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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 46/ मन्त्र 10
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अभू॑दु॒ भा उ॑ अं॒शवे॒ हिर॑ण्यं॒ प्रति॒ सूर्यः॑ । व्य॑ख्यज्जि॒ह्वयासि॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अभू॑त् । ऊँ॒ इति॑ । भाः । ऊँ॒ इति॑ । अं॒शवे॑ । हिर॑ण्यम् । प्रति॑ । सूर्यः॑ । वि । अ॒ख्य॒त् । जि॒ह्वया॑ । असि॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभूदु भा उ अंशवे हिरण्यं प्रति सूर्यः । व्यख्यज्जिह्वयासितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभूत् । ऊँ इति । भाः । ऊँ इति । अंशवे । हिरण्यम् । प्रति । सूर्यः । वि । अख्यत् । जिह्वया । असितः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 46; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 34; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    (अभूत्) भवति। अत्र लङर्थे लुङ्। (उ) वितर्के (भा) या भाति प्रकाशयति (उ) (अंशवे) पदार्थानां किरणानां वेगाय (हिरण्यम्) सुवर्णादिकं (प्रति) प्रतीतार्थे (सूर्य्यः) सविता (वि) विविधार्थे (अख्यत्) प्रसिद्धतया प्रकाशेत (जिह्वया) रसनेन्द्रियेणेव किरणज्वालासमूहेन (असितः) अबद्धः ॥१०॥

    अन्वयः

    तदुत्तरमाह।

    पदार्थः

    हे शिल्पिनौ ! युवां यथाऽसितो भाः सूर्य्योऽशवे जिह्वयेवाख्यत् सन्मुखोऽभूत्तथा तत्सन्निधौ तद्यानां स्थापयित्वा तत्रोचितस्थाने हिरण्यं ज्योतिः सुवर्णादिकं रक्षेत् ॥१०॥

    भावार्थः

    हे यानयायिनो मनुष्या ! यूयं ध्रुवयन्त्रसूर्य्यादिनिमित्तेन दिशो विज्ञाय यानानि चालयत स्थापयत च यतो भ्रान्त्याऽन्यत्र गमनं न स्यात् ॥१०॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    इस विषय का उत्तर अगले मन्त्र मे कहा है।

    पदार्थ

    हे कारीगरो ! तुम लोग जैसे (असितः) अबद्ध अर्थात् जिसका किसी के साथ बन्धन नहीं है (भाः) प्रकाशयुक्त (सूर्य्यः) सूर्य्य के (अंशवे) किरणों के विभागार्थ (जिह्वया) जीभ के समान (व्यख्यत्) प्रसिद्धता से प्रकाशमान सन्मुख (अभूत्) होता है वैसे उसी पर यान का स्थापन कर उसमें उचित स्थान में (हिरण्यम्) सुवर्णादि उत्तम पदार्थों को धरो ॥१०॥

    भावार्थ

    हे सवारी पर चलने वाले मनुष्यो ! तुम दिशाओं के जाननेवाले चुम्बक ध्रुव यंत्र और सूर्यादि कारण से दिशाओं को जान यानों को चलाओ और ठहराया भी करो जिससे भ्रान्ति में पड़कर अन्यत्र गमन न हो, अर्थात् जहां जाना चाहते हो ठीक वहीं पहुँचो भटकना न हो ॥१०॥

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    विषय

    ब्रह्मदर्शन किसे ?

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि (उ) - निश्चय से (अंशवे) - [one who divides] जो बाँटकर खाता है, उसके लिए (भाः) - ज्ञान की दीप्ति (अभूत् उ) - होती है । ज्ञानप्राप्ति के लिए सबसे प्रथम साधन 'बाँटकर खाना' है । असुर वे हैं जो स्वयं सारा खा जाते हैं, 'स्वेष्वास्येषु जुह्वतश्चेरुः' अपने ही मुखों में आहुति देते हुए विचरते हैं । इसके विपरीत 'देव' देनेवाले होते हैं । देवों को ही ज्ञान - ज्योति प्राप्त होती है, असुरों को नहीं । 
    २. (सूर्यः) - [सरति] जो निष्कामभाव से अपने नियत कर्मों के पालन में तत्पर रहते हैं, कभी अकर्मण्य नहीं होते, वे ही व्यक्ति (हिरण्यं प्रति) - हितरमणीय ज्ञान के प्रति अग्रसर होते हैं । ज्ञानप्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम सूर्य की भांति क्रियाशील हों, कभी अकर्मण्य न हो जाएँ । 
    ३. (जिह्वया अ - सितः) - जो पुरुष जिह्वा से बद्ध नहीं है, अर्थात् जिसे जिह्वा का व्यसन नहीं लगा, वही व्यक्ति (व्यख्यत्) - [प्रकाशितवान्] अपने हृदयदेश में उस प्रभु को प्रकाशित करता है । इन्द्रियों के व्यसनों से ऊपर उठा हुआ मनुष्य ही प्रभु के प्रकाश को देख पाता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञानप्राप्ति व ब्रह्मदर्शन का अधिकारी वह होता है जो [क] बाँटकर खाता है, यज्ञशेष का सेवन करता है, [ख] निष्कामभाव से कर्तव्यकर्म में लगा रहता है, तथा [ग] जिसे जिह्वा का चस्का नहीं लगा, अर्थात् जो जितेन्द्रिय है । 
     

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    विषय

    ताल और प्रतिक्षेपक द्वारा अग्नि उत्पन्न करने की विधि ।

    भावार्थ

    जब (सूर्यः) सूर्य का प्रकाश (हिरण्यं प्रति) सुवर्ण के समान धातु के बने दीप्ति युक्त पदार्थ पर पड़ता है तब (भाः) दीप्ति (अंशवे) किरणपुंज के रूप में प्रकट होतीं हैं और (असितः) काठ आदि के आश्रय रूप बन्धन से रहित, अग्नि (जिह्वया) ज्वाला रूप से (वि अख्यत्) प्रकट होता है। इस स्थल पर ‘हिरण्य’ प्रक्षेपक नतोदर दर्पण है। ‘अंशु’ का अर्थ फोकस है। जब सूर्य नतोदरदर्पण पर पड़ता है तब सूर्य की दीप्ति फोकस पर झुकती है। वहां अग्नि प्रकट होता है। वह अग्नि काष्ठ आदि पदार्थों में बद्ध न होने से ‘असित’ कहाता है। वह तीव्र ज्वाला या ‘जिह्वा’ या किरणों के शंकु के रूप में ही होता है। महर्षि दया० ने स्पष्ट लिखा है। (असितः भाः सूर्यः अंशवे जिह्वया इव अख्यत्) बिना बन्धन का दीप्ति रूप सूर्य प्रकाश अंशु के स्थानमें जिह्वा के रूप में प्रकट होता है। इसलिए सूर्य के सन्मुख ही अपना सुवर्ण आदि धातु का बना दर्पण पदार्थ उचित स्थान पर रक्खे। प्रथम मन्त्र में प्रश्न था कि सूर्य की किरणें अपना रूप कहां प्रकट करती हैं इसका इस मन्त्र में उत्तर स्पष्ट हो गया। इति चतुखिशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१५ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्द—१, १० विराड्गायत्री । ३, ११, ६, १२, १४ गायत्री । ५, ७, ९, १३, १५, २, ४, ८ निचृद्गायत्री ॥

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    विषय

    इस विषय का उत्तर इस मन्त्र मे कहा है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे शिल्पिनौ ! युवां यथा असितः भाः सूर्य्यः अशवे जिह्वया इव अख्यत् सन्मुखः अभूत् तथा तत् सन्निधौ तत् यानां स्थापयित्वा तत्र उचितस्थाने हिरण्यं ज्योतिः सुवर्णादिकं रक्षेत् ॥१०॥

    पदार्थ

    हे (शिल्पिनौ)= शिल्पियों ! (युवाम्)=तुम दोनों, (यथा)=जैसे, (असितः) अबद्धः= बंधनमुक्त अवस्था में, (भा) या भाति प्रकाशयति=जिसे प्रकाशित करते हो, ऐसा (सूर्य्यः) सविता=सूर्य, (अशवे) पदार्थानां किरणानां वेगाय = पदार्थों और किरणों के वेग के लिये, (जिह्वया) रसनेन्द्रियेणेव किरणज्वालासमूहेन=जिह्वा के समान ज्वाला की किरणों के समूह, (इव)=जैसे, (अख्यत्) प्रसिद्धतया प्रकाशेत=प्रसिद्ध रूप से प्रकाशित करे, [और] (सन्मुखः) =सामने, (अभूत्) भवति=होता है, (तथा)=वैसे ही, (तत्)=उस, (सन्निधौ)=समीप के, (तत्)=उस, (यानाम्)=यान को, (स्थापयित्वा)= स्थापित करके, (तत्र)=वहाँ, (उचितस्थाने)= उचित स्थान में, (हिरण्यम्) सुवर्णादिकम्=सुवर्ण आदि, (ज्योतिः)=प्रकाश की, (रक्षेत्)=रक्षा करो॥१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    हे यान पर यात्रा करनेवाले मनुष्यो ! तुम सब ध्रुव यंत्र आदि की सहायता से सूर्य आदि दिशाओं को जान करके यानों को चलाओ और ठहराओ। और जिससे भ्रान्ति होने पर अन्य किसा श्थान पर जाना न होवे ॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (शिल्पिनौ) शिल्पियों ! (युवाम्) तुम दोनों (यथा) जैसे (असितः) बंधनमुक्त अवस्था में, (भा) जिससे प्रकाश होता है, ऐसा (सूर्य्यः) सूर्य, (अशवे) पदार्थों और किरणों के वेग के लिये, (जिह्वया) जिह्वा के समान ज्वाला की किरणों के समूह, (इव) जैसे (अख्यत्) प्रसिद्ध रूप से प्रकाशित करे [और] (सन्मुखः) सामने (अभूत्) होता है, (तथा) वैसे ही (तत्) उस (सन्निधौ) समीप के, (तत्) उस (यानम्) यान को (स्थापयित्वा) स्थापित करके (तत्र) वहाँ (उचितस्थाने) उचित स्थान में (हिरण्यम्) सुवर्ण आदि के (ज्योतिः) प्रकाश की (रक्षेत्) रक्षा करो॥१०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अभूत्) भवति। अत्र लङर्थे लुङ्। (उ) वितर्के (भा) या भाति प्रकाशयति (उ) (अंशवे) पदार्थानां किरणानां वेगाय (हिरण्यम्) सुवर्णादिकं (प्रति) प्रतीतार्थे (सूर्य्यः) सविता (वि) विविधार्थे (अख्यत्) प्रसिद्धतया प्रकाशेत (जिह्वया) रसनेन्द्रियेणेव किरणज्वालासमूहेन (असितः) अबद्धः ॥१०॥ विषयः- तदुत्तरमाह। अन्वयः- हे शिल्पिनौ ! युवां यथाऽसितो भाः सूर्य्योऽशवे जिह्वयेवाख्यत् सन्मुखोऽभूत्तथा तत्सन्निधौ तद्यानां स्थापयित्वा तत्रोचितस्थाने हिरण्यं ज्योतिः सुवर्णादिकं रक्षेत् ॥१०॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे यानयायिनो मनुष्या ! यूयं ध्रुवयन्त्रसूर्य्यादिनिमित्तेन दिशो विज्ञाय यानानि चालयत स्थापयत च यतो भ्रान्त्याऽन्यत्र गमनं न स्यात् ॥१०॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे वाहनात बसणाऱ्या माणसांनो ! तुम्ही दिशांना जाणणाऱ्या चुंबक, ध्रुवयंत्र व सूर्य इत्यादीद्वारे दिशांना जाणून घ्या. याने चालवा व थांबवा. ज्यामुळे भ्रमित न होता इतरत्र जाणार नाही. अर्थात जिथे जाऊ इच्छिता ठीक तिथेच पोचा, भटकू नका. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The light is for collection in focus. Sunlight so collected is an image of gold. And so collected and focussed, the light, otherwise free, uncontrolled and undirected, burns like a tongue of fire (as power).

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    Subject of the mantra

    There is the answer to this subject in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (śilpinau) =craftsmen, (yuvām) =both of you, (yathā) =like, (asitaḥ)=in a free state, (bhā)=that which gives light, such, (sūryyaḥ) =Sun, (aśave)=for the velocity of matter and rays, (jihvayā)=groups of rays of flame like tongues, (iva) =like, (akhyat) =illuminate prominently, [aura]=and, (sanmukhaḥ) =in front, (abhūt) =appears, (tathā) =in the same way, (tat) =to that, (sannidhau) =of close,, (tat) =that, (yānām) =to the vehicle, (sthāpayitvā) =install, (tatra) =there, (ucitasthāne) =in the proper place, (hiraṇyam) =of gold etc., (jyotiḥ) =of light, (rakṣet) =protect.

    English Translation (K.K.V.)

    O craftsmen! As both of you in a state free from bondage, from which light comes, such a Sun, for the speed of matter and rays, like a tongue-like group of rays of flame, as prominently illuminates and appears in front, so near that, that protect the light of gold etc. by installing the vehicle there in the right place.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    O humans traveling on the vehicle! All of you drive and stop the vehicles by knowing the directions of the Sun etc. with the help of pole instruments etc. And by which you don't have to go to any other place, if you get confused.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The answer to the above question put in the ninth Mantra is given in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O expert artisans, as the vast and unbounded sun shines forth with his rays for quickening the speed of substances, put your vehicles in the light of the sun and place gold and other glittering substances in suitable places.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( अंशवे) पदार्थानां वेगाय = For the speed of the substances. (जिह्वया) रसनेन्द्रियेणेव किरणज्वालासमूहेन । = With the rays like the tongue.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O travelers, you should know the directions with the help of the polar instrument (denoting the north and the sun etc.) and then drive your vehicles accordingly, so that you may not go astray, by mistake.

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