ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 191/ मन्त्र 10
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अबोषधिसूर्याः
छन्दः - निचृद्ब्राह्म्यनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
सूर्ये॑ वि॒षमा स॑जामि॒ दृतिं॒ सुरा॑वतो गृ॒हे। सो चि॒न्नु न म॑राति॒ नो व॒यं म॑रामा॒रे अ॑स्य॒ योज॑नं हरि॒ष्ठा मधु॑ त्वा मधु॒ला च॑कार ॥
स्वर सहित पद पाठसूर्ये॑ । वि॒षम् । आ । स॒जा॒मि॒ । दृति॑म् । सुरा॑ऽवतः । गृ॒हे । सः । चि॒त् । नु । न । म॒रा॒ति॒ । नो इति॑ । व॒यम् । म॒रा॒म॒ । आ॒रे । अ॒स्य॒ । योज॑नम् । ह॒रि॒ऽस्थाः । मधु॑ । त्वा॒ । म॒धु॒ला । च॒का॒र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सूर्ये विषमा सजामि दृतिं सुरावतो गृहे। सो चिन्नु न मराति नो वयं मरामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार ॥
स्वर रहित पद पाठसूर्ये। विषम्। आ। सजामि। दृतिम्। सुराऽवतः। गृहे। सः। चित्। नु। न। मराति। नो इति। वयम्। मराम। आरे। अस्य। योजनम्। हरिऽस्थाः। मधु। त्वा। मधुला। चकार ॥ १.१९१.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 191; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सूर्यमण्डलविषहरणविषयमाह ।
अन्वयः
अहं सुरावतो गृहे दृतिमिव सूर्ये विषमासजामि सोचिन्नु न मराति नो वयं मराम अस्य योजनमारे भवति। हे विषधारिन् हरिष्ठास्त्वा त्वां मधु चकार। एषा मधुलास्य विषहरणा मधुविद्यास्ति ॥ १० ॥
पदार्थः
(सूर्ये) सवितरि (विषम्) (आ) (सजामि) संयुनज्मि (दृतिम्) चर्ममयसुरापात्रमिव (सुरावतः) सवं कुर्वतः (गृहे) (सः)। अत्र वाच्छन्दसीति सुलोपो नाप्राप्तमप्युत्वम्। (चित्) अपि (नु) (न) (मराति) म्रियेत (नो) (वयम्) (मराम) म्रियेमहि (आरे) दूरे (अस्य) (योजनम्) (हरिष्ठाः) यो हरौ विषहरणे तिष्ठति सः (मधु) (त्वा) त्वाम् (मधुला) मधुविद्या मधु लात्याददाति सा (चकार) करोति ॥ १० ॥
भावार्थः
यत्सूर्यप्रकाशस्य रोगनिवारकस्य संयोगेन विषहरा महौषधिभिर्विषं निवारयन्ति मधुरत्वं च संपादयन्ति तदेतत्सूर्यविध्वंसकरं न भवति ते च दीर्घायुषो भवन्ति ॥ १० ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर सूर्य के प्रसङ्ग से विषहरण विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
मैं (सुरावतः) सुरा खींचनेवाले शूण्डिया कलार के (गृहे) घर में (दृतिम्) चाम का सुरापात्र जैसे हो वैसे (सूर्ये) सूर्यमण्डल में (विषम्) विष का (आ, सजामि) आरोपण करता हूँ (सः, चित्, नु) वह भी (न, मराति) नहीं मारा जाय और (नो) न (वयम्) हम लोग (मराम) मारे जावें (अस्य) इस विष का (योजनम्) योग (आरे) दूर होता है। हे विषधारी ! (हरिष्ठाः) जो हरण में अर्थात् विषहरण में स्थिर है, विषहरण विद्या जानता है वह (त्वा) तुझे (मधु) मधुरता को प्राप्त (चकार) करता है यह (मधुला) इसकी मधुरता को ग्रहण करनेवाली विषहरण मधुविद्या है ॥ १० ॥
भावार्थ
जो रोगनिवारक सूर्य के प्रकाश के संयोग से विषहरी वैद्यजन बड़ी-बड़ी ओषधियों से विष को दूर करते हैं और मधुरता को सिद्ध करते हैं, सो यह सूर्य का विध्वंस करनेवाला काम नहीं होता और वे विष हरनेवाले भी दीर्घायु होते हैं ॥ १० ॥
विषय
सूर्य में विष का मधु बन जाना
पदार्थ
१. (सूर्ये) = सूर्य में (विषम्) = विष को (आसजामि) = आसक्त करता हूँ जैसे (सुरावत:) = शराब निकालनेवाले के (गृहे) = घर में (दृतिम्) = चर्मपात्र को । सुरावान् के घर में सुरापात्र बुरा नहीं लगता, इसी प्रकार सूर्यकिरणों में स्थापित विष अशोभन नहीं। सूर्यकिरणें प्राणिशरीर से विष को खेंचकर अपने में स्थापित करती हैं, उनपर विष का घातक प्रभाव नहीं होता। २. (सः) = वह सूर्य-विष का आदान करनेवाला आदित्य (चित् नु) = निश्चय से (न मराति) = इस विष के कारण मरता नहीं। (वयम्) = हम भी नो (मराम) = मरने से बच जाते हैं। (अस्य) = इस विष का (योजनम्) = सम्पर्क आरे हमसे दूर हो जाता है। (हरिष्ठाः) - विष का अपहरण करनेवाली किरणों का अधिष्ठाता [हरि-स्था] यह सूर्य हे विष ! (त्वा) = तुझे (मधु चकार) = मधु बना देता है। यही मधुलासूर्यकिरणों में विष को संसक्त कर उसे अमृत बना देना ही मधु को प्राप्त करानेवाली 'मधुविद्या' है।
भावार्थ
भावार्थ- सूर्यकिरणों में स्थापित विष विष नहीं रहता, वह अमृत हो जाता है।
विषय
विष वैद्य के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(सुरावतः) सुरा अर्थात् आसव बनाने वाले के घर में (दृतिं) पात्र जिस प्रकार रखा रहता है और उसमें भाप बना आसव बूंद २ टपकता, है, उसी में सब समाता जाता है उसी प्रकार मैं भी (विषम्) विष को (सूर्ये) सूर्य में ( आ सजामि ) विलीन करता जाऊं (सो चित्) वह जिस प्रकार (न मराति) नहीं नष्ट होता और (नो वयं मराम) न हम ही प्राण त्याग करते हैं । ( अस्य योजनं ) इसका लगाना विष को ( आरे ) दूर करता है । ( हरिष्ठाः ) विष हरने के कार्य में यह पदार्थ बड़ा उपयोगी होकर हे पुरुष ! या हे विष ! (त्वा) तुझको भी (मधु चकार) मधुर, सह्य कर देता है। इसी प्रकार हे मनुष्य रोगिन् ! (मधुला) यह मधु देने वाली ओषधि या यह विष वैद्य भी तुझे सुख दे । इति पञ्चदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अबोषधिसूर्या देवताः॥ छन्द:– १ उष्णिक् । २ भुरिगुष्णिक्। ३, ७ स्वराडुष्णिक्। १३ विराडुष्णिक्। ४, ९, १४ विराडनुष्टुप्। ५, ८, १५ निचृदनुष्टुप् । ६ अनुष्टुप् । १०, ११ निचृत् ब्राह्मनुष्टुप् । १२ विराड् ब्राह्म्यनुष्टुप । १६ भुरिगनुष्टुप् ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे वैद्य लोक रोगनिवारक सूर्यप्रकाशाच्या संयोगाने महौषधीद्वारे विष दूर करतात व मधुरता (मधुविद्या) सिद्ध करतात त्यामुळे हे सूर्याचा विध्वंस करणारे काम नसते व ते विष नष्ट करणारेही दीर्घायू होतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as liquor is contained in the cask in the house of a liquor maker, so do I collect the earth’s poison and evaporate it to join the sun so that neither the sun would die nor would we, since the poison would join the far away sun which would drink it up. O poison, then the honey sweet chemistry of nature may turn you to nectar honey.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Removal of poison by the solar energy is underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I deposit the poison in the solar orb, like a leather bottle in the house of a vendor of spirits. Verily, the sun does not thus lose its existence. Nor, shall we die as the sun puts the poison far away. The science of antidotes converts the poison into nectar.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The removers of poison ! remove the effect of the poison by the use of drugs and with the combination of the rays of the sun. Sun rays are the best anti-toxic and they cure many diseases and they generate sweetness. This does not in any way harm the sun. The persons who know the science of antidotes become long lived.
Foot Notes
(हरिष्ठाः ) यो हरी विषहरणे तिष्ठति सः = The sun or the Vaidya who removes the effect of the poison. (मधुला) मधुविद्या मधुलाति आददाति सा । = The science of sweetness that removes the effect of poison (Toxicology).
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