ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 46/ मन्त्र 15
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
उ॒भा पि॑बतमश्विनो॒भा नः॒ शर्म॑ यच्छतम् । अ॒वि॒द्रि॒याभि॑रू॒तिभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒भा । पि॒ब॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ । उ॒भा । नः॒ । शर्म॑ । य॒च्छ॒त॒म् । अ॒वि॒द्रि॒याभिः॑ । ऊ॒तिभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उभा पिबतमश्विनोभा नः शर्म यच्छतम् । अविद्रियाभिरूतिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठउभा । पिबतम् । अश्विना । उभा । नः । शर्म । यच्छतम् । अविद्रियाभिः । ऊतिभिः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 46; मन्त्र » 15
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 35; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 35; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(उभा) द्वौ। अत्र सर्वत्र सुपांसुलुग्० इत्याकारादेशः। (पिबतम् ) रक्षतम् (अश्विना) सकलविद्यासुखव्यापिनौ सभासेनेशौ (उभा) उभौ (नः) अस्मभ्यम् (शर्म) सुखं निवासं वा (यच्छतम्) (अविद्रियाभिः) या विदीर्यन्ते ता विद्रास्ता अर्हन्ति ता विद्रियाः। अविद्यमाना विद्रिया यासु क्रियासु ताभिः। अत्र #घञर्थे कविधानं ततो घस्तद्धितः। (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः ॥१५॥ #[इत्यनेन वार्त्तिकेन कः प्रत्ययः। सं०]
अन्वयः
पुनस्तावस्मभ्यं किं किं कुर्यातामित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे सभासेनेशावश्विना ! युवामुभावमृतात्मकमोषधीरसं पिबतमुभाऽविद्रियाभिरूतिभिर्नः शर्म यच्छतम् ॥१५॥
भावार्थः
यदि सभासेनेशादयो राजजनाः प्रीतिविनयाभ्यां प्रजाः पालयेयुस्तर्हि प्रजाजना अपि तानित्थमेव रक्षयेयुः ॥१५॥ अस्मिन् सूक्ते उषोऽश्विशब्दाऽर्थदृष्टार्थवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्। इति पञ्चत्रिंशो वर्गः ३५ षट्चत्वारिंशं ४६ सूक्तं ३ तृतीयोऽध्यायश्च समाप्तः ॥ इतिश्रीमत्परिव्राजकाचार्य्येण श्रीयुतमहाविदुषां श्रीमद्विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्त ऋग्वेदभाष्ये तृतीयोऽध्यायः पूर्त्तिं प्रापितः ॥३॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे हम लोगों के लिये क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे सभा और सेना के ईश ! (अश्विना) संपूर्ण विद्या और सुख में व्याप्त होनेवाले ! तुम दोनों अमृत रूप औषधियों के रस को (पिबतम्) पीओ और (उभा) दोनों (अविद्रियाभिः) अखण्डित क्रियायुक्त (ऊतिभिः) रक्षाओं से (नः) हमको (शर्म) सुख (यच्छतम्) देओ ॥१५॥
भावार्थ
जो सभा और सेनापति आदि राजपुरुष प्रीति और विनय से प्रजा की पालना करें तो प्रजा भी उन की रक्षा अच्छे प्रकार करें ॥१५॥ इस सूक्त में उषा और अश्वियों का प्रत्यक्षार्थ वर्णन किया है इससे इस सूक्ताऽर्थ के साथ पूर्वसूक्तार्थ की संगति जाननी चाहिये ॥ यह पैंतीसवां वर्ग ३५ छयालीसवां ४६ सूक्त और ३ तीसरा अध्याय समाप्त हुआ ॥४६॥ इति श्रीमत्परिव्राजकाचार्य्य महाविद्वान् श्रीयुत स्वामी विरजानन्द सरस्वतीजी के शिष्य दयानन्दसरस्वती स्वामी ने संस्कृत और आर्य्यभाषा से सुशोभित अच्छे प्रमाण सहित ऋग्वेदभाष्य के तीसरे अध्याय को पूर्ण किया ॥१५॥
विषय
अनिन्दित रक्षण
पदार्थ
१. हे (अश्विना) - प्राणापानो ! आप (उभा) - दोनों (पिबतम्) - सोम का पान करो । प्राणापान की साधना से सोम का शरीर में ही व्यापन होता है ।
२. (उभा) - आप दोनों (नः) - हमारे लिए (शर्म) - कल्याण व सुख को (यच्छतम्) - प्रदान करो । वस्तुतः प्राणसाधना आधि - व्याधियों से मुक्त करके हमारा कल्याण करती है ।
३. हे प्राणापानो ! आप हमारे लिए (अविद्रियाभिः) - अनिन्दित (ऊतिभिः) - रक्षणों से युक्त होओ । प्राणापान का रक्षण हमारे लिए सदा प्रशस्त हो । यह रक्षण सोम के पान से ही होता है । सोम की रक्षा से ही शरीर नीरोग व मन निर्मल बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणायाम से [क] सोमरक्षण होता है, [ख] नीरोगता व निर्मलता के द्वारा कल्याण होता है, [ग] अनिन्दित रक्षण प्राप्त होता है ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त का प्रारम्भ इस प्रकार होता है कि हम उषः काल में ही तैयार होकर प्राणसाधना में प्रवृत्त हों [१] । ये प्राण रोगों को नष्ट कर हमारे निवास को सुन्दर बनाते हैं [२] प्राणसाधना से शरीर में हमारा निवास स्वर्गापम बनता है [३] । प्राणसाधक के लिए सूर्य रक्षा करनेवाला होता है [४] । प्राणसाधना से हमारे मनों में सत्य होता है और वाणी में ज्ञानपूर्ण वचन [५] । प्राणसाधक के लिए आवश्यक है कि वह सात्त्विक अन्न का ही सेवन करे [६] । तब हमारा यह शरीर एक नाव व रथ के समान होगा [७] । इस नाव के चप्पू देदीप्यमान ज्ञान के बने होंगे [८] । अपरा व पराविद्या के अध्ययन की हममें उत्कण्ठा होगी [९] । इन्द्रियविषयों से मुक्त होकर हम प्रभुदर्शन के योग्य होंगे [१०] । हम ऋत के मार्ग से ही चलेंगे [११] । हमारा अङ्ग - प्रत्यङ्ग शक्ति से सुभूषित होगा [१२] । ज्ञान व उपासना की हममें वृद्धि होगी [१३] । हमारा शरीर 'श्री' - सम्पन्न, मन सत्य से युक्त तथा मस्तिष्क ज्ञानरश्मि - सम्पन्न होगा [१४] । सोमरक्षण के द्वारा हमें अनिन्दित रक्षण प्राप्त होगा [१५] । 'यह सोम मधुमत्तम है' - इस वर्णन से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
इति तृतीयोऽध्यायः
विषय
ताल और प्रतिक्षेपक द्वारा अग्नि उत्पन्न करने की विधि ।
भावार्थ
हे (अश्विना) रथी और सारथी के समान एक दूसरे के अधीन राजा प्रजाजनो! सभाध्यक्ष सेनाध्यक्षो! या स्त्री पुरुषो! (उभा) आप दोनों ओषधि रस के समान ऐश्वर्य का अति परिमित (पिबतम्) भोग करो। और (उभा) तुम दोनों मिलकर (नः) हमें (अविद्रियाभिः) आनन्दित और दृढ़ (ऊतिभिः) रक्षा के उपायों और व्यवहारों से (नः) हमें (शर्म) शरण और सुख (यच्छतम्) प्रदान करो। इति पंचत्रिंशो वर्गः ॥ इति तृतीयोऽध्यायः ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१५ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्द—१, १० विराड्गायत्री । ३, ११, ६, १२, १४ गायत्री । ५, ७, ९, १३, १५, २, ४, ८ निचृद्गायत्री ॥
विषय
फिर वे सभा और सेना के स्वामी हम लोगों के लिये क्या करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे सभासेनेशौ अवश्विना ! युवाम् उभौ अमृतात्मकम् ओषधीरसं पिबतम् उभौ अविद्रियाभिः ऊतिभिः नः शर्म यच्छतम् ॥१५॥
पदार्थ
हे (सभासेनेशौ)= सभा और सेना के स्वामी, (अश्विना) सकलविद्यासुखव्यापिनौ सभासेनेशौ= समस्त विद्या और सुख को व्याप्त करनेवाले ! (युवाम्)=तुम, (उभा) द्वौ=दोनों, (अमृतात्मकम्)= अमृत रूपी, (ओषधीरसम्)=ओषधियों के रस की, (पिबतम्) रक्षतम्=रक्षा करो। (उभा) उभौ=दोनों की, (अविद्रियाभिः) या विदीर्यन्ते ता विद्रास्ता अर्हन्ति ता विद्रियाः। अविद्यमाना विद्रिया यासु क्रियासु ताभिः= अखण्डित क्रिया से युक्त, (ऊतिभिः)=रक्षाओं के द्वारा, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (शर्म) सुखं निवासं वा= सुख को, (यच्छतम्)=दीजिये ॥१५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
यदि सभा और सेनापति आदि राजपुरुष प्रीति और विनय से प्रजा का पालना करें, तो प्रजा के लोग भी उन की इसी प्रकार से रक्षा करें ॥१५॥
विशेष
सूक्त के महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में ‘उषा’ और ‘अश्वि’ शब्दों के अर्थों प्रत्यक्ष करने के लिये वर्णन किया है इसलिये इस सूक्त के अर्थ की साथ पूर्व सूक्त के अर्थ की संगति जाननी चाहिये ॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (सभासेनेशौ) सभा, सेना के स्वामी, (अश्विना) समस्त विद्या और सुख को व्याप्त करनेवाले ! (युवाम्) तुम (उभा) दोनों (अमृतात्मकम्) अमृत रूपी (ओषधीरसम्) ओषधियों के रस की (पिबतम्) रक्षा करो। (उभा) दोनों की (अविद्रियाभिः) अखण्डित क्रिया से युक्त (ऊतिभिः) रक्षाओं के द्वारा (नः) हमारे लिये (शर्म) सुख को (यच्छतम्) दीजिये ॥१५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उभा) द्वौ। अत्र सर्वत्र सुपांसुलुग्० इत्याकारादेशः। (पिबतम् ) रक्षतम् (अश्विना) सकलविद्यासुखव्यापिनौ सभासेनेशौ (उभा) उभौ (नः) अस्मभ्यम् (शर्म) सुखं निवासं वा (यच्छतम्) (अविद्रियाभिः) या विदीर्यन्ते ता विद्रास्ता अर्हन्ति ता विद्रियाः। अविद्यमाना विद्रिया यासु क्रियासु ताभिः। अत्र #घञर्थे कविधानं ततो घस्तद्धितः। (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः ॥१५॥ #[इत्यनेन वार्त्तिकेन कः प्रत्ययः। सं०] विषयः- पुनस्तावस्मभ्यं किं किं कुर्यातामित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे सभासेनेशावश्विना ! युवामुभावमृतात्मकमोषधीरसं पिबतमुभाऽविद्रियाभिरूतिभिर्नः शर्म यच्छतम् ॥१५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यदि सभासेनेशादयो राजजनाः प्रीतिविनयाभ्यां प्रजाः पालयेयुस्तर्हि प्रजाजना अपि तानित्थमेव रक्षयेयुः ॥१५॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अस्मिन् सूक्ते उषोऽश्विशब्दाऽर्थदृष्टार्थवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्।
मराठी (1)
भावार्थ
जी सभा व सेनापती इत्यादी राजपुरुष प्रेम व विनय यांनी प्रजेचे पालन करतात तेव्हा त्या प्रजेनेही त्यांचे रक्षण चांगल्या प्रकारे करावे. ॥ १५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Ashvins, powers of protection and inspiration, both of you drink the delight of life and protect its sanctity, and, with relentless actions and modes of defence, give us the peace and well-being of happy settlement.
Subject of the mantra
Then what should the chairman of the assembly and the army chief do for us, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (sabhāseneśau)=chairman of assembly, lord of the army, (aśvinā)=pervading all knowledge and happiness, (yuvām)=you, (ubhā) =both, (amṛtātmakam=in the form of nectar, (oṣadhīrasam)=of herbal juice, (pibatam)=protect, (ubhā) =of both, (avidriyābhiḥ) =with unbroken action, (ūtibhiḥ)=by defenses, (naḥ) =for us, (śarma) =delight, (yacchatam)= =provide.
English Translation (K.K.V.)
O chairman of the assembly, chief of the army, pervading all learning and happiness! You both protect the juice of nectar-like herbal medicines. Give us happiness through the defenses consisting of the unbroken action of both.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
If the royal people like the Assembly, the commander of the army etc. take care of the people with love and humility, then the people should also protect them in the same way. this hymn, the interpretation of the words ‘Usha’ and ‘Ashvi’ have been described, hence the interpretation of this hymn should be consistent with the interpretation of the previous hymn.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should they (Ashvinau) do for us is taught in the fifteenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Ashvinau ( The President of the Assembly and the Commander of the Army) you who pervade in all knowledge and happiness, drink the nectar-like juice of the various invigorating herbs and with your irreproachable protective activities bestow upon us happiness or suitable residence.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If the President of the Assembly, the Commander of the Army and other officers of the State protect their people they also should protect them like wise. In this 46th hymn the subject mentioned in the previous hymn has been continued by the illustration of the Usha (Dwan) and Ashvinau (the sun and the Moon, the earth and the sky, the teachers and preachers, the president of the Assembly and the Commander of the Army etc.) and thus it is connected with the previous hymn. Here ends the commentary on forty sixth hymn or thirty-fifth Verga of the first Mandala of the Rigveda. Here ends the commentary of the third chapter by Swami Dayananda Sarasvati, the disciple of the great scholar Swami Virjananda Sarasvati, translated by (Acharya) Dharma Deva Vidyamartanda, Vidyavachaspati.
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