ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 173/ मन्त्र 11
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
य॒ज्ञो हि ष्मेन्द्रं॒ कश्चि॑दृ॒न्धञ्जु॑हुरा॒णश्चि॒न्मन॑सा परि॒यन्। ती॒र्थे नाच्छा॑ तातृषा॒णमोको॑ दी॒र्घो न सि॒ध्रमा कृ॑णो॒त्यध्वा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञः । हि । स्म॒ । इन्द्र॑म् । कः । चि॒त् । ऋ॒न्धन् । जु॒हु॒र्ता॒णः । चि॒त् । मन॑सा । प॒रि॒ऽयन् । ती॒र्थे । न । अच्छ॑ । त॒तृ॒षा॒णम् । ओकः॑ । दी॒र्घः । न । सि॒ध्रम् । आ । कृ॒णो॒ति॒ । अध्वा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञो हि ष्मेन्द्रं कश्चिदृन्धञ्जुहुराणश्चिन्मनसा परियन्। तीर्थे नाच्छा तातृषाणमोको दीर्घो न सिध्रमा कृणोत्यध्वा ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञः। हि। स्म। इन्द्रम्। कः। चित्। ऋन्धन्। जुहुराणः। चित्। मनसा। परिऽयन्। तीर्थे। न। अच्छ। ततृषाणम्। ओकः। दीर्घः। न। सिध्रम्। आ। कृणोति। अध्वा ॥ १.१७३.११
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 173; मन्त्र » 11
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पूर्वोक्तं विषयमाह ।
अन्वयः
कश्चिद्यज्ञो हि ष्मेन्द्रमृन्धन्मनसा जुहुराणश्चित्परियँस्तीर्थे न स्थानेऽच्छ ततृषाणं दीर्घ ओको नाध्वरूपः सिध्रमा कृणोति ॥ ११ ॥
पदार्थः
(यज्ञः) राजधर्माख्यः (हि) (स्म) एव (इन्द्रम्) (कः) (चित्) अपि (ऋन्धन्) वर्द्धमानः सन् (जुहुराणः) दुष्टेषु कुटिलः (चित्) इव (मनसा) (परियन्) परितः सर्वतः प्राप्नुवन् (तीर्थे) जलाशये (न) इव (अच्छ) सम्यक्। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (ततृषाणम्) भृशं तृषितम् (ओकः) गृहम् (दीर्घः) बृहत् (न) इव (सिध्रम्) शीघ्रताम् (आ) (कृणोति) करोति (अध्वा) सन्मार्गरूपः ॥ ११ ॥
भावार्थः
पूर्वमन्त्रे शीघ्रतररक्षाभिकाङ्क्षिणो विपश्चितः शासनादियज्ञैः पूर्पतिं राजानमुपशिक्षन्तीति यदुक्तम् तत्र यज्ञतः शीघ्रभावमुपदिशन्नाह। (यज्ञोहीति०) अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ—यदि सुखं वर्द्धयितुमिच्छेयुस्तर्हि सर्वे धर्ममाचरन्तु यदि परोपकारं कर्त्तुमिच्छेयुस्तर्हि सत्यमुपदिशन्तु ॥ ११ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पूर्वोक्त विषय को विशद करते हुए अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(कश्चित्) कोई (यज्ञः) राजधर्म (हि, ष्म) निश्चय से ही (इन्द्रम्) सभापति को (ऋन्धन्) उन्नति देता वा (मनसा) विचार के साथ (जुहुराणः) दुष्टजनों में कुटिल किया अर्थात् कुटिलता से वर्त्ता (चित्) सो (परियन्) सब ओर से प्राप्त होता हुआ (तीर्थे) जलाशय के (न) समान स्थान में (अच्छ) अच्छे (ततृषाणम्) निरन्तर पियासे को (दीर्घः) बड़ा (ओकः) स्थान जैसे मिले (न) वैसे (अध्वा) सन्मार्गरूप हुआ (सिध्रम्) शीघ्रता को (आ, कृणोति) अच्छे प्रकार करता है ॥ ११ ॥
भावार्थ
पूर्व मन्त्र में अति शीघ्रता से रक्षा चाहते हुए विद्वान् बुद्धिमान् जन शिक्षा करना रूप आदि यज्ञों से अपनी पुरी नगरी के पालनेवाले राजा को समीप जाकर शिक्षा देते हैं, यह जो विषय कहा था, वहाँ यज्ञ से शीघ्रता का उपदेश करते हुए (यज्ञो हि०) इस मन्त्र का उपदेश करते हैं। इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं—जो सुख के बढ़ाने की इच्छा करें तो सब धर्म का आचरण करें और जो परोपकार करने की इच्छा करें तो सत्य का उपदेश करें ॥ ११ ॥
विषय
यज्ञशीलता न कि कुटिलता
पदार्थ
१. इस संसार में (कश्चित्) = कोई एक (यज्ञ:) = यज्ञशील पुरुष [यज्ञः अस्य अस्तीति यज्ञः] (हि ष्म) = निश्चय से (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (ऋन्धन्) = [to please] प्रीणित करनेवाला होता है। यज्ञों के द्वारा प्रभु का उपासन करनेवाला बनता है 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः ' । २. इसके विपरीत (जुहुराण:) = कुटिलता करता हुआ (चित्) = निश्चय से (मनसा) = मन से (परियन्) = चारों ओर भटकनेवाला होता है। यह मन में सदा अशान्त रहता है। नाना प्रकार के षड्यन्त्रों को करता हुआ यह (मानस) = शान्ति को प्राप्त नहीं करता। यज्ञशील के लिए तो प्रभु इस प्रकार होते हैं (न) = जैसे कि (तातृषाणम्) = प्यास से व्याकुल पुरुष को (तीर्थे) = घाट पर (अच्छ) = आभिमुख्येन-सामने ही (ओकः) = शरणस्थान प्राप्त हो जाता है। इसके विपरीत (न सिध्रम्) = [not pious or virtuous man] अधार्मिक कुटिल वृत्तिवाले पुरुष को (दीर्घः अध्वा) = यह लम्बा बीहड़ मार्ग (आकृणोति) = [hurt, kill] नष्ट कर डालता है। कुटिल पुरुष भटकता- भटकता ही मर जाता है, उसे शान्ति प्राप्त नहीं होती ।
भावार्थ
भावार्थ- हम यज्ञशील बनें, न कि कुटिल ।
विषय
यज्ञ, परस्पर संगति राष्ट्र को समृद्ध करती है, कुटिलता, सदा हानिकारक है ।
भावार्थ
( कश्चित् ) कोई ही उत्तम ( यज्ञः ) परस्पर संगति योग्य या बड़ादानशील सहयोगी या राजधर्म (हिस्य) निश्चय से ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान् राजा को (ऋन्धन्) समृद्ध कर देता है। और कोई दूसरा ( मनसा ) चित्त से ( जुहुराणः ) कुटिलता करता हुआ ( परियन् ) इधर उधर भटक जाता है ( न ) जिस प्रकार ( ओकः ) कोई स्थान ( तीर्थे ) घाट में ( तातृषाणम् ) पियासे को भी ( अच्छ ) भली प्रकार उसे प्राप्त होकर उसकी प्यास बुझा देता है और ( न ) जैसे कोई कोई ( दीर्घः अध्वा ) लम्बा रास्ता भी ( सिद् ध्रम् ) जाने वाले पथिक को ( आ कृणोति ) इधर उधर कर देता, सब तरफ घुमाया करता है । ( २ ) इसी प्रकार कोई आत्मा या परमेश्वर की उपासना का साधन इन्द्र को बढ़ा देता अर्थात् इन्द्र के समृद्ध रूप को प्रकट कर देता है और मन से कुटिल सदा इधर उधर भटकता है। तीर्थ में कोई स्थान सुगमता से प्यासे की प्यास बुझा देता है और लम्बा रास्ता यात्री को भटका देता है । इसलिये उपासना से ही आनन्द धाम प्रभु को पावे, मिथ्या व्यभिचारी चित्त से उसको न ध्यावे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ११ पङ्क्तिः । ६, ९, १०, १२ भुरिक पङ्क्तिः। २, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ७, १३ निचृत् त्रिष्टुप । ४ बृहती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
पूर्वीच्या मंत्रात अत्यंत शीघ्रतेने रक्षण करणारे विद्वान, बुद्धिमान लोक शिक्षण देणे इत्यादी आपल्या संपूर्ण नगरीचे पालन करणाऱ्या राजाला यज्ञाद्वारे शिक्षण देतात हा विषय सांगितलेला होता. तेथे यज्ञाने शीघ्रतेचा उपदेश करीत (यज्ञोहि. ) या मंत्राचा उपदेश करतात. या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे सुख वाढावे अशी इच्छा बाळगतात त्यांनी धर्माचे आचरण करावे व जे परोपकार करण्याची इच्छा बाळगतात त्यांनी सत्याचा उपदेश करावा. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Some yajna is good for success and glorifies Indra, social order of governance and the ruler. A tortuous path, though apparently yajnic and good, repels the seeker mentally and emotionally. A good home close by in a place of pilgrimage is good for the thirsty traveller, but a long and tortuous path is no use, it does no good toward success.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The means of happiness are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
It is the Yajna in the form of the discharge of the duties by a ruler. It augments his power and makes him to advance. It includes to be harsh and strict sometime to a wicked person, in order to treat him with a lesson. This step is like a lake to a thirsty person near a pious spot. The treading upon the right path may be a long path, but is an easy and quick than a sinful long path.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
For greater happiness, all people should tread upon the path of righteousness. If men desire to perform benevolent deeds, they should practice and preach the Truth.
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