ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 173/ मन्त्र 2
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अर्च॒द्वृषा॒ वृष॑भि॒: स्वेदु॑हव्यैर्मृ॒गो नाश्नो॒ अति॒ यज्जु॑गु॒र्यात्। प्र म॑न्द॒युर्म॒नां गू॑र्त॒ होता॒ भर॑ते॒ मर्यो॑ मिथु॒ना यज॑त्रः ॥
स्वर सहित पद पाठअर्च॒त् । वृषा॑ । वृष॑ऽभिः । स्वऽइदु॑हव्यैः । मृ॒गः । न । अश्नः॑ । अति॑ । यत् । जु॒गु॒र्यात् । प्र । म॒न्द॒युः । म॒नाम् । गू॒र्त॒ । होता॑ । भर॑ते । मर्यः॑ । मि॒थु॒ना । यज॑त्रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्चद्वृषा वृषभि: स्वेदुहव्यैर्मृगो नाश्नो अति यज्जुगुर्यात्। प्र मन्दयुर्मनां गूर्त होता भरते मर्यो मिथुना यजत्रः ॥
स्वर रहित पद पाठअर्चत्। वृषा। वृषऽभिः। स्वऽइदुहव्यैः। मृगः। न। अश्नः। अति। यत्। जुगुर्यात्। प्र। मन्दयुः। मनाम्। गूर्त। होता। भरते। मर्यः। मिथुना। यजत्रः ॥ १.१७३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 173; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रकृतविषये स्त्रीपुरुषयोर्गृहकृत्यदृष्टान्तेनान्यानुपदिशति ।
अन्वयः
हे मनुष्या यथा वृषा अश्नो मन्दयुर्होता यजत्रो मर्यो स्वेदुहव्यैर्वृषभिस्सह यन्मृगो नाऽति जुगुर्याद्भरते मनां सङ्गमर्चत् यथा वा मिथुना सङ्गतं व्यवहारं कुर्युस्तथा यूयं प्रगूर्त्त ॥ २ ॥
पदार्थः
(अर्चत्) अर्चेत् (वृषा) सत्योपदेशशब्दवर्षकः (वृषभिः) उपदेशकैः सह (स्वेदुहव्यैः) स्वेन प्रकाशितदानाऽऽदानैः (मृगः) (न) इव (अश्नः) व्यापकः (अति) (यत्) (जुगुर्यात्) उद्यच्छेत् (प्र) (मन्दयुः) आत्मनो मन्दं प्रंशसनमिच्छुः (मनाम्) मननशीलानाम् (गूर्त्त) उद्यच्छत (होता) दाता (भरते) धरते (मर्यः) मरणधर्मा मनुष्यः (मिथुना) मिथुनानि स्त्रीपुरुषद्वन्द्वानि (यजत्रः) सङ्गन्ता ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा स्वयंवृताः स्त्रीपुरुषाः परस्परमुद्योगं कृत्वा मृगवद्वेगेन गृहकृत्यानि संसाध्य विदुषां सङ्गेन सत्यं स्वीकृत्याऽसत्यं विहाय परमेश्वरं विदुषश्च सत्कुर्वन्ति तथा सर्वे मनुष्याः सङ्गन्तारः स्युः ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब चलते हुए प्रकरण में स्त्री-पुरुष के घर के काम के दृष्टान्त से औरों को उपदेश करते हैं ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (वृषा) सत्योपदेशरूपी शब्दों की वर्षा करनेवाला (अश्नः) शुभ गुणों में व्याप्त (मन्दयुः) अपनी प्रशंसा चाहता हुआ (होता) दानशील (यजत्रः) सङ्ग करनेवाला (मर्यः) मरणधर्म्मा मनुष्य (स्वेदुहव्यैः) आप ही प्रकाशित किये देने-लेने के व्यवहारों और (वृषभिः) उपदेश करनेवालों के साथ (यत्) जो (मृगः) हरिण के (न) समान (अति, जुगुर्यात्) अतीव उद्यम करे, अति यत्न करे और (भरते) धारण करता (मनाम्) विचारशीलों का सङ्ग (अर्चत्) सराहे प्रशंसित करे वा जैसे (मिथुना) स्त्री-पुरुष दो-दो मिलके सङ्ग धर्म को करें वैसे तुम (प्र, गूर्त्त) उत्तम उद्यम करो ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे स्वयंवर किये हुए स्त्री-पुरुष परस्पर उद्योग कर हरिण के समान वेग से घर के कामों को सिद्ध कर विद्वानों के सङ्ग से सत्य का स्वीकार कर असत्य को छोड़कर परमेश्वर और विद्वानों का सत्कार करते हैं, वैसे समस्त मनुष्य सङ्ग करनेवाले हों ॥ २ ॥
विषय
मिथुनोपासन [विष्णु+लक्ष्मी]
पदार्थ
१. यह इन्द्र (अर्चत्) = प्रभु का अर्चन करता है। अर्चन के कारण (वृषा) = यह शक्तिशाली बनता है। यह (वृषभिः) = शक्तियों के हेतु से तथा (स्व इदुहव्यैः) = आत्मतत्त्व को दीप्त करनेवाले [स्व = आत्मा, इदु इन्धक ]हव्यों के हेतु से (मृगः) = आत्मान्वेषण करनेवाला बनता है। आत्मनिरीक्षण करता हुआ यह कामादि शत्रुओं को नष्ट करके शक्तिशाली बनता है। इसमें त्यागपूर्वक अदन की वृत्ति जाग्रत् होती है। यह (न अश्न:) = बहुत खानेवाला नहीं बन जाता, पेटू नहीं बनता (यत्) = क्योंकि यह (अतिजुगुर्यात्) = खूब श्रमशील होता है। प्रभु-भक्त को क्रियाशील तो होना ही चाहिए । २. हे (गूर्त) = [गुरी उद्यमने] उद्यमसम्पन्न इन्द्र! तू (मनाम्) = मननीय देवों का (प्रमन्दयुः) = प्रकर्षेण स्तवन करनेवाला होता है | होता सदा दानपूर्वक अदन की वृत्तिवाला होता है । ३. यह (यजत्रः मर्यः) = यज्ञशील मनुष्य (मिथुना) = परमात्मा और प्रकृति को (भरते) = अपने में धारण करता है । परमात्मा की उपासना से यह निः श्रेयस को सिद्ध करता है तो प्रकृति की उपासना से इसे अभ्युदय प्राप्त होता है। धन से संसार के कार्य चलते हैं, प्रभु के उपासन से मनुष्य मार्गभ्रष्ट नहीं होता। इस प्रकार जीवन-पथ पर आगे बढ़ता हुआ यह प्रभु को प्राप्त करता है । =
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु - उपासक शक्तिशाली बनता है, आत्मतत्त्व के प्रकाश के लिए हव्य का सेवन करता है।
विषय
सूर्य और सिंहवत् वीर का शत्रु के प्रति आक्रमण और प्रजा का भरण पोषण ।
भावार्थ
( वृषा ) वर्षा करने वाला सूर्य जिस प्रकार (स्व-इदु-हव्यैः) अपने आल्हादक, जल रूप दानों से युक्त मेघों और (स्व-इदु-हव्यैः) अपने प्रकाशमान, जल ग्राहक किरणों से ( अर्चत् ) प्रकाशित होता है और ( अश्रनः मृगः न ) भूखे मृग, हरिण या सिंह के समान वह ( अतिजुगुर्यात् ) ऊपर उठता और अधिक मात्रा में जल को अपने भीतर ग्रहण कर लेता है और वह ( मनां मन्दयुः ) मनुष्यों को प्रसन्न करता हुआ ( होता ) जलों को देने वाला हो कर ( यजत्रः मर्यः ) दानशील के समान ( मिथुना ) समस्त पुरुषों या वर्गों का ( भरते ) भरण पोषण करता है। उसी प्रकार ( वृषा ) प्रजा पर सुखों का वर्षण करने हारा, शत्रुओं पर शस्त्रों का वर्षण करने हारा, विद्वान्, ऐश्वर्यवान् और बलवान् पुरुष ( स्व-इदु-हव्यैः ) अपने चमचमाते साधन शस्त्रों से युक्त ( वृषभिः ) बलवान् शस्त्रवर्षी सैनिकों के साथ ( अर्चत् ) गमन करे । वह ( अश्नः मृगः न ) भूखे सिंह के समान ( यत् ) जब ( अति जुगुर्यात् ) खूब बढ़कर उद्यम करे शत्रु पर सेनाबल को दण्ड के समान उठाकर उससे पीड़ित करे । और वह ( होता ) सबको अन्न, वेतनादि देने वाला ( यजत्रः ) सबका दाता, सबको सत्संगादि कराने वाला, व्यवस्थापक ( मर्यः ) उत्तम मनुष्य, ( मनां ) मननशील और शत्रुस्तम्भनकारी पुरुषों के बीच उनकी ( मन्दयुः ) स्तुति को सुनता हुआ, या उन्हें प्रसन्न करता हुआ ( प्र गूर्त्त ) अच्छी प्रकार उद्यम करता और ( मिथुना ) समस्त नर नारियों को ( प्र भरते ) अच्छी प्रकार भरण पोषण करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ११ पङ्क्तिः । ६, ९, १०, १२ भुरिक पङ्क्तिः। २, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ७, १३ निचृत् त्रिष्टुप । ४ बृहती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे स्वयंवर केलेले स्त्री-पुरुष परस्पर उद्योग करून हरिणाप्रमाणे वेगाने गृहकृत्ये करतात व विद्वानांच्या संगतीने सत्याचा स्वीकार व असत्याचा त्याग करतात आणि परमेश्वर व विद्वान यांचा सत्कार करतात तसे संपूर्ण माणसांनी वागावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the brilliant man of yajna, virile and generous, trying to reach his aim like a bounding deer at the fastest speed, with virile and generous yajakas, offer rich, fragrant yajnic offerings, to Indra. Let the mortal man, happy at heart with his life partner dedicated to yajna and social service, offer hymns of praise and fragrant oblations to Indra, lord of life, honour and glory.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of men and women are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person! you shower the choicest words during the sermons, and are well-versed in all sciences. You desire name and fame rightly, are a liberal donor, unite all and endeavor to do good to others. The preachers of Truth, and fair dealing persons consent to industrious and active people like a deer, and uphold all the worships and association with thoughtful persons. So you should also do like the learned couple do always.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The husbands and wives who marry with mutual choice are always active and accomplish all domestic duties quickly like the deer. They accept truth and give up all falsehood because of their association with the learned persons. They adore God and honor the scholars. All men should do likewise.
Foot Notes
(वुषा ) सत्योपदेशशब्दवर्षक: = Showerer of the words of true sermons. (वृषभिः) = With preachers who are showerers of the happiness and bliss.
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