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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 46/ मन्त्र 6
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    या नः॒ पीप॑रदश्विना॒ ज्योति॑ष्मती॒ तम॑स्ति॒रः । ताम॒स्मे रा॑साथा॒मिष॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । नः॒ । पीप॑रत् । अ॒श्वि॒ना॒ । ज्योति॑ष्मती । तमः॑ । ति॒रः । ताम् । अ॒स्मे इति॑ । रा॒सा॒था॒म् । इष॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या नः पीपरदश्विना ज्योतिष्मती तमस्तिरः । तामस्मे रासाथामिषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या । नः । पीपरत् । अश्विना । ज्योतिष्मती । तमः । तिरः । ताम् । अस्मे इति । रासाथाम् । इषम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 46; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सूर्य्यचन्द्रवदश्विनौ किंकुरुतइत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे अश्विना सभासेनेशौ ! युवां यथा सूर्याचन्द्रमसोर्ज्योतिष्मती तमस्तिरस्कृत्योषसं रात्रिं च कृत्वा नः सर्वान् पीपरत्तयास्मे अविद्यां निवार्य तामिषं रासाथाम् ॥६॥

     

    पदार्थः

    (या) यौ वक्ष्यमाणौ (नः) अस्मभ्यम् (पीपरत्) सुखैः पूरयेत्। अत्र लिङर्थे लुङडभावश्च। (अश्विना) सूर्य्याचन्द्रमसाविव सभासेनेशौ (ज्योतिष्मती) प्रशस्तानि ज्योतींषि विद्यन्ते यस्यां सा। अत्र सुपां सुलुग् इत्यमो लुक्। (तमः) रात्रिम्। तम इति रात्रिना० निघं० १।७। (तिरः) अन्तर्धाने (ताम्) (अस्मे) अस्माकम्। अत्र सुपाम् इति शे आदेशः। (रासाथाम्) दद्यातम् (इषम्) उत्तमगुणसंपादकमन्नाद्यौषध समूहम् ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारोऽस्ति। यथा सूर्याचन्द्रमसावन्धकारं निवार्य्य प्राणिनः सुखयन्ति तथैव सभासेनेशावन्यायं निवर्त्त्य प्रजाः सुखयेताम् ॥६॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर सूर्य्य चन्द्रमा के समान सभा सेनापति क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) सभासेनाध्यक्षो ! जैसे सूर्य्य और चन्द्रमा की (ज्योतिष्मती) उत्तम प्रकाश युक्त कान्ति (तमः) रात्रि का निवारण करके प्रभात और शुक्लपक्ष से सबका पोषण करते हैं वैसे (अस्मे) हमारी अविद्या को छुड़ा विद्या का प्रकाश कर (नः) हम सबको (ताम्) उस (इषम्) अन्न आदि को (रसाथाम्) दिया करो ॥६॥

    भावार्थ

    यहां वाचकलुप्तोपमालंकार है। जिस प्रकार सूर्य्य और चन्द्रमा अन्धकार को दूर कर प्राणियों को सुखी करते हैं वैसे ही सभा और सेना के अध्यक्षों को चाहिये कि अन्याय दूर कर प्रजा को सुखी करें ॥६॥

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    विषय

    सुशंस, मधुजिह्व, स्वाहुत

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! आप (गृणते) - स्तुति करनेवाले के लिए (सशंसः) - उत्तम शंसन व उपदेश करनेवाले (बोधि) - जाने जाते हो । स्तोता के लिए आप उत्तम ज्ञान देते हैं । 
    २. (यविष्ठ्य) - गुणों को प्राप्त कराने तथा अवगुणों को दूर करने में सर्वोत्तम प्रभो ! आप अपने स्तोता के लिए (मधुजिह्वः) - माधुर्यमय जिह्वावाले, अर्थात् अत्यन्त मधुर शब्दोंवाले तथा (स्वाहुतः) - [सु आहुतः] उत्तमोत्तम हव्य पदार्थों को देनेवाले हो । 
    ३. आप (प्रस्कण्वस्य) - इस मेधावी पुरुष की (आयुः) - आयु को (प्रतिरन्) - बढ़ाते हुए (जीवसे) - उत्तम जीवन के लिए (दैव्यं जनम्) - दैव्य लोगों को, अर्थात् प्रभुप्रवण पुरुषों को (नमस्या) - [परिचरणकर्मा नमस्यति] पूजित कराइए । आपकी कृपा से यह अध्यात्मवृत्तिवाले लोगों के सम्पर्क में आये और उनकी सेवा - शुश्रूषा [परिचरण] करता हुआ उनके उपदेशों से जीवन - निर्माण की प्रेरणा लेता हुआ जीवन को उन्नत बनाए । उत्तम जीवन यही है कि मनुष्य [क] प्रभु के उत्तम उपदेशों को सुने, [ख] माधुर्यमयी जिह्वावाला हो, [ग] उत्तम सात्त्विक पदार्थों का ही सेवन करे, [घ] दैव्य लोगों के सम्पर्क में आकर जीवन को उत्तम बनाते हुए दीर्घ जीवनवाला हो । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - उत्तम जीवन का परिचय प्रस्तुत मन्त्र में 'सुशंसः, मधुजिह्वः, स्वाहुतः ' - इन शब्दों में दिया गया है । इस जीवन के निर्माण को लिए यत्नशील होना चाहिए तथा दीर्घजीवन प्राप्त करना चाहिए । 
     

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    विषय

    अश्वियों की सिन्धु से उत्पत्ति का रहस्य ।

    भावार्थ

    हे (अश्विना) सूर्य और चन्द्र या दिन और रात्रि के समान परस्पर अनुरक्त एवं उपकारक स्त्री पुरुषो! (या) जो अन्न या उत्तम कामना या अभिलाषा, (ज्योतिष्मती) दिन रात्रि के बीच सन्धि बेला में उत्पन्न होनेवाली प्रभातवेला उषा के समान (ज्योतिष्मती) कान्तिवाली उज्वल चित्ताकर्षक होकर हमें (नः) हमारे (तमः) दुःख, शोक और दारिद्र्यादि के चिन्ता रूप अन्धकार से (तिरः पीपरत्) पार उतार दे (ताम्) उस (इषम्) इच्छा, कामना और उद्योग, चेष्टा, सम्मति या अन्नादि ऐश्वर्य वृद्धि को (अस्मे) हमें (रासाथाम्) प्रदान करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१५ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्द—१, १० विराड्गायत्री । ३, ११, ६, १२, १४ गायत्री । ५, ७, ९, १३, १५, २, ४, ८ निचृद्गायत्री ॥

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    विषय

    फिर सूर्य्य चन्द्रमा के समान सभापति और सेनापति क्या करे, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अश्विना सभासेनेशौ ! युवां यथा सूर्याचन्द्रमसौ ज्योतिष्मती तमः तिरः कृत्य उषसं रात्रिं च कृत्वा नः सर्वान् पीपरत् तया अस्मे अविद्यां निवार्य ताम् इषं रासाथाम् ॥६॥

    पदार्थ

    हे (अश्विना) सूर्य्याचन्द्रमसाविव सभासेनेशौ=सूर्य और चन्द्रमा के समान सभा के पति और सेनाध्यक्ष ! (युवाम्)=तुम दोनों, (यथा)=जिस प्रकार, (सूर्याचन्द्रमसौ)= सूर्य और चन्द्रमा, (ज्योतिष्मती) प्रशस्तानि ज्योतींषि विद्यन्ते यस्यां सा= प्रशस्त रूप से प्रकाश युक्त विद्यमान रहते हैं, उस, (तमः) रात्रिम्=रात्रि को, (तिरः) अन्तर्धाने= अन्तर्धान, (कृत्य)= करके, (उषसम्)=उषा का, (रात्रिम्)= रात्रि का, (च)=भी, (कृत्वा)=करके, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (सर्वान्)=समस्त, (पीपरत्) सुखैः पूरयेत्=सुखों को पूर्ण करे, (तया)=उस रात्रि के द्वारा, (अस्मे) अस्माकम्=हमारे द्वारा, (अविद्याम्)= अविद्या का, (निवार्य)= निवारण करके, (ताम्)=उसके, (इषम्) उत्तमगुणसंपादकमन्नाद्यौषध समूहम्= उत्तम गुणों से बनाये हुए अन्न और औषध के समूह को, (रासाथाम्) दद्यातम्= दिया करो ॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    यहां वाचकलुप्तोपमालंकार है। जिस प्रकार सूर्य्य और चन्द्रमा अन्धकार को दूर कर प्राणियों को सुखी करते हैं, वैसे ही सभा और सेना के अध्यक्षों को अन्याय दूर कर प्रजा को सुखी करना चाहिए ॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा के समान सभा के पति और सेनाध्यक्ष ! (युवाम्) तुम दोनों (यथा) जिस प्रकार से (सूर्याचन्द्रमसौ) सूर्य और चन्द्रमा, (ज्योतिष्मती) प्रशस्त रूप से प्रकाशित उपलब्ध रहते हैं, वह (तमः) रात्रि में (तिरः) अन्तर्धान (कृत्य) करके (उषसम्) उषा से (रात्रिम्) रात्रि (च) भी (कृत्वा) करके, [अर्थात् सम्पूर्ण दिन का समय बिताकर] (नः) हमारे लिये (सर्वान्) समस्त (पीपरत्) सुखों को पूर्ण करे। (तया) उस रात्रि के द्वारा (अस्मे) हमारे द्वारा (अविद्याम्) अविद्या का (निवार्य) निवारण करके, (ताम्) उसके (इषम्) उत्तम गुणों से बनाये हुए अन्न और औषध के समूह को (रासाथाम्) दिया करो ॥६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (या) यौ वक्ष्यमाणौ (नः) अस्मभ्यम् (पीपरत्) सुखैः पूरयेत्। अत्र लिङर्थे लुङडभावश्च। (अश्विना) सूर्य्याचन्द्रमसाविव सभासेनेशौ (ज्योतिष्मती) प्रशस्तानि ज्योतींषि विद्यन्ते यस्यां सा। अत्र सुपां सुलुग् इत्यमो लुक्। (तमः) रात्रिम्। तम इति रात्रिना० निघं० १।७। (तिरः) अन्तर्धाने (ताम्) (अस्मे) अस्माकम्। अत्र सुपाम् इति शे आदेशः। (रासाथाम्) दद्यातम् (इषम्) उत्तमगुणसंपादकमन्नाद्यौषध समूहम् ॥६॥ विषयः- पुनः सूर्य्यचन्द्रवदश्विनौ किंकुरुतइत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे अश्विना सभासेनेशौ ! युवां यथा सूर्याचन्द्रमसोर्ज्योतिष्मती तमस्तिरस्कृत्योषसं रात्रिं च कृत्वा नः सर्वान् पीपरत्तयास्मे अविद्यां निवार्य तामिषं रासाथाम् ॥६॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारोऽस्ति। यथा सूर्याचन्द्रमसावन्धकारं निवार्य्य प्राणिनः सुखयन्ति तथैव सभासेनेशावन्यायं निवर्त्त्य प्रजाः सुखयेताम् ॥६॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    येथे वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या प्रकारे सूर्य व चंद्र अंधकार दूर करून प्राण्यांना सुखी करतात तसेच सभा व सेनेच्या अध्यक्षांनी अन्याय दूर करून प्रजेला सुुखी करावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ashvins, harbingers of light and inspiration, like the dawn give us that light of heaven which may help us cross over beyond the night and darkness of life and bring us total fulfilment.

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    Subject of the mantra

    Then what should the president of assembly and the commander do like the sun and the moon, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (aśvinā)=the lord of the assembly and the chief of the army like the Sun and the Moon, (yuvām) =both of you, (yathā)=in the manner, (sūryācandramasau) =the Sun and the Moon, (jyotiṣmatī) =widely illuminated are available, that, (tamaḥ) =during night, (tiraḥ)=disappearance, (kṛtya) =having done, (uṣasam) uṣā se (rātrim) rātri (ca)=also, (kṛtvā) =having done,, [arthāt sampūrṇa dina kā samaya bitākara]= i.e. spending the whole day, (naḥ) =for us, (sarvān) =all, (pīparat) =make perfect the happiness, (tayā) =by that night, (asme) =by us, (avidyām) =of nescience, (nivārya) = removing, (tām) =of that, (iṣam) =group of food and herbal medicines made from best qualities, (rāsāthām) =provide.

    English Translation (K.K.V.)

    O Lord of the assembly and chief of the army, like the Sun and the Moon! The way both of you, the Sun and the Moon, are abundantly available, may he fulfill all the pleasures for us by spending the whole day in the night and dawn in the night. By that night by removing ignorance from us, give a group of food and medicine made from its best qualities.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as the Sun and the Moon remove darkness and make living beings happy, similarly the Presidents of the Assembly and the army chiefs should remove injustice and make the people happy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What do Ashvinau (The President of the Assembly and the commander-in-chief of the Army) do like the sun and the moon is taught in the sixth mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Ashvinau (the President of the Assembly and the Commander-in-chief of the army) As the light of sun and the moon dispels the darkness of the night and delights us all by creating the dawn or the white fortnight, so you should also dispel the darkness of ignorance from us and vouchsafe to us invigorating food and herbs full of strengthening good qualities.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अश्विना) सूर्याचन्द्रमसाविव सभासेनेशौ = The President of the Assembly and the Chief Commander of the Army who are like the sun and the moon. ( इषम् ) उत्तमगुणसम्पादकम् अन्नाद्यौषधसमूहम् = Invigorating food and strengthening herbs etc.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun and the moon dispel the darkness and thus make people happy, in the same manner, the President of the assembly and the Commander of the Army should cast aside all injustice and make people happy and contented.

    Translator's Notes

    The word Ashvinau has many meanings in the Vedas as stated in the Brahmanas and the Nirukta etc. इमे ह वै द्यावापृथिवी प्रत्यक्षमश्विनौ इमे हीदं सर्वम् अनुवाताम् (शतपथ० ४.१५.१६) अश्विनावध्वर्यू ( ऐतरेय १.१८ ) = Rishi Dayananda's interpretation as अध्यापकोपदेशकौ i. e. teachers and preachers is based upon this authority. अश्विनौ वै देवानां भिषजौ (ऐत० १.१८ ) = Physicians and surgeons. In the Nirukta (12.1) Yaskacharya has stated. तत्कौ अश्विनौ द्यावापृथिव्यावित्येके | अहोरात्रावित्येके | सूर्याचन्द्रमसावित्येके | (निरु० १२.१ )Here Rishi Dayananda has interpreted अश्विनौ as सभासेनेशौ on the analogy of सूर्याचन्द्रमसौ i e the sun and the moon. For the meaning of as or food see Kausheetaki Brahmana 28-5 अन्नं वा इपम् (कौषीतकी ब्रा० २८.५)

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