ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 46/ मन्त्र 7
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
आ नो॑ ना॒वा म॑ती॒नां या॒तं पा॒राय॒ गन्त॑वे । यु॒ञ्जाथा॑मश्विना॒ रथ॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । ना॒वा । म॒ती॒नाम् । या॒तम् । पा॒राय॑ । गन्त॑वे । यु॒ञ्जाथा॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । रथ॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो नावा मतीनां यातं पाराय गन्तवे । युञ्जाथामश्विना रथम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नः । नावा । मतीनाम् । यातम् । पाराय । गन्तवे । युञ्जाथाम् । अश्विना । रथम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 46; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(आ) समन्तात् (नः) अस्मान् (नावा) नौकादिना (मतीनाम्) मनुष्याणाम् (यातम्) प्राप्नुतम् (पाराय) परतटम् (गन्तवे) गन्तुम्। अत्र# गत्यर्थकर्मणि० इति *द्वितीयार्थे चतुर्थी। (युंजाथाम्) (अश्विना) व्यवहारव्यापिनौ। अत्र सुपांसुलुग् इत्याकारादेशः। (रथम्) रमणीयं विमानादिकं यानसमूहम् ॥७॥ #[अ० २।३।१२।] *[कर्मणीत्यर्थः। सं०]
अन्वयः
पुनस्तौ किं कुर्य्यातामित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे अश्विना ! युवां मतीनां नावा पाराय गन्तवे नोऽस्मानायातं रथं च युञ्जाथाम् ॥७॥
भावार्थः
मनुष्यै रथेन स्थले नौकया समुद्रे विमानेनाऽकाशे गमनाऽगमने कार्य्ये ॥७॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे क्या करें इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (अश्विना) व्यवहार करनेवाले कारीगरो ! आप (मतीनाम्) मनुष्यों की (नावा) नौका से (पाराय) पार (गन्तवे) जाने के लिये (नः) हमारे लिये (रथम्) विमान आदि यान समूहों को (युंजाथाम्) युक्त कर चलाइये ॥७॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि रथ से स्थल अर्थात् सूखे में नाव से जल में विमान से आकाश में जाया आया करें ॥७॥
विषय
नाव या रथ
पदार्थ
१. हे (अश्विना) - प्राणापानो ! आप हमारी बुद्धियों को सूक्ष्म तो बनाते ही हो, आप (मतीनां नावा) - इन बुद्धियों की नौका के साथ (नः) - हमें (आयातम्) - प्राप्त होओ । आपकी कृपा से बुद्धि हमारे लिए नौका के रूप में हो जोकि (पाराय गन्तवे) - इस भवसागर से पार जाने के लिए हमारा साधन बने । संसार समुद्र है तो प्रभु ने यह बुद्धि हमें नाव के रूप में दी है । प्राणसाधना से यह नाव ठीक - ठाक बनी रहेगी, तो हम भवसागर से अवश्य ही पार उतर पाएँगे ।
२. हे प्राणापानो ! (रथं युञ्जाथाम्) - शरीररूप रथ को इन्द्रियाश्वों से युक्त करो । प्राणसाधना से इस शरीररूप रथ में उत्तम इन्द्रियरूप अश्वों का संयोजन होता है और हम इस जीवनयात्रा को पूर्ण कर पाते हैं । जीवनयात्रा की पूर्णता के लिए क्रियाशीलता आवश्यक है और प्राणसाधना के बिना शक्ति व क्रियाशीलता सम्भव नहीं होती । एवं ये अश्विनौ इस शरीर को भवार्णव के तैरने के लिए नौका का रूप देते हैं तो इस संसार - कान्तार को पार करने के लिए रथ का ।
भावार्थ
भावार्थ - हमारा यह शरीर एक सुन्दर नाव के समान हो जो हमें भवसागर से पार उतारनेवाली हो तथा यह शरीर वह रथ हो जो हमारी जीवन - यात्रा की पूर्ति में सहायक हो ।
विषय
नदियों के उपयोग का आदेश ।
भावार्थ
हे (अश्विना) विद्या में निपुण स्त्री पुरुषो! एवं शिल्प चतुर पुरुषो! आप दोनों (नः) हमारे (मतीनां) मनुष्यों को (पाराय) पार, परले तट पर (गन्तवे) पहुंचाने के लिए (नावा) जल में नौका से (आयातम्) उपस्थित रहो और आया जाया करो। और स्थल में (रथम्) रथ को (युञ्जाथाम्) बैल और घोड़े जोड़ा करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१५ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्द—१, १० विराड्गायत्री । ३, ११, ६, १२, १४ गायत्री । ५, ७, ९, १३, १५, २, ४, ८ निचृद्गायत्री ॥
विषय
फिर वे कारीगर क्या करें इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे अश्विना ! युवां मतीनां नावा पाराय गन्तवे नःअस्मान् आयातं रथं च युञ्जाथाम् ॥७॥
पदार्थ
हे (अश्विना) व्यवहारव्यापिनौ=अग्नि और जल को व्यवहार में प्रयुक्त करनेवाले शिल्पियों ! (युवाम्)=तुम दोनों, (मतीनाम्) मनुष्याणाम्= मनुष्यों के, (नावा) नौकादिना =नाव आदि के, (पाराय) परतटम्=पार, (गन्तवे)=जाने केलिये, (नः) अस्मान्=हमारे लिये, (आयातम्)= बिना देर किये, (रथम्) रमणीयं विमानादिकं यानसमूहम्=सुन्दर विमान आदि के समूह को, (च)=भी, (युञ्जाथाम्)=जोड़ो ॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों के द्वारा रथ से स्थल में, नाव से समुद्र में और विमान से आकाश में जाने और आने का कार्य करना चाहिए ॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (अश्विना) अग्नि और जल को व्यवहार में प्रयुक्त करनेवाले शिल्पियों ! (युवाम्) तुम [अग्नि और जल दोनों को], (मतीनाम्) मनुष्यों के (नावा) नाव आदि के द्वारा (पाराय) पार (गन्तवे) जाने के लिये, (नः) हमारे लिये (आयातम्) बिना देर किये (रथम्) सुन्दर विमान आदि के समूह को (च) भी (युञ्जाथाम्) [अग्नि और जल से क्रिया करने के व्यवहार से] जोड़ो ॥७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) समन्तात् (नः) अस्मान् (नावा) नौकादिना (मतीनाम्) मनुष्याणाम् (यातम्) प्राप्नुतम् (पाराय) परतटम् (गन्तवे) गन्तुम्। अत्र# गत्यर्थकर्मणि० इति *द्वितीयार्थे चतुर्थी। (युंजाथाम्) (अश्विना) व्यवहारव्यापिनौ। अत्र सुपांसुलुग् इत्याकारादेशः। (रथम्) रमणीयं विमानादिकं यानसमूहम् ॥७॥ #[अ० २।३।१२।] विषयः-पुनस्तौ किं कुर्य्यातामित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे अश्विना ! युवां मतीनां नावा पाराय गन्तवे नोऽस्मानायातं रथं च युञ्जाथाम् ॥७॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यै रथेन स्थले नौकया समुद्रे विमानेनाऽकाशे गमनाऽगमने कार्य्ये ॥७॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी रथाने जमिनीवर, नौकेने समुद्रातून व विमानाने आकाशातून गमनागमन करावे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Ashvins, harbingers of light, knowledge and power, design and prepare and bring us the chariot for the people to cross over land and sea and sky and reach their destination.
Subject of the mantra
Then what should those craftsmen do, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (aśvinā)=craftsmen who use fire and water in practice! (yuvām) =you, [agni aura jala donoṃ ko]=to both fire and water, (matīnām) =of humans, (nāvā)=by boat etc., (pārāya) =across over, (gantave) =for going, (naḥ) =for us, (āyātam)=without delay, (ratham)=to a group of beautiful aircraft etc. (ca) =also, (yuñjāthām)= connect, [agni aura jala se kriyā karane ke vyavahāra se]=with the action of fire and water.
English Translation (K.K.V.)
O craftsmen who use fire and water in practice! You connect both fire and water with the action of fire and water for humans to cross through boats et cetera, without delay for us, with a group of beautiful aircraft et cetera.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The work of going and coming should be done by humans by chariot on land, by boat in sea and by plane in sky.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What else should they ( Ashvinau ) do is taught in the seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O expert learned artisans, come by a ship prepared by wise men to take us across the ocean. Harness your chariot to go everywhere.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( अश्विना ) व्यवहारव्यापिनौ । अत्र सुपांसुलुक् (अष्टा० ) इत्याकारादेशः अशूङ्-व्याप्तौ = Well-versed in worldly dealings, expert artisans. ( रथम् ) रमणीयं विमानादिकं यानसमूहम् = Beautiful vehicles like aero plane etc.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should come and go by a Chariot on land, by a boat or ship to the river or sea and by aero plane on the sky.
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