. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Indra, lord ruler of the world, all celebrations in your honour and all your celebrations of life and existence, thus, are for peace and well-being. Thus all waters in the oceans and all celestial waters in space and in these earths of the universe which celebrate you and rejoice in you are for peace and well-being. And when you inspire sagely people with conscious favours and divine intelligence, then all voices of the world in unison with you celebrate you and the joy of existence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the Head of State are defined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (President of the Assembly) ! like the waters in the firmament, your riches are the cause of happiness to all. The learned women folk like your mother, wife and sister etc. take delight and make proper use of waters for their prosperity, health and beauty with your wisdom. O Indra ! you cherish to have association with wise scholars. Your soft speech is endowed with wisdom and good education. It becomes pleasing to all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The sun causes happiness to all, by raising the the clouds in the sky and raining. In the same manner, the growing wealth of the noble persons pleases all. Like the men the women should also become learned.

    Foot Notes

    (समुद्रे ) अन्तरिक्षे = In the firmament. (वेषि) कामयसे = Desire.

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