Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 46 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 46/ मन्त्र 5
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ॒दा॒रो वां॑ मती॒नां नास॑त्या मतवचसा । पा॒तं सोम॑स्य धृष्णु॒या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒दा॒रः । वा॒म् । म॒ती॒नाम् । नास॑त्या । म॒त॒ऽव॒च॒सा॒ । पा॒तम् । सोम॑स्य । धृ॒ष्णु॒ऽया ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदारो वां मतीनां नासत्या मतवचसा । पातं सोमस्य धृष्णुया ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आदारः । वाम् । मतीनाम् । नासत्या । मतवचसा । पातम् । सोमस्य । धृष्णुया॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 46; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (आदारः) समन्ताच्छत्रूणां दारणकर्त्ता गणः (वाम्) युवयोः (मतीनाम्) मनुष्याणाम् (नासत्या) सत्यगुणस्वभावौ। अत्र सुपांसुलुग् इत्याकारादेशः। (मतवचसा) मतानि वचांसि वेदवचनानि याभ्यां तौ (पातम्) प्राप्नुतम् (सोमस्य) ऐश्वर्य्यम्। अत्र कर्मणि# षष्ठी (धृष्णुया) धर्षणेन प्रगल्भत्वेन ॥५॥ #[अ० २।३।६५। इत्यनेन सूत्रेण। सं०]

    अन्वयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे नासत्या मतवचसाऽश्विना सभासेनेशौ ! युवां यो वामादारोऽस्ति तेन धृष्णुया सोमस्य मतीनां पातम् ॥५॥

    भावार्थः

    राजपुरुषा दृढेन बलेन शत्रून् जित्वा स्वेषां प्रजानां चैश्वर्य्यं सततं वर्द्धयेयुः ॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (नासत्या) पवित्र गुण स्वभाव युक्त (मतवचसा) ज्ञान से बोलने वाले सभा सेना के पति ! तुम जो (वाम्) तुम्हारे (आदारः) सब प्रकार से शत्रुओं को विदारण कर्त्ता गुण हैं उस और (धृष्णुया) प्रगल्भता से (सोमस्य) ऐश्वर्य्य और (मतीनाम्) मनुष्यों की (पातम्) रक्षा करो ॥५॥

    भावार्थ

    राजपुरुषों को चाहिये कि दृढ़ बल युक्त सेना से शत्रुओं को जीत अपनी प्रजा के ऐश्वर्य्य की निरन्तर वृद्धि किया करें ॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    नासत्या - मतवचसा

    पदार्थ

    १. हे (नासत्या) - [न असत्या] जिनकी साधना से जीवन में असत्य नहीं रहता, (मतवचसा) - मननीय वचनोंवाले, अर्थात् जिनकी साधना से प्रत्येक शब्द ज्ञानपूर्वक उच्चरित होता है, ऐसे प्राणापानो ! आप (धृष्णुया) - वासनारूप शत्रुओं के तथा रोगों के धर्षण के दृष्टिकोण से (सोमस्य पातम्) - सोम का रक्षण करो । उस सोम का, जोकि (वाम्) - आपकी (मतीनाम्) - बुद्धियों का (आदारः) - प्रेरक है [प्रेरक - सा०, दृ आदरे] । 
    २. प्राणसाधना से मन की पवित्रता होकर मन में सत्य का ही निवास होता है, इससे ये प्राणापान 'नासत्या' हैं । इस साधना से हमारा ज्ञान निर्मल होता है और हमारे वचन ज्ञानपूर्वक ही बोले जाते हैं, अतः प्राणापान को मन्त्र में 'मतवचसा' कहा गया है । 
    ३. प्राणसाधना से होनेवाले सब लाभ सोमरक्षण के द्वारा ही होते हैं । प्राणसाधना से सोमरक्षण होता है । यह सुरक्षित सोम रोग व वासनारूप शत्रुओं का घर्षण करता है और बुद्धियों को प्रेरित करता है । सोमरक्षण से बुद्धि तीव्र होकर सूक्ष्म - से - सूक्ष्म विषय को भी ग्रहण करने लगती है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से सोम का रक्षण होने पर हमारे [क] मनों में सत्य होगा, [ख] वाणी में ज्ञानपूर्ण वचन होंगे, तथा [ग] रोग व वासनाओं का धर्षण होकर बुद्धियाँ सूक्ष्म - से - सूक्ष्म विषयों का भी ग्रहण करनेवाली होंगी । 
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अश्वियों की सिन्धु से उत्पत्ति का रहस्य ।

    भावार्थ

    हे (नासत्या) सदा सत्याचरण करनेवाले, हे (मतवचसा) अभिमत, प्रिय, ज्ञानयुक्त वाणी के बोलनेवालो! (वां) आप दोनों का, वीर रथी और सारथि के समान (मतीनां) मननशील बुद्धिमान् पुरुषों के बीच (आदारः) शत्रुओं का नाशक प्रभाव और आदर हो। उससे और (धृष्णुया) शत्रुओं को धर्षण या पराजय करनेवाले बड़े सामर्थ्य से आप दोनों (सोमस्य) राष्ट्र, ऐश्वर्य और शरीरस्थ वीर्य तथा और उत्तम सन्तति का (पातम्) पालन करो। इति त्रयविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१५ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्द—१, १० विराड्गायत्री । ३, ११, ६, १२, १४ गायत्री । ५, ७, ९, १३, १५, २, ४, ८ निचृद्गायत्री ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर वे सेनापति कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे नासत्या मतवचसा अश्विना सभासेना ईशः ! युवां यः वाम् आदारः अस्ति तेन धृष्णुया सोमस्य मतीनां पातम् ॥५॥

    पदार्थ

    हे (नासत्या) सत्यगुणस्वभावौ= सत्यगुण के स्वभाववाले, (मतवचसा) मतानि वचांसि वेदवचनानि याभ्यां तौ=जिनके विचार और वचन वेदों के वचनों पर आधारित हैं, (अश्विना)=सूर्य और चन्द्र, (सभासेना)= सभा और सेना के, (ईशः)=स्वामी ! (युवाम्)=तुम दोनों, (यः)=जो, (वाम्) युवयोः= तुम दोनों के, (आदारः) समन्ताच्छत्रूणां दारणकर्त्ता गणः= सब प्रकार से शत्रुओं को विदारण करने का समुदाय, (अस्ति)=है, (तेन)=उसके द्वारा, (धृष्णुया) धर्षणेन प्रगल्भत्वेन= दृढता और आत्मविश्वास से, (सोमस्य) ऐश्वर्य्यम्=ऐश्वर्य्य, (मतीनाम्) मनुष्याणाम्=मनुष्यों को, (पातम्) प्राप्नुतम्=प्राप्त होवे ॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    राजपुरुषों के द्वारा दृढ़ बल से शत्रुओं की सेना जीत कर अपनी प्रजा के ऐश्वर्य्य की भी निरन्तर वृद्धि करनी चाहिए ॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (नासत्या) सत्यगुण के स्वभाववाले, (मतवचसा) वेदों के वचनों पर आधारित विचार और वचन वाले, (अश्विना) सूर्य और चन्द्र [के समान] (सभासेना) सभा और सेना के (ईशः) स्वामी ! (युवाम्) तुम दोनों, (यः) जो (वाम्) तुम दोनों के (आदारः) सब प्रकार से शत्रुओं को विदारण करने का समुदाय (अस्ति) है, (तेन) उसके द्वारा (धृष्णुया) दृढता और आत्मविश्वास से (मतीनाम्) मनुष्यों को (सोमस्य) ऐश्वर्य्य (पातम्) प्राप्त होवे ॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- राजपुरुषा दृढेन बलेन शत्रून् जित्वा स्वेषां प्रजानां चैश्वर्य्यं सततं वर्द्धयेयुः ॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आदारः) समन्ताच्छत्रूणां दारणकर्त्ता गणः (वाम्) युवयोः (मतीनाम्) मनुष्याणाम् (नासत्या) सत्यगुणस्वभावौ। अत्र सुपांसुलुग् इत्याकारादेशः। (मतवचसा) मतानि वचांसि वेदवचनानि याभ्यां तौ (पातम्) प्राप्नुतम् (सोमस्य) ऐश्वर्य्यम्। अत्र कर्मणि# षष्ठी (धृष्णुया) धर्षणेन प्रगल्भत्वेन ॥५॥ #[अ० २।३।६५। इत्यनेन सूत्रेण। सं०] विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे नासत्या मतवचसाऽश्विना सभासेनेशौ ! युवां यो वामादारोऽस्ति तेन धृष्णुया सोमस्य मतीनां पातम् ॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- राजपुरुषा दृढेन बलेन शत्रून् जित्वा स्वेषां प्रजानां चैश्वर्य्यं सततं वर्द्धयेयुः ॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजपुरुषांनी दृढ बलयुक्त सेनेने शत्रूंना जिंकून आपल्या प्रजेच्या ऐश्वर्याची निरंतर वृद्धी करावी. ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ashvins, harbingers of light and destroyers of enemy forces, dedicated to truth and holy speech, defend your people and protect their peace and prosperity with confidence and daring courage.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Then how is a he as a commander, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (nāsatyā) =of the truthful nature, (matavacasā)=having thoughts and words based on the words of the Vedas, (aśvinā) =The Sun and Moon, [ke samāna]=like, (sabhāsenā) =of assembly and army, (īśaḥ) =commandant, (yuvām) =both of you, (yaḥ) =which, (vām) =of both of your, (ādāraḥ)=the group which splits enemies in every way, (asti) =is, (tena) =by that, (dhṛṣṇuyā) =firmly and confidently, (matīnām) =to humans, (somasya) =majesty, (pātam) =attain.

    English Translation (K.K.V.)

    O possessor of truthful virtues, whose thoughts and words are based on the words of the Vedas, such lord of assembly and army like the Sun and the Moon! Both of you, the group which splits enemies in every way, humans can get it with firmness and confidence by that.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The royal men by conquering the enemy's army with strong force should continuously increase the prosperity of subjects.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O leading men, the President of the Assembly and the Chief-commander of the Army, who are devoid of falsehood and absolutely truthful accepting the commands of the Vedas, protect with your cleverness and your followers who are destroyers of the enemies from all sides, the wealth of wise men.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (आदार:) समन्तात् शत्रूणां दारणकर्ता गणः = The band of followers that is the destroyer of the enemies from all sides. ( दृ - विदारणे Tr.) (मतीनाम् ) मनुष्याणाम्-मेधाविनाम् मन ज्ञाने मतय इति मेधाविनाम ( निघ० ३.१५) = of wise men. ( सोमस्य ) ऐश्वर्यम् अत्र कर्मणि षष्ठी = Wealth. ( नासत्या ) सत्यगुणकर्मस्वभावौ । अत्र सुपां सुलुक् (अष्टा० ७.१.३ ) इत्याकारादेश:= Absolutely truthful. (मतवचसा) मतानि वचांसि वेदवचनानिद्रयाभ्यां तौ = Those who accept the words or teachings of the Vedas.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The officers and workers of the State should conquer their enemies by their powerful might and multiply their own and the wealth of their subjects.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top