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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 46/ मन्त्र 9
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    दि॒वस्क॑ण्वास॒ इन्द॑वो॒ वसु॒ सिन्धू॑नां प॒दे । स्वं व॒व्रिं कुह॑ धित्सथः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वः । क॒ण्वा॒सः॒ । इन्द॑वः । वसु॑ । सिन्धू॑नाम् । प॒दे । स्वम् । व॒व्रिम् । कुह॑ । धि॒त्स॒थः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवस्कण्वास इन्दवो वसु सिन्धूनां पदे । स्वं वव्रिं कुह धित्सथः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवः । कण्वासः । इन्दवः । वसु । सिन्धूनाम् । पदे । स्वम् । वव्रिम् । कुह । धित्सथः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 46; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (दिवः) प्रकाशमानानग्न्यादीन् (कण्वासः) शिल्पविद्याविदो मेधाविनः (इन्दवः) जलानि (वसु) धनम् (सिन्धूनाम्) समुद्राणाम् (पदे) गंतव्ये मार्गे (स्वम्) स्वकीयम् (वव्रिम्) रूपयुक्तं पदार्थसमूहम्। वव्रिरिति रूपना० निघं० ३।७। (कुह) क्व (धित्सथः) धर्तुमिच्छथः ॥९॥

    अन्वयः

    पुनस्तौ किं कुर्य्यातामित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे कण्वासो विद्वांसो ! यूयमिमौ शिल्पिनौ पृच्छत् युवां सिन्धूनां पदे ये दिवइन्दवः सन्ति तान् स्वं वव्रिं वसु च कुह धित्सथ इति ॥९॥

    भावार्थः

    यदि मनुष्या विद्वच्छिक्षानुकूल्येनाऽग्निजलादिसंप्रयुक्तेषु यानेषु स्थित्वा राजकर्मव्यापारयोः सिद्धये समुद्रान्तं गच्छेयुस्तदा पुष्कलं सुरूपं धनम्प्राप्नुयुः ॥९॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (कण्वासः) मेधावी विद्वान् लोगो ! तुम इन कारीगरों को पूछो कि तुम लोग (सिन्धूनाम्) समुद्रों के (पदे) मार्ग में जो (दिवः) प्रकाशमान अग्नि और (इन्दवः) जल आदि हैं उन्हें और (स्वम्) अपना (वव्रिं) सुन्दर रूप युक्त (वसु) धन (कुह) कहां (धित्सथः) धरने की इच्छा करते हो ॥९॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य लोग विद्वानों की शिक्षा के अनुकूल अग्नि जल के प्रयोग से युक्त यानों पर स्थित होके राजा प्रजा के व्यवहार की सिद्धि के लिये समुद्रों के अन्त में जावें आवें तो बहुत उत्तमोत्तम धन को प्राप्त होवें ॥९॥

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    विषय

    अपरा व पराविद्या

    पदार्थ

    १. (कण्वासः) - कण - कण करके ज्ञान का सञ्चय करनेवाले मेधावी पुरुषो ! (इन्दवः) - सोमकणों के रक्षण से शक्तिशाली बननेवाले हे पुरुषो ! (दिवः वसु) - ज्ञान के धन को तथा (स्वं वव्रिम्) - आत्मा के वरणीय स्वरूप को (सिन्धूनां पदे) - ज्ञान के समुद्रभूत आचार्यों के [तपोऽतिष्ठन्तप्यमानः समुद्रे] चरणों में बैठकर (कुह) - किस समय व कहाँ (धित्सथः) - धारण करना चाहते हो । 
    २. कण्व एवं इन्दु पुरुष ही ज्ञान - विज्ञान को प्राप्त किया करते हैं । 'कण्व' शब्द मेधाविता व कण - कण करके संग्रह की श्रमशीलता का संकेत करता है और 'इन्दु' शब्द सोम के रक्षण का भाव दे रहा है । ये सब बातें ज्ञानप्राप्ति के लिए आवश्यक हैं । 
    ३. 'अपरा विद्या' का संकेत 'दिवः वसु' से दिया गया है और 'परा विद्या' का प्रतिपादन 'स्वं वव्रिम्' शब्द प्रकट कर रहे हैं । यह दोनों प्रकार का ज्ञान उन आचार्यों के चरणों में विनीततापूर्वक बैठकर प्राप्त होता है जो स्वयं ज्ञान के समुद्र हैं । 
    ४. न जाने कब प्रभुकृपा होगी और हम इस ज्ञान - विज्ञान को प्राप्त करने में प्रवृत्त होंगे ? इस प्रश्न में ही ज्ञान - विज्ञान की प्राप्ति की प्रबल उत्कण्ठा की भावना निहित है । इस प्रश्न का उत्तर अगले मन्त्र में दिया गया है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम कण्व व इन्दु बनकर, आचार्य - चरणों में बैठकर अपरा व पराविद्या का अध्ययन करें । 
     

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    विषय

    शिल्पियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (कण्वासः) विद्वान् ज्ञानी स्त्री पुरुषो! (सिन्धूनां पदे) समुद्रों के परम गन्तव्य, गुप्त, गहरे स्थान में रक्खे (वसु) वास योग्य भूमि ऐश्वर्य के समान एवं (दिवः) सूर्य की किरणों और सूर्य चन्द्र के समान तुम दोनों सुन्दर, उज्ज्वल रूप या ऐश्वर्य को भी (कुह) किस स्थान पर (धित्सथः) रखा चाहते हो ॥ अथवा हे शिल्पियो! (सिन्धूनां पदे ये इन्दवः दिवः स्वंवव्रिंच कुह धित्सथः) जलों के बीचमें जल, अग्नि आदि तत्वों और अपने रूपवान् पदार्थों को या धन को कहां रखोगे ॥ अध्यात्म में—हे प्राण और अपान! सूर्य की किरणों या आकाश में स्थित जलों के समान ये प्राण या लिंगशरीर हैं। (सिन्धूनां पदे वसु) सदा गतिशील प्राणों के परम गन्तव्य पद में वास करने वाले (स्वं वव्रिम्) वरण करने योग्य अपने आत्मा को तुम कहाँ धारण करते हो। उत्तर अगले मन्त्र में देखो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१५ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्द—१, १० विराड्गायत्री । ३, ११, ६, १२, १४ गायत्री । ५, ७, ९, १३, १५, २, ४, ८ निचृद्गायत्री ॥

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    विषय

    फिर वे शिल्पी क्या करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे कण्वासः विद्वांसः ! यूयम् इमौ शिल्पिनौ पृच्छत् युवां सिन्धूनां पदे ये दिवः इन्दवः सन्ति तान् स्वं वव्रिं वसु च कुह धित्सथ इति ॥९॥

    पदार्थ

    हे (कण्वासः) शिल्पविद्याविदो मेधाविनः=शिल्पविद्या के जाननेवाले मेधावी, (विद्वांसः)= विद्वान् लोगों ! (यूयम्)=तुम सब, (इमौ)=इन दो, (शिल्पिनौ)= शिल्पियों को, (पृच्छत्)=पूछो, (युवाम्)=तुम दोनों, (सिन्धूनाम्) समुद्राणाम्=समुद्रों के, (पदे) गंतव्ये मार्गे=जाने के मार्ग में, (ये)=जो, (दिवः) प्रकाशमानानग्न्यादीन्=प्रकाशमान अग्नि आदि हैं, (इन्दवः) जलानि=जल, (सन्ति)=हैं, (तान्)=उनको, (स्वम्) स्वकीयम्=अपने, (वव्रिम्) रूपयुक्तं पदार्थसमूहम्= रूप युक्त पदार्थों के समूह में, (वसु) धनम्=धन, (च)=भी, (कुह) क्व=कहाँ, (धित्सथः) धर्तुमिच्छथः=रखने की इच्छा करते हो॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    यदि मनुष्य लोग विद्वानों की शिक्षा के अनुकूल अग्नि, जल आदि को अच्छी तरह से प्रयोग करके यानों पर स्थित हो करके राज्य के कर्म और यापार की सिद्धि के समुद्रों के अन्त में जावें और तब बहुत उत्तमोत्तम धन को प्राप्त करेंगे ॥९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (कण्वासः) शिल्पविद्या के जाननेवाले मेधावी (विद्वांसः) विद्वान् लोगों ! (यूयम्) तुम सब (इमौ)इन दो (शिल्पिनौ)= शिल्पियों को (पृच्छत्) पूछो कि (युवाम्) तुम दोनों (सिन्धूनाम्) समुद्रों के (पदे) जाने के मार्ग में, (ये) जो (दिवः) प्रकाशमान अग्नि आदि [और] (इन्दवः) जल (सन्ति) हैं, (तान्)उनको (स्वम्) अपने (वव्रिम्) रूप युक्त पदार्थों के समूह में (वसु) धन को (च) भी (कुह) कहाँ (धित्सथः) रखने की इच्छा करते हो॥९॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (दिवः) प्रकाशमानानग्न्यादीन् (कण्वासः) शिल्पविद्याविदो मेधाविनः (इन्दवः) जलानि (वसु) धनम् (सिन्धूनाम्) समुद्राणाम् (पदे) गंतव्ये मार्गे (स्वम्) स्वकीयम् (वव्रिम्) रूपयुक्तं पदार्थसमूहम्। वव्रिरिति रूपना० निघं० ३।७। (कुह) क्व (धित्सथः) धर्तुमिच्छथः ॥९॥ विषयः- पुनस्तौ किं कुर्य्यातामित्युपदिश्यते। अन्वयः-हे कण्वासो विद्वांसो ! यूयमिमौ शिल्पिनौ पृच्छत् युवां सिन्धूनां पदे ये दिवइन्दवः सन्ति तान् स्वं वव्रिं वसु च कुह धित्सथ इति ॥९॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यदि मनुष्या विद्वच्छिक्षानुकूल्येनाऽग्निजलादिसंप्रयुक्तेषु यानेषु स्थित्वा राजकर्मव्यापारयोः सिद्धये समुद्रान्तं गच्छेयुस्तदा पुष्कलं सुरूपं धनम्प्राप्नुयुः ॥९॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे विद्वानांच्या शिकविण्यानुसार अग्नी व जलाच्या प्रयोगाने युक्त असलेल्या यानांत बसून राजा व प्रजेच्या व्यवहाराची सिद्धी व्हावी यासाठी समुद्रापार जाणे-येणे करतील तर उत्तमोत्तम धन प्राप्त होईल. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ashvins, eminent scholars, in the depths of the seas and over the rolling waves, in the rays of light and in the mists of waters, there is wealth and energy. And where do you place the value of your own intelligence (in the design and structure of the chariot of your own choice)?

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    Subject of the mantra

    Then what should those craftsmen do, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (kaṇvāsaḥ)= brilliant craftsmen, (vidvāṃsaḥ) =scholars, (yūyam) =all of you, (imau) =these two, (śilpinau)= to craftsmen, (pṛcchat) =ask that, (yuvām) =both of you, (sindhūnām) =of oceans, (pade)=on the way to go, (ye) =those, (divaḥ)=luminous fire etc., [aura]=and, (indavaḥ) =waters, (santi) =are, (tān) =to them, (svam) =in their own, (vavrim)=in group of substances with form, (vasu) =to wealth, (ca) =also, (kuha) =where, (dhitsathaḥ)= you wish to keep.

    English Translation (K.K.V.)

    O brilliant scholars who know about craft Science! All of you ask these two craftsmen that where do you wish to keep money in the group of substances containing your form, which are the luminous fire etc. and water in the way of going to the oceans.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    If human beings use fire, water etc. properly according to the teachings of the scholars and get seated on the vehicles and go to the end of the oceans for accomplishment of the work and business of the state and then they will get the best wealth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wise men, you should ask these artisans, where do you want to place your fire and other shining objects, water and beautiful substances when you are on sea journey.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (कण्वासः) शिल्पविद्याविदो मेधाविनः = Wise men well-versed in arts and industries. ( कण्व इति मेधाविनाम निघ० ३.१५ ) ( वव्रिम् ) रूपयुक्तं पदार्थसमूहम् = Beautiful substances. वव्रिरिति रूपनाम (निध० ३.७) तदुत्तरमाह-

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    If men go to the end of the ocean in steamers where fire, water and other necessary things are used in proper proportion, in accordance with the instructions given by expert learned persons for the accomplishment of Governmental duties and business, they can accumulate much charming wealth.

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