ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 173/ मन्त्र 12
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
मो षू ण॑ इ॒न्द्रात्र॑ पृ॒त्सु दे॒वैरस्ति॒ हि ष्मा॑ ते शुष्मिन्नव॒याः। म॒हश्चि॒द्यस्य॑ मी॒ळ्हुषो॑ य॒व्या ह॒विष्म॑तो म॒रुतो॒ वन्द॑ते॒ गीः ॥
स्वर सहित पद पाठमो इति॑ । सु । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । अत्र॑ । पृ॒त्ऽसु । दे॒वैः । अस्ति॑ । हि । स्म॒ । ते॒ । शु॒ष्मि॒न् । अ॒व॒ऽयाः । म॒हः । चि॒त् । यस्य॑ । मी॒ळ्हुषः॑ । य॒व्या । ह॒विष्म॑तः । म॒रुतः॑ । वन्द॑ते । गीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मो षू ण इन्द्रात्र पृत्सु देवैरस्ति हि ष्मा ते शुष्मिन्नवयाः। महश्चिद्यस्य मीळ्हुषो यव्या हविष्मतो मरुतो वन्दते गीः ॥
स्वर रहित पद पाठमो इति। सु। नः। इन्द्र। अत्र। पृत्ऽसु। देवैः। अस्ति। हि। स्म। ते। शुष्मिन्। अवऽयाः। महः। चित्। यस्य। मीळ्हुषः। यव्या। हविष्मतः। मरुतः। वन्दते। गीः ॥ १.१७३.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 173; मन्त्र » 12
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ साधारणजनेषु बलादिविषये विद्वदुपदेशमाह ।
अन्वयः
हे इन्द्र भवानत्र देवैर्नोऽस्माकं पृत्सु सहायकारी हि स्वस्ति ष्म। हे शुष्मिन्नवयाः संस्त्वं यस्य ते मीढुषो हविष्मतो महर्मरुतो यव्या गीर्वन्दते चिदिव वर्त्तते स त्वमस्मान् मो हिन्धि ॥ १२ ॥
पदार्थः
(मो) निषेधे (सु) (नः) अस्माकम् (इन्द्र) विद्यैश्वर्यप्रापक (अत्र) आसु (पृत्सु) सङ्ग्रामेषु (देवैः) विद्वद्भिर्वीरैस्सह (अस्ति) (हि) यतः (स्म) एव (ते) (शुष्मिन्) बलिष्ठ (अवयाः) योऽवयजति विरुद्धं कर्म न सङ्गच्छते सः (महः) महतः (चित्) अपि (यस्य) (मीढुषः) (यव्या) नदीव। यव्येति नदीना०। निघं० १। १३। (हविष्मतः) बहुविद्यादानसम्बन्धिनः (मरुतः) विदुषः (वन्दते) (गीः) सत्यगुणाढ्या वाणी ॥ १२ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यो बलं प्राप्नुयात् स सज्जनेषु शत्रुवन्न वर्त्तेत सदाप्तस्योपदेशमङ्गीकुर्यान्नेतरस्य ॥ १२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब साधारण जनों में बलादि विषय में विद्वानों का उपदेश किया है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य की प्राप्ति करनेवाले विद्वान् ! आप (अत्र) यहाँ (देवैः) विद्वान् वीरों के साथ (नः) हम लोगों के (पृत्सु) संग्रामों में (हि) जिस कारण (सु, अस्ति) अच्छे प्रकार सहायकारी हैं (स्म) ही ओर हे (शुष्मिन्) अत्यन्त बलवान् ! (अवयाः) जो विरुद्ध कर्म को नहीं प्राप्त होता ऐसे होते हुए आप (यस्य) जिन (मीढुषः) सींचनेवाले (हविष्मतः) बहुत विद्यादान सम्बन्धी (महः) बड़े (ते) आप (मरुतः) विद्वान् की (यव्या) नदी के समान (गीः) सत्य गुणों से युक्त वाणी (वन्दते) स्तुति करती अर्थात् सब पदार्थों की प्रशंसा करती (चित्) सी वर्त्तमान हैं वे आप हम लोगों को (मो) मत मारिये ॥ १२ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो बल को प्राप्त हो वह सज्जनों में शत्रु के समान न वर्त्ते, सदा आप्त शास्त्रज्ञ धर्मात्मा जनों के उपदेश को स्वीकार करे, इतर अधर्मात्मा के उपदेश को न स्वीकार करे ॥ १२ ॥
विषय
हविर्मय जीवन की प्रशस्तता
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = शत्रु-विद्रावक प्रभो ! (अत्र) = यहाँ-इस जीवनयज्ञ में (पृत्सु) = उपस्थित होनेवाले संग्रामों में (नः) = हमें (देवैः) = अपनी दिव्यशक्तियों के साथ (मा उ सु) = [त्याक्षी:] निश्चय से छोड़ मत जाइए। आपकी सहायता से ही तो हम इन संग्रामों में विजयी बन पाएँगे। हे (शुष्मन्) = शत्रुशोषक बलवाले प्रभो ! (हि स्म) = निश्चयपूर्वक ते आपका (अवयाः अस्ति) = शत्रुओं को दूर करनेवाला वज्र है ही। आप इस वज्र के द्वारा हमारे शत्रुओं का संहार कीजिए । वस्तुतः 'क्रियाशीलता' ही वह वज्र है, जिसके द्वारा हम काम-क्रोधादि शत्रुओं को नष्ट कर पाते हैं । २. (महः चित्) = महान् भी (मीळ्हुष:) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले (यस्य) = जिन आपकी (यव्या गी:) = बुराइयों का अमिश्रण व अच्छाइयों का मिश्रण करनेवाली [यु मिश्रणामिश्रणयोः] यह वेदवाणी (हविष्मतः मरुतः) = प्रशस्त हविवाले पुरुष का (वन्दते) = स्तवन करती है, अर्थात् वेदवाणी में उसी का प्रशंसन है जिसका कि जीवन दानपूर्वक अदन करनेवाला बना है। वस्तुतः इस हवि के द्वारा ही प्रभु का पूजन होता है । हविर्मय जीवन ही प्रशस्त जीवन है। इसी से मनुष्य महान् बनता है, सब पर सुखों का वर्षण करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की अनुकूलता में ही हम संसार-संग्राम में विजयी बन पाते हैं। हविर्मय जीवन ही उत्तम जीवन है।
विषय
नायक का संकंटों से बचाने का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्रर्यवन् ! तू ( नः ) हमारा ( अवयाः ) नीचे गिराने हारा ( मो सु ) कभी न हो । प्रत्युत (अत्र) इस जगत् में ( पृत्सु ) सेनाओं और संग्रामों के बीच में ( ते ) तेरा ( अवयाः ) शत्रुओं और पापों को दूर करने वाला वज्र या सामर्थ्य (देवैः) विजयाकांक्षी सैनिकों के साथ ही (अस्ति हि स्म) रहा ही करता है । ( यस्य ) जिस (महः चित् मीढुषः) महान्, मेघ के समान जल वर्षाने वाले वीर्यवान्, बलवान् शस्त्रवर्षी, तेरी ( यव्या गीः ) शत्रू को दूर कर देने वाली वाणी ( हविष्मतः मरुतः ) ग्रहण करने योग्य वेतन पुरस्कार आदि पाने वाले वीर भटों को (वन्दते) बाद से प्रसंशा करती है वह तू हमें कभी संकट में न डाल ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ११ पङ्क्तिः । ६, ९, १०, १२ भुरिक पङ्क्तिः। २, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ७, १३ निचृत् त्रिष्टुप । ४ बृहती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्याच्याजवळ बल असेल त्याने सज्जनांशी शत्रूप्रमाणे वागू नये. सदैव आप्त, शास्त्रज्ञ, धर्मात्मा लोकांच्या उपदेशाचा स्वीकार करावा. इतर अधार्मिक लोकांचा उपदेश स्वीकारू नये. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of power and prosperity, you are with the divinities of nature and nobilities of humanity, never with the ungenerous. Pray, do not forsake us in the battles of life. Lord of light and grandeur, this praise and prayer is for you surely, this voice of unifying love and faith which celebrates the great, generous, creative, philanthropic and dynamic powers of the divine and human world is for you.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The enlightened persons mobilize the masses on the right path.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Indra is the Chief Commander of the Army. He bestows the wealth of knowledge, and is instrumental in our battles along with other heroic persons. O mighty learned persons! you never do unlawful or unrighteous acts, rather are giver of happiness and knowledge. Their truthful and pious speech flows like a river. You do not strike at or be harsh on us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A strong person should not bear enmity with the noble persons. He should always accept the guidance and sermons of the absolutely truthful persons, and of none else.
Foot Notes
(अवयाः) य: अवयजति विरुद्धं कर्म न सङ्गच्छते सः = He who does not do an unlawful or unrighteous act. ( यव्या) नदी इव | यव्येति नदीनाम (NG 1-13) = Like a river.
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