ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 173/ मन्त्र 3
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
नक्ष॒द्धोता॒ परि॒ सद्म॑ मि॒ता यन्भर॒द्गर्भ॒मा श॒रद॑: पृथि॒व्याः। क्रन्द॒दश्वो॒ नय॑मानो रु॒वद्गौर॒न्तर्दू॒तो न रोद॑सी चर॒द्वाक् ॥
स्वर सहित पद पाठनक्ष॑त् । होता॑ । परि॑ । सद्म॑ । मि॒ता । यन् । भर॑त् । गर्भ॑म् । आ । श॒रदः॑ । पृ॒थि॒व्याः । क्रन्द॑त् । अश्वः॑ । नय॑मानः । रु॒वत् । गौः । अ॒न्तः । दू॒तः । न । रोद॑सी॒ इति॑ । च॒र॒त् । वाक् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नक्षद्धोता परि सद्म मिता यन्भरद्गर्भमा शरद: पृथिव्याः। क्रन्ददश्वो नयमानो रुवद्गौरन्तर्दूतो न रोदसी चरद्वाक् ॥
स्वर रहित पद पाठनक्षत्। होता। परि। सद्म। मिता। यन्। भरत्। गर्भम्। आ। शरदः। पृथिव्याः। क्रन्दत्। अश्वः। नयमानः। रुवत्। गौः। अन्तः। दूतः। न। रोदसी इति। चरत्। वाक् ॥ १.१७३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 173; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः प्रकारान्तरेणोपदेशविषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यथा होताग्निर्मिता सद्म नक्षच्छरदः पृथिव्या गर्भमाभरत् नयमानोऽश्वइव क्रन्दत्। गौरिव रुवद्दूतो न वागिव वा रोदसी अन्तश्चरत्तथा भवन्तः परियन् ॥ ३ ॥
पदार्थः
(नक्षत्) प्राप्नुयात् (होता) ग्रहीता (परि) सर्वतः (सद्म) सद्मानि स्थानानि (मिता) मितानि (यन्) गच्छेयुः। अत्राडभावः। (भरत्) भरेत् (गर्भम्) (आ) (शरदः) (पृथिव्याः) भूमेः (क्रन्दत्) ह्वयति (अश्वः) तुरङ्ग इव (नयमानः) (रुवत्) शब्दायते (गौः) वृषभ इव (अन्तः) मध्ये (दूतः) समाचारप्रापकः (न) इव (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (चरत्) प्राप्नोति (वाक्) वाणी ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथाऽश्वो गावश्च परिमितं मार्गं गच्छन्ति तथाऽग्निर्नियतं देशं गच्छति यथा धार्मिकाः स्वकीयं वस्तु गृह्णन्ति तथा ऋतवः स्वलिङ्गान्याप्नुवन्ति यथा द्यावापृथिव्यौ सहैव वर्त्तेते तथा विवाहितौ स्त्रीपुरुषौ वर्त्तेयाताम् ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर प्रकारान्तर से उपदेश विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (होता) ग्रहण करनेवाला (मिता) प्रमाणयुक्त (सद्म) घरों को (नक्षत्) प्राप्त होवे वा (शरदः) शरद ऋतु सम्बन्धी (पृथिव्याः) पृथिवी के (गर्भम्) गर्भ को (आ, भरत्) पूरा करता वा (नयमानः) पदार्थों को पहुँचाता हुआ (अश्वः) घोड़े के समान (क्रन्दत्) शब्द करता वा (गौः) वृषभ के समान (रुवत्) शब्द करता वा (दूतः) समाचार पहुँचानेवाले दूत के (न) समान वा (वाग्) वाणी के समान (रोदसी) आकाश और पृथिवी के (अन्तः) बीच (चरत्) विचरता वैसे आप लोग (परि, यन्) पर्यटन करें ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे घोड़ा और गौएँ परिमित मार्ग को जाती हैं, वैसे अग्नि नियत किये हुए देशस्थान को जाता है, जैसे धार्मिक जन अपने पदार्थ लेते हैं, वैसे ऋतु अपने चिह्नों को प्राप्त होते हैं, वा जैसे द्यावापृथिवी एक साथ वर्त्तमान हैं, वैसे विवाह किये हुए स्त्री-पुरुष वर्त्तें ॥ ३ ॥
विषय
अन्तः स्थित दूत के सन्देश को सुनना
पदार्थ
१. (होता) = दानपूर्वक अदन करनेवाला व्यक्ति (सद्म) = ब्रह्मलोकरूप अपने घर को (नक्षत्) = प्राप्त होता है। अब वह [क] (मिता परियन्) = कर्म को माप-तोलकर करता है। गीता के 'युक्तचेष्टस्य कर्मसु' इन शब्दों को अपने जीवन में अनूदित करता है तथा युक्ताहारविहारी तथा युक्तस्वप्नावबोध पुरुष ही प्रभु को पाता है। प्रभु को वह पाता है जोकि [ख] अपने जीवन के वर्षों के अन्त तक (पृथिव्याः गर्भम्) = पृथिवी के गर्भ को- पृथिवी के गर्भ से उत्पन्न होनेवाले पदार्थों को ही (आभरत्) = अपने भरण-पोषण का साधन बनाता है, वानस्पतिक पदार्थों का ही सेवन करता हुआ मांसभोजनों से दूर रहता है। २. यह परिमित आहार-विहारवाला, शाकाहारी पुरुष (क्रन्दद् अश्वः) = प्रभु का आह्वान करनेवाली इन्द्रियोंवाला होता है। यह अपनी इन्द्रियों को अपना-अपना कर्म उत्तमता से करने के द्वारा, प्रभु के पूजन में लगाता है। (नयमानः) = इस प्रकार अपने को उन्नति-पथ पर आगे और आगे ले-चलता है। (रुवत् गौ:) = वेदवाणियों का [गो] उच्चारण करनेवाला [रु] बनता है। (अन्तः दूतः) = अन्तः स्थित प्रभुरूपी दूतवाला होता है, प्रभु से सन्देश प्राप्त करता है और उस सन्देश के अनुसार कार्य करनेवाला बनता है। इन (रोदसी) = द्यावापृथिवीमस्तिष्क व शरीर में (वाक् चरत् न) = इसकी वाणी नहीं चलती रहती, अर्थात् बातें ही न बनाते रहकर – शुष्क तर्क-वितर्क में ही समय को नष्ट न करके - यह सन्देशानुसार कार्य को करने में लगता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम युक्ताहारविहारवाले बनें, वानस्पतिक पदार्थों का ही प्रयोग करें। प्रभु के सन्देश को सुनते हुए उसके अनुसार कार्य में तत्पर हों, उसके विरोध में तर्क-वितर्क न करते रहें ।
विषय
सूर्यवत् भूमि का शासन ।
भावार्थ
जिस प्रकार होता ( मिता सद्म यन् नक्षत् ) परिमित उत्तम गणित विज्ञान और शिल्प विज्ञान के नियमों से मापकर बनाये गये गृह में रहता है और ( पृथिव्याः गर्भम् भरत् ) पृथिवी रूप स्त्री के गर्भ को पूर्ण कर देता है, या पृथ्वी के गर्भ को धन आदि से पूर्ण कर लेता है उसी प्रकार ( होता ) किरणों द्वारा जल को लेने हारा सूर्य ( यन् ) गमन करता हुआ ( मिता सद्म ) परिमित स्थानों में ( नक्षत् ) व्यापता है और ( शरदः ) शरत् अर्थात् वर्ष भर के ( पृथिव्यां ) पृथिवी के ( गर्भम् ) मध्य या भीतरी बीजधारक भाग को अर्थात् मध्य भाग को ( भरत् ) जल से पूर्ण करता है। ( नयमानः अश्वः क्रन्दत् ) जिस प्रकार सवारी को लेजाता हुआ घोड़ा हिनहिनाता है, ( गौः रुवत् ) जिस प्रकार वृषभ हंभारता है ( अन्तः दूतः ) जिस प्रकार राज सभा में दूत अपना संदेश निर्भय होकर कहता है उसी प्रकार ( वाक् ) यह मध्यमावाणी, विद्युत् गर्जना ( रोदसी ) आकाश और भूमि दोनों को (चरत् ) व्यापती है । ( ३ ) इसी प्रकार ( होता ) राष्ट्र की शक्तियों का ग्रहण करने वाला मुख्य अध्यक्ष नये २ उत्तम बने घरों में रहे, पृथिवी को ऐश्वर्य से पूर्ण करे । वह अश्व और वृषभ के समान गर्जे। उसकी आज्ञा वाणी (रोदसी) प्रजा वर्ग और शासक वर्ग या स्वपक्ष परपक्ष, मित्र, शत्रु दोनों पर चले ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ११ पङ्क्तिः । ६, ९, १०, १२ भुरिक पङ्क्तिः। २, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ७, १३ निचृत् त्रिष्टुप । ४ बृहती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे घोडे व गाई नियत मार्गाने जातात तसा अग्नी नियतस्थानी जातो. जसे धार्मिक लोक स्वतःचे पदार्थ घेतात तसे ऋतू आपल्या चिन्हांना प्राप्त करतात. जसे द्युलोक व पृथ्वी बरोबरच आहेत तसे विवाहित स्त्री-पुरुषांनी राहावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the yajakas, Indra, fire and power, divine energy, receiver and giver, receive the oblations and rise by the vedi constructed in definite design and measure, bearing the essences of the earth’s produce the year round according to the seasons, and in return replenish the earth with fertility. Let the power arise and go over spaces roaring like a steed well guided, bellowing like a bull, and moving on the rounds like a messenger between heaven and earth, echoing the voice of divinity raised from the seats of yajna.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of married couples are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The fire holds many attributes. It measures stations of the altar and accepts that oblation which is given in varying seasons. As a horse carrying a rider neighs ; as a bull bellows like a messenger, as the sound pervades the earth and the heaven, similarly you should emulate their qualities.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The horses and bulls or cows go to their destined places; fire reaches to the fixed up points, the righteous persons possess only their own articles and do not misappropriate. Likewise, the varying seasons obtain their own distinctive designs. The earth and the heaven live together inter-connected. So the married people should live together happily and behave lovingly.
Foot Notes
(नक्षत्) प्राप्नुयात् । नक्षति व्याप्तिकर्मा ( N.G. 2-18 ) = Gets or reaches. (गो:) वृषभ इव = Like the bull. (रुवत् ) शब्दायते = Makes noise.
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