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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 173 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 173/ मन्त्र 13
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒ष स्तोम॑ इन्द्र॒ तुभ्य॑म॒स्मे ए॒तेन॑ गा॒तुं ह॑रिवो विदो नः। आ नो॑ ववृत्याः सुवि॒ताय॑ देव वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षः । स्तोमः॑ । इ॒न्द्र॒ । तुभ्य॑म् । अ॒स्मे इति॑ । ए॒तेन॑ । गा॒तुम् । ह॒रि॒ऽवः॒ । वि॒दः॒ । नः॒ । आ । नः॒ । व॒वृ॒त्याः॒ । सु॒वि॒ताय॑ । दे॒व॒ । वि॒द्याम॑ । इ॒षम् । वृ॒जन॑म् । जी॒रऽदा॑नुम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष स्तोम इन्द्र तुभ्यमस्मे एतेन गातुं हरिवो विदो नः। आ नो ववृत्याः सुविताय देव विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एषः। स्तोमः। इन्द्र। तुभ्यम्। अस्मे इति। एतेन। गातुम्। हरिऽवः। विदः। नः। आ। नः। ववृत्याः। सुविताय। देव। विद्याम। इषम्। वृजनम्। जीरऽदानुम् ॥ १.१७३.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 173; मन्त्र » 13
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे देवेन्द्र य एषोऽस्मे स्तोमोऽस्ति स तुभ्यमस्तु। हे हरिवो त्वमेतेन गातु नोऽस्माँश्च विदः नः सुविताय आ ववृत्या यतो वयमिषं वृजनं जीरदानुं च विद्याम ॥ १३ ॥

    पदार्थः

    (एषः) (स्तोमः) श्लाघा (इन्द्र) प्रशस्तैश्वर्य (तुभ्यम्) (अस्मे) अस्माकम् (एतेन) न्यायेन (गातुम्) भूमिम् (हरिवः) प्रशस्ता हरयोऽश्वा विद्यन्ते यस्य तत्सम्बद्धौ (विदः) लभस्व (नः) अस्मान् (आ) (नः) अस्माकम् (ववृत्याः) वर्त्तेथाः (सुविताय) ऐश्वर्याय (देव) सुखप्रद (विद्याम) प्राप्नुयाम (इषम्) इच्छासिद्धिम् (वृजनम्) सन्मार्गम् (जीरदानुम्) दीर्घञ्जीवनम् ॥ १३ ॥

    भावार्थः

    केनचिद्भद्रेण जनेन स्वमुखेन स्वप्रशंसा नैव कार्य्या परोक्तां स्वप्रशंसां श्रुत्वा न प्रमुदितव्यम्। यथा स्वोन्नतिरिष्येत तथा परोन्नतिः सदैष्टव्येति ॥ १३ ॥।अत्र विद्वद्विषयवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥इति त्रिसप्तत्युत्तरं शततमं सूक्तं पञ्चदशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (देव) सुख देनेवाले (इन्द्र) प्रशंसायुक्त ऐश्वर्यवान् ! जो (एषः) यह (अस्मे) हमारी (स्तोमः) स्तुतिपूर्वक चाहना है वह (तुभ्यम्) तुम्हारे लिये हो। हे (हरिवः) प्रशंसित घोड़ोंवाले ! आप (एतेन) इस न्याय से (गातुम्) भूमि और (नः) हम लोगों को (विदः) प्राप्त हूजिये (नः) हमारे (सुविताय) ऐश्वर्य के लिये (आ, ववृत्याः) आ वर्त्तमान हूजिये जिससे हम लोग (इषम्) इच्छा सिद्धि (वृजनम्) सन्मार्ग और (जीरदानुम्) दीर्घ जीवन को (विद्याम) प्राप्त होवें ॥ १३ ॥

    भावार्थ

    किसी भद्रजन को अपने मुख से अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिये तथा और ने कही हुई अपनी प्रशंसा सुनकर न आनन्दित होना चाहिये अर्थात् न हँसना चाहिये, जैसे अपने से अपनी उन्नति चाही जावे वैसे औरों की उन्नति सदैव चाहनी चाहिये ॥ १३ ॥इस सूक्त में विद्वानों के विषय का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ तिहत्तरवाँ सूक्त और पन्द्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    स्तुति व मार्गदर्शन

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (अस्मे) = हमारा (एषः स्तोमः) = यह स्तवन (तुभ्यम्) = आपके लिए है। हम आपका ही स्तवन करनेवाले हों । हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले प्रभो ! [हरि = अश्व], (एतेन) = इस स्तवन के द्वारा नः हमारे लिए (गातुं विदः) = मार्ग को प्राप्त = कराइए, अर्थात् स्तुति से हमें जीवन मार्ग का ज्ञान हो । 'आप दयालु हैं' इस प्रकार आपकी स्तुति करते हुए हम भी दयालु स्वभाववाले बनें । २. हे (देव) = दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभो! आप (नः) = हमें (सुविताय) = सदा शुभ मार्ग पर चलने के लिए (आववृत्या:) = प्राप्त हों। आपका स्मरण करते हुए ही तो हम शुभ मार्ग पर चलनेवाले होते हैं। हम आपसे (इषम्) = प्रेरणा को (वृजनम्) = पाप के वर्जन को तथा (जीरदानुम्) = दीर्घजीवन को (विद्याम) = प्राप्त करें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें। यह स्तवन हमें मार्गदर्शन कराएगा।

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    विषय

    उत्तम आज्ञापक का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! सेनापते ! राजन् ! ( अरमे ) हमारा ( एषः ) यह ( स्तोमः ) बल, संघ और स्तुतिवचन, ( तुभ्यम् ) तेरे हित के लिये है । ( एतेन ) इससे तू ( नः ) हमारे लिये ( गातुं ) पृथिवी, और सन्मार्ग को ( विदः ) प्राप्त करा । हे ( हरिवः ) अश्व सैन्य के स्वामिन् ! हे (देव) विजयशील ! अन्नदातः ! देव ! राजन् ! तू ( सु विताय ) अपने ऐश्वर्य की वृद्धि, रक्षा और उत्तम प्रयाण के लिये ( नः ) हमें ( आववृत्याः ) सब तरफ भेज । और हम सर्वत्र ( इषं ) उत्तम, अन्न ( वृजनम् ) बल और ( जीरदानुम् ) जीवन या आजीविका देने वाले उपाय को ( विद्याम ) प्राप्त करें । इति पञ्चदशो वर्गः ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ११ पङ्क्तिः । ६, ९, १०, १२ भुरिक पङ्क्तिः। २, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ७, १३ निचृत् त्रिष्टुप । ४ बृहती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कोणत्याही सज्जन माणसाने स्वतः आपली प्रशंसा करू नये तसेच इतरांनी केलेली प्रशंसा ऐकून आनंदित होता कामा नये. आपल्या उन्नतीची जशी इच्छा केली जाते तशी इतरांच्या उन्नतीची इच्छा केली पाहिजे. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of power and glory, thus our song of celebration and prayer is for you. Lord of lightning speed and force, by this song know, recognise and accept us and our ways of life and conduct. Lord of light, kind and generous, come and bless us constantly for our good and well-being so that we may be blest with food and energy, the right way of living and the inspiring spirit of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    One should work for others' progress too.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    This praise, O best in the lot of learned truthful persons! is meant for you. By appropriate dealings, O Master of horses (meaning the senses ) ! you get the land of your choice. O giver of happiness ! come to us in our accrued prosperity. Get us the right path and long life.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    No good person should indulge in self praise, nor he should become self-complacent on hearing his praise. One should desire the advancement of another like that of one's own. (It resembles with the 6th Principle of the Arya Samaj laid down by Swami Dayananda Sarasvati. Ed.)

    Foot Notes

    (गातुम् ) भूमिम् = Land. (सुविताय) ऐश्वर्याय = For the sake of prosperity. (वृजनम् ) सन्मार्गम् = The path of righteousness. (हरिवः) इन्द्रियणि वा मनुष्याः । इन्द्रियाणि हयानाहुः (कठोपनिषदि । ३.४) हर: इति मनुष्यनाम (N.G. 2-3). हरिव: may also mean – O Master of men !

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