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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 46/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    या द॒स्रा सिन्धु॑मातरा मनो॒तरा॑ रयी॒णाम् । धि॒या दे॒वा व॑सु॒विदा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । द॒स्रा । सिन्धु॑ऽमातरा । म॒नो॒तरा॑ । र॒यी॒णाम् । धि॒या । दे॒वा । व॒सु॒ऽविदा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या दस्रा सिन्धुमातरा मनोतरा रयीणाम् । धिया देवा वसुविदा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या । दस्रा । सिन्धुमातरा । मनोतरा । रयीणाम् । धिया । देवा । वसुविदा॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 46; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (या) यौ (दस्रा) दुःखोपक्षेतारौ (सिंधुमातरा) सिंधूनां समुद्राणां नदीनां वा मातरौ यद्वा सिंधवो मातरो ययोः (मनोतरा) अतिशयितं मनो ययोस्तौ (रयीणाम्) धनानाम् (धिया) कर्मणा (देवा) दिव्यगुणप्रापकौ (वसुविदा) बहुधनप्रदौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः ॥२॥

    अन्वयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे मनुष्या ! यूयं या दस्रा सिंधुमातरा मनोतरा धिया रयीणां देवा वसुविदावग्निजलवद्वर्त्तमानावध्यापकोपदेशकौ स्तस्तौ सेवध्वम् ॥२॥

    भावार्थः

    यथा शिल्पिभिर्यथावत्संप्रयोजिते अग्निजले यानानां मनोवेगवत्सद्यो गमयितृणी बहुधनप्रापके वर्त्तेते तथाऽध्यापकोपदेशकौ भवेतामिति ॥२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे अश्वि कैसे हैं इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे मनुष्य लोगो ! तुम लोग (या) जो (दस्रा) दुःखों को नष्ट (सिंधुमातरा) समुद्र नदियों के प्रमाण कारक (मनोतरा) मन के समान पार करने हारे (धिया) कर्म से (रयीणाम्) धनों के (देवा) देने हारे (वसुविदा) बहुत धन को प्राप्त कराने वाले अग्नि और जल के तुल्य वर्त्तमान अध्यापक और उपदेशक हैं उनकी सेवा करो ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे कारीगर लोगों ने ठीक-२ युक्त किये हुए अग्नि और जल के यानों को मन के वेग के समान तुरन्त पहुँचाने वा बहुत धन को प्राप्त कराने वाले हैं उसी प्रकार अध्यापक और उपदेशकों को होना चाहिये ॥२॥

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    विषय

    दस्त्रा वसुविदा

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार मैं उषः कालों में जागकर उन प्राणापान का स्तवन करता हूँ (या) - जो (दस्रा) - सब रोग व वासनारूप दुःखों के नष्ट करनेवाले हैं । प्राणायाम के द्वारा रोग तो नष्ट होते ही हैं, वासनाओं का भी विनाश होता है, शरीर भी स्वस्थ होता है, मन भी । 
    २. (सिन्धमातरा) - ये प्राणापान शरीर के सारे (नाड़ी) - संस्थान में रुधिर में व्याप्त होकर प्रवाहित होनेवाले [स्यन्दते] रेतः कणों का निर्माण करनेवाले हैं । प्राणसाधना से ही रेतः कणों की ऊर्ध्वगति होती है । 
    ३. (मनोतरा) - [मनसा तारयितारौ] ज्ञान की वृद्धि से ये हमें वासनाओं से तरानेवाले हैं । ये हमें वासनाओं में फंसने से बचाते हैं । 
    ४. (धिया) - ज्ञानपूर्वक कर्मों के द्वारा ये प्राणापान (रयीणाम्) - धनों के (देवा) - देनेवाले हैं [देवो दानात्] तथा (वसुविदा) - उत्तम निवासस्थानभूत शरीर को प्राप्त करानेवाले हैं । प्राणसाधना के द्वारा मनुष्य की क्रियाशक्ति व ज्ञानशक्ति बढ़ती है । इनसे जहाँ यह उत्तम धनों का संग्रह कर पाता है, वहाँ इस शरीर को नीरोग व सक्षम बनाकर अपने निवास को सुन्दर व स्पृहणीय बना लेता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से रोग नष्ट होते हैं, वासनाओं का विलय होता है । हमारा शरीर में निवास सुन्दर होता है । 
     

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    विषय

    अश्वियों की सिन्धु से उत्पत्ति का रहस्य ।

    भावार्थ

    (या) जो वे दोनों (दस्रा) एक दूसरे के दुःखों को नाश करनेवाले या एक दूसरे के प्रति दर्शनीय, सुन्दर, (सिन्धु-मातरा) सूर्य और चन्द्र जिस प्रकार महान् आकाश से उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार सिन्धु के समान गम्भीर माता पिताओं से रत्नों के समान उत्पन्न हुए हुए, अथवा महानदी से माता के समान सींचे गये, उत्तम क्षेत्रों या वृक्षों के समान, (मनोतरा) परस्पर एक से एक बढ़िया उत्तम मन या चित्तवाले (रयीणां) ऐश्वर्यों के (देवा) देनेवाले, (धिया) कर्म, उद्योग और प्रज्ञा के बल से (सुविदा) ऐश्वर्य धन या ज्ञान को प्राप्त करनेवाले होकर रहो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१५ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्द—१, १० विराड्गायत्री । ३, ११, ६, १२, १४ गायत्री । ५, ७, ९, १३, १५, २, ४, ८ निचृद्गायत्री ॥

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    विषय

    फिर वे अश्वि कैसे हैं इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं या दस्रा सिंधुमातरा मनोतरा धिया रयीणां देवा वसुविदौ अग्निजलवद् वर्त्तमानौ अध्यापकोपदेशकौ स्तः तौ सेवध्वम् ॥२॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्या)=मनुष्य लोगो ! (यूयम्)=तुम सब, (या) यौ=जो,(दस्रा) दुःखोपक्षेतारौ= दुःखों के निकट रहनेवाले, (सिंधुमातरा) सिंधूनां समुद्राणां नदीनां वा मातरौ यद्वा सिंधवो मातरो ययोः=समुद्र, नदियों या जल के, (मनोतरा) अतिशयितं मनो ययोस्तौ= जिनका अतिशय मन है, (धिया) कर्मणा= कर्मों के द्वारा, (रयीणाम्) धनानाम्=धनों के, (देवा) दिव्यगुणप्रापकौ वसुविदौ=दिव्य गुणों को प्राप्त करानेवाले, (अग्निजलवद्)= अग्नि और जल के समान, (वर्त्तमानौ)= वर्त्तमान, (अध्यापकोपदेशकौ)= अध्यापक और उपदेशक दोनों, (स्तः)=हैं, (तौ)=उन दोनों की, (सेवध्वम्)=सेवा करो ॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- जैसे शिल्पियों के द्वारा ठीक-ठीक से प्रयोग किये हुए अग्नि और जल के यानों को मन के वेग के समान तुरन्त पहुँचानेवाले, बहुत धन को प्राप्त कराने वाले होवें॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्या) मनुष्य लोगों ! (यूयम्) तुम सब (या) जो (दस्रा) दुःखों के निकट रहनेवाले (सिंधुमातरा) समुद्र, नदियों या जल के समान (मनोतरा) जिनका अतिशय मन है, [वे] (धिया) कर्मों के द्वारा (रयीणाम्) धनों के (देवा) दिव्य गुणों को प्राप्त करानेवाले (अग्निजलवद्) अग्नि और जल के समान [जो] (वर्त्तमानौ) वर्त्तमान, (अध्यापकोपदेशकौ) अध्यापक और उपदेशक दोनों (स्तः) हैं, (तौ) उन दोनों की (सेवध्वम्) सेवा करो ॥२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (या) यौ (दस्रा) दुःखोपक्षेतारौ (सिंधुमातरा) सिंधूनां समुद्राणां नदीनां वा मातरौ यद्वा सिंधवो मातरो ययोः (मनोतरा) अतिशयितं मनो ययोस्तौ (रयीणाम्) धनानाम् (धिया) कर्मणा (देवा) दिव्यगुणप्रापकौ (वसुविदा) बहुधनप्रदौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः ॥२॥ विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे मनुष्या ! यूयं या दस्रा सिंधुमातरा मनोतरा धिया रयीणां देवा वसुविदावग्निजलवद्वर्त्तमानावध्यापकोपदेशकौ स्तस्तौ सेवध्वम् ॥२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा शिल्पिभिर्यथावत्संप्रयोजिते अग्निजले यानानां मनोवेगवत्सद्यो गमयितृणी बहुधनप्रापके वर्त्तेते तथाऽध्यापकोपदेशकौ भवेतामिति ॥२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे कारागीर योग्यरीत्या युक्त केलेल्या अग्नी व जलाच्या यानांना मनाच्या वेगाप्रमाणे ताबडतोब पोचविण्यासाठी व पुष्कळ धन प्राप्त करविण्यासाठी सुसज्ज करतात. त्याच प्रकारे अध्यापक व उपदेशकांनी बनले पाहिजे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ashvins, harbingers of the dawn, wonder workers are they. Bom of the oceans of space, they create the seas of morning mist. Faster than the mind, they bring wealths of the world. With intelligence and inspiration, they reveal the treasures of the Vasus, they are brilliant, generous, divine.

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    Subject of the mantra

    Then how they aśvi are, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyā)=humans, (yūyam)=all of you, (yā)=those, (dasrā)=present close to sorrows, (siṃdhumātarā) =like ocean, rivers and water, (manotarā)=who have exceeding of mind, [ve]=they, (dhiyā) =by actions, (rayīṇām)=of wealths, (devā) =getting obtained divine qualities, (agnijalavad) =like fire and water, [jo]=those, (varttamānau)=present, (adhyāpakopadeśakau) =teacher and preceptor both, (staḥ)=are, (tau)=of both of them, (sevadhvam)=do the service.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! All of you who have an excessive mind like seas, rivers or waters that are close to sorrows. Serve both the present teacher and preceptor, like fire and water, who achieve the divine qualities of wealth through actions.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Just as the vehicles of fire and water, properly used by craftsmen, are capable of delivering quick results like the speed of the mind and are capable of achieving immense wealth, in the same way teachers and preachers should be.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The lady teacher and the preacher like the sun and the moon.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, you should always serve the teachers and the preachers who are like the fire and the water, who are destroyers of misery, whose mothers are the Oceans of virtues, who are full of abundant knowledge, leading to divine virtues, and givers of much wealth with their wisdom and noble acts.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( दस्रा) दु:खोपक्षेतारौ = Destroyers of misery. ( दसु-उपक्षये इति धातोः रक् ( उणा० २.१३ ) (सिन्धुमातरा) (गुण) सिन्धवो मातरो ययोः = Whose mothers are oceans of virtues -Tr.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the fire and the water when methodically used by expert artisans are conveyers of the Vehicles swiftly, like the mind and means of obtaining much wealth, so the teachers and the preachers should also be.

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