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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 191 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 191/ मन्त्र 15
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - अबोषधिसूर्याः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    इ॒य॒त्त॒कः कु॑षुम्भ॒कस्त॒कं भि॑न॒द्म्यश्म॑ना। ततो॑ वि॒षं प्र वा॑वृते॒ परा॑ची॒रनु॑ सं॒वत॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒य॒त्त॒कः । कु॒षु॒म्भ॒कः । त॒कम् । भि॒न॒द्मि॒ । अश्म॑ना । ततः॑ । वि॒षम् । प्र । व॒वृ॒ते॒ । परा॑चीः । अनु॑ । स॒म्ऽवतः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयत्तकः कुषुम्भकस्तकं भिनद्म्यश्मना। ततो विषं प्र वावृते पराचीरनु संवत: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इयत्तकः। कुषुम्भकः। तकम्। भिनद्मि। अश्मना। ततः। विषम्। प्र। ववृते। पराचीः। अनु। सम्ऽवतः ॥ १.१९१.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 191; मन्त्र » 15
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    य इयत्तकः कुषुम्भको विषयुक्तोऽस्ति तकमश्मनाऽहं भिनद्मि ततो विषं तत्परित्यज्य संवतः पराचीरनुलक्ष्य प्रवावृते ॥ १५ ॥

    पदार्थः

    (इयत्तकः) कुत्सितस्सः (कुषुम्भकः) अल्पः कुषुम्भो नकुलः। अत्रोभयत्र कन् प्रत्ययः। (तकम्) तम्। अत्राऽकच् प्रत्ययः। (भिनद्मि) पृथक् करोमि (अश्मना) विषहरेण पाषाणेन (ततः) तस्मात् (विषम्) (प्र) (वावृते) प्रवर्त्तते (पराचीः) याः परागञ्चन्ति ताः (अनु) अनुलक्ष्य (संवतः) विभागवत्यः ॥ १५ ॥

    भावार्थः

    ये पुरुषा विषहरै रत्नैर्विषं निवारयन्ति ते विषजरोगान् निहत्य बलिष्ठा भूत्वा शत्रुभूतान् रोगान् विजयन्ते ॥ १५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (इयत्तकः) मैला, कुचैला, निन्द्य (कुषुम्भकः) छोटा सा नकुल विषयुक्त है (तकम्) उस दुष्ट को (अश्मना) विष हरनेवाले पत्थर से मैं (भिनद्मि) अलग करता हूँ (ततः) इस कारण (विषम्) उस विष को छोड़ (संवतः) विभागवाली (पराचीः) जो परे दूर प्राप्त होतीं उन दिशाओं को (अनु) पीछा लखि (प्र, वावृते) प्रवृत्त होता है उनसे भी निकल जाता है ॥ १५ ॥

    भावार्थ

    जो पुरुष विष हरनेवाले रत्नों से विष को निवृत्त करते हैं, वे विष से उत्पन्न हुए रोगों को मार बली होकर शत्रु-भूत रोगों को जीतते हैं ॥ १५ ॥

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    विषय

    नकुल का पाषाण द्वारा भेदन

    पदार्थ

    १. (इयत्तकः) = कुत्सित इयत्तावाला-अल्पप्रमाण यह (कुषुम्भकः) = नकुल [नेवला] है। (तकम्) = उसको (अश्मना) = पत्थर से (भिनद्मि) = विदीर्ण करता हूँ । २. (ततः) = विदीर्ण करने पर उस नेवले से (संवतः) = संविभागवाली (पराची:) = दूर-दूर तक जानेवाली इन दिशाओं को (अनु) = लक्ष्य करके विषं प्रवावृते विष प्रवृत्त होता है। यह विष दिशाओं में बह जाता है, मेरी ओर नहीं आता।

    भावार्थ

    भावार्थ - नेवले को पत्थर से विदीर्ण करने पर उसका विष विविध दिशाओं में बह जाता है-

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    विषय

    विष चिकित्सा

    भावार्थ

    (कुसुम्भकः) वहने वाला भी (इयत्तकः) इतना छोटा सा होता है। (तर्क अश्मना भिनद्मि) उसके विष के प्रस्तर या शस्त्र से छेद दूं । (ततः) उससे (विषम्) विष (पराचीः संवतः अनु) दूर २ तक जाने वाली धाराओं में ( प्र वावृते ) फूट निकलता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ अबोषधिसूर्या देवताः॥ छन्द:– १ उष्णिक् । २ भुरिगुष्णिक्। ३, ७ स्वराडुष्णिक्। १३ विराडुष्णिक्। ४, ९, १४ विराडनुष्टुप्। ५, ८, १५ निचृदनुष्टुप् । ६ अनुष्टुप् । १०, ११ निचृत् ब्राह्मनुष्टुप् । १२ विराड् ब्राह्म्यनुष्टुप । १६ भुरिगनुष्टुप् ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे पुरुष विष नष्ट करणाऱ्या रत्नापासून विष नाहीसे करतात ते विषाने उत्पन्न झालेल्या रोगांना मारून बलवान होऊन शत्रू-भूत रोगांना जिंकतात. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The little mongoose coming down from the mountains tells me that the taste of the scorpion’s poison is dull. For this reason, on this expansive and practical basis I say, the poison of the scorpion is tasteless.$Note: The mantras in this Sukta point to the possibilities of isolating all poisons, bacteria and viruses that cause disease. They also suggest the preparation of antidotes from those very poisons, bacteria and viruses. They also point out to the fact that in natural evolution poison and nectar are coexistent carriers of death and life. They are contradictory effects of the same one cause, but they can be converted into two complementary substances through chemical process — since all contradictions in nature are apparent, but essentially they are all complementary.$The term ‘Madhula’ is suggestive of this chemical process in nature itself. Swami Dayanand interprets it as the science of converting poison into nectar for our purposes. Elsewhere as in Sayana or in Kaushika Sutra or by Satavalekara it is interpreted as a herb, which too is true. There is a herb on the hills, for example, the touch of which bites as scorpion, giving a burning poisonous sensation all over the body, for which reason it is called the scorpion herb. And immediately close to it is another herb the juice of which turns the burning sensation into a soothing sweet feeling.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Importance of toxicologists described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May the insignificant mongoose having poison in its system carry off your venom. I will strike the vile creature with a gem stone which removes the poison. Let the poison release my body, as well as of other beings.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The persons who remove the poison with gems that carry off the effects of toxic and cure the toxic diseases. Being mighty, such people conquer their foes — the various diseases.

    Foot Notes

    (कुषुम्भकः ) अल्पः कुषुम्भो नकुलः | अत्नोभयत्न कन् प्रत्ययः । = Small or insignificant mongoose. ( अश्मना) विषहरेण पाषाणेन | = From a stone in the form of a gem that removes poison.

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