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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 173 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 173/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    ता क॒र्माष॑तरास्मै॒ प्र च्यौ॒त्नानि॑ देव॒यन्तो॑ भरन्ते। जुजो॑ष॒दिन्द्रो॑ द॒स्मव॑र्चा॒ नास॑त्येव॒ सुग्म्यो॑ रथे॒ष्ठाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । क॒र्म॒ । अष॑ऽतरा । अ॒स्मै॒ । प्र । च्यौ॒त्नानि॑ । दे॒व॒ऽयन्तः॑ । भ॒र॒न्ते॒ । जुजो॑षत् । इन्द्रः॑ । द॒स्मऽव॑र्चाः । नास॑त्याऽइव । सुग्म्यः॑ । र॒थे॒ऽस्थाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता कर्माषतरास्मै प्र च्यौत्नानि देवयन्तो भरन्ते। जुजोषदिन्द्रो दस्मवर्चा नासत्येव सुग्म्यो रथेष्ठाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता। कर्म। अषऽतरा। अस्मै। प्र। च्यौत्नानि। देवऽयन्तः। भरन्ते। जुजोषत्। इन्द्रः। दस्मऽवर्चाः। नासत्याऽइव। सुग्म्यः। रथेऽस्थाः ॥ १.१७३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 173; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यथा देवयन्तोऽस्मै याऽषतरा च्यौत्नानि प्र भरन्ते ता दस्मवर्चाः सुग्म्यो रथेष्ठा इन्द्रो नासत्येव ता जुजोषत्तथा वयं कर्म ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (ता) तानि (कर्म) कर्म्म। अत्र लुङि च्लेर्लुक् छन्दस्युभयथेत्यार्द्धधातुकत्वेन ङित्वाभावाद्गुणः। (अषतरा) प्राप्ततराणि। अत्र ऋष धातो रेफस्य लोपः। (अस्मै) (प्र) प्रकर्षे (च्यौत्नानि) स्तोत्राणि (देवयन्तः) आत्मनो देवान् विदुष इच्छन्तः (भरन्ते) दधति (जुजोषत्) जुषेत (इन्द्रः) ऐश्वर्यमिच्छुः (दस्मवर्चाः) दस्मेषु शत्रुषु वर्चस्तेजः प्रागल्भ्यं यस्य सः (नासत्येव) सूर्याचन्द्रमसाविव (सुग्म्यः) सुगेषु सुखाधिकरणेषु साधुः (रथेष्ठाः) यो रथे तिष्ठति सः ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये सूर्याचन्द्रवच्छुभगुणकर्मस्वभावैः प्रकाशिता आप्तवदाचरन्ति ते किं किं सुखन्नाप्नुवन्ति ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (देवयन्तः) अपने को विद्वानों की इच्छा करनेवाले सज्जन (अस्मै) जिन (अषतरा) अतीव प्राप्त पदार्थों और (च्यौत्नानि) इस आगे कहने योग्य ऐश्वर्य चाहनेवाले सभापति आदि के लिये स्तुतियों को (प्र, भरन्ते) उत्तमता से धारण करते हैं (ता) उनको (दस्मवर्चाः) शत्रुओं में जिसका पराक्रम वर्त्त रहा है वह (सुग्म्यः) सुख साधन पदार्थों में उत्तम (रथेष्ठाः) रथ में बैठनेवाला (इन्द्रः) ऐश्वर्य चाहता हुआ (नासत्येव) सूर्य और चन्द्रमा के समान (जुजोषत्) सेवे वैसे हम लोग (कर्म) करें ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो सूर्य-चन्द्रमा के समान शुभ गुण, कर्म, स्वभावों से प्रकाशित, आप्त शास्त्रज्ञ धर्मात्माओं के तुल्य आचरण करते हैं, वे क्या-क्या सुख नहीं पाते हैं ॥ ४ ॥

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    विषय

    दीप्तकर्मों द्वारा प्रभु-प्राप्ति

    पदार्थ

    १. (अस्मै) = इस प्रभु की प्राप्ति के लिए (ता) = उन (अषतरा) = [अष्= to shine, to receive] दीप्ततर अथवा प्रभु से [more acceptable] अधिक स्वीकरणीय (कर्म) = कर्मों को करें [कुर्मः] । कर्मों के द्वारा ही तो प्रभु का उपासन होता है। जितने हमारे कर्म दीप्त होंगे, उतने ही प्रभु से स्वीकरणीय होंगे। २. (देवयन्तः) = इस देव को प्राप्त करने की कामनावाले (च्यौनानि) = धनों के क्षरणों अर्थात् दानों का (प्रभरन्ते) = धारण करते हैं। ये धनों का खूब दान देनेवाले होते हैं। जितनाजितना इन धनों का दान करते जाते हैं, उतना उतना उसी प्रकार निर्मल होते जाते हैं, जैसे कि काले मेघ जल का क्षरण करके श्वेत हो जाते हैं। ये निर्मल अन्तःकरण पुरुष ही प्रभु को पाते हैं । ३. यह प्रभु-भक्त (जुजोषत्) = प्रीतिपूर्वक अपने नियत कर्मों का सेवन करता है। (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनता है, (दस्मवर्चा:) = दर्शनीय तेजवाला होता है, अथवा कामादि शत्रुओं के नाशक तेजवाला होता है। अपने तेज से यह (नासत्या इव) = अश्विनी देवों के समान होता है, प्राणापान की शक्ति से सम्पन्न होता है, (सुग्म्यः) = [ग्मा= earth= शरीर] उत्तम शरीरवालों में भी है, अत्यन्त स्वस्थ शरीरवाला होता है, (रथेष्ठा:) = इस शरीररूप रथ का अधिष्ठाता श्रेष्ठ बनता है। इसके द्वारा अपने लक्ष्यस्थान पर पहुँचनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु-प्राप्ति के लिए हमारे कर्म दीप्त हों, हम दान देनेवाले बनें ।

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    विषय

    वीरों का सशस्त्र होकर शत्रुनाश का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( देवयन्तः ) विद्वान् और दानशील, राजा को स्वयं प्राप्त करने की इच्छा करने वाले पुरुष ( अस्मै ) इस विजय शील ऐश्वर्यवान् राजा या मुख्य सेनापति के हित के लिये ( च्यौत्नानि ) शत्रु को पदच्युत करने वाले, ऐसे साधनों, या शस्त्रास्त्रों को ( प्र भरन्ते ) अच्छी प्रकार प्रयोग करते, शत्रु पर प्रहार करते हैं जो ( अषतरा ) शत्रु पक्ष के हथियारों की अपेक्षा अधिक वेग से फैलने और जाने वाले, उनकी अपेक्षा अधिक उत्तम चलने वाले हों। हम प्रजागण भी उन स्थानों, यन्त्रों और अस्त्रों को ( कर्म ) बनावें और तैयार करें । ( इन्द्रः ) वह ऐश्वर्यवान् पुरुष ( दस्म-वर्चा: ) शत्रु नाशकारी तेज और पराक्रम से युक्त, या प्रजा नाशक शत्रुओं पर पराक्रमी (सुग्म्यः) उत्तम सुखदायिनी भूमि में सर्व श्रेष्ठ, और पृथिवी के विजय और पालन करने में कुशल होकर ( नासत्या इव ) परस्पर असत्याचरण से न वर्त्तने वाले दम्पती स्त्री पुरुषों के समान ( रथेष्ठाः ) रथ पर विराजमान होकर ( जुजोषत् ) पूर्वोक्त शत्रु नाशक साधनों को स्वीकार करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ११ पङ्क्तिः । ६, ९, १०, १२ भुरिक पङ्क्तिः। २, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ७, १३ निचृत् त्रिष्टुप । ४ बृहती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे सूर्य-चंद्राप्रमाणे शुभ गुण, कर्म स्वभावाने प्रकाशित, आप्त शास्त्रज्ञ धर्मात्म्याप्रमाणे आचरण करतात ते कोणते सुख प्राप्त करू शकत नाहीत? ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Those yajnic acts, cherished offerings, and mantras vibrating with energy, which the yajakas eager to please and empower the divinities of nature and humanity offer into the fire for Indra, may Indra, blazing catalytic power of Divinity, happily accessible, riding the chariot of sun-beams, along vibrations of the winds and waves of energy, receive with love and desire and, like the Ashvins, sun and moon, recreate, augment and return as blessings of Divinity for humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The truly learned persons attain happiness.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those persons desirous to become learned and pure present to Indra (prosperous President of the Assembly etc.) actual affairs of the State. Indra is of conspicuous luster and he gives happiness, sitting in his car. May he gladly accept our advice like the earth and the heaven.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who behave like absolutely truthful and learned persons being resplendent like the sun and the moon on account of their noble virtues, actions and temperament, enjoy all happiness.

    Foot Notes

    (अषतरा ) प्राप्त तराणि । अत्र ऋष धातो: रेफस्य लोपः = Obtained. (च्योत्नानि) स्तोत्राणि = Laudations or praises. (नासत्या इव ) सूर्याचन्द्रमसौ इव = Like the sun and the moon.

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