ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 46/ मन्त्र 4
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
ह॒विषा॑ जा॒रो अ॒पां पिप॑र्ति॒ पपु॑रिर्नरा । पि॒ता कुट॑स्य चर्ष॒णिः ॥
स्वर सहित पद पाठह॒विषा॑ । जा॒रः । अ॒पाम् । पिप॑र्ति । पपु॑रिः । न॒रा॒ । पि॒ता । कुट॑स्य । च॒र्ष॒णिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
हविषा जारो अपां पिपर्ति पपुरिर्नरा । पिता कुटस्य चर्षणिः ॥
स्वर रहित पद पाठहविषा । जारः । अपाम् । पिपर्ति । पपुरिः । नरा । पिता । कुटस्य । चर्षणिः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 46; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(हविषा) दानाऽऽदानेन (जारः) विभागकर्त्तादित्यः (अपाम्) जलानाम् (पिपर्त्ति) प्रपिपूर्त्ति (पपुरिः) प्रपूरको विद्वान् (नरा) नेतारावध्यापकोपदेशकौ। अत्र सुपांसुलुग् इत्याकारादेशः। (पिता) पालयिता (कुटस्य) कुटिलस्य मार्गस्य सकाशात् (चर्षणिः) दर्शको मनुष्यः। चर्षणिरिति पदना०। निघं० ४।२। इमं मन्त्रं यास्कमुनिरेवं समाचष्टे। हविषाऽपां जारयिता पिपर्त्ति पपुरिरिति पृणाति निगमौ वा प्रीणाति निगमौ वा पिता कृतस्य कर्मणश्च पितादित्यः। निरु०। ५।२४। ॥४॥
अन्वयः
पुनः स कीदृशइत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे नरा ! युवां यथा जारः पपुरिश्च कुटस्य पिता चर्षणिरादित्यो हविषाधिविष्टप्यपां योगेन पिपर्त्ति तथा प्रजाः पालयताम् ॥४॥
भावार्थः
मनुष्यो यथा सूर्यो वर्षादिद्वारा प्राण्यप्राणिनः पुष्णाति तथा सर्वान् पुष्येत् ॥४॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (नरा) नीति के सिखाने पढ़ाने और उपदेश करने हारे लोगो ! तुम जैसे (जारः) विभाग कर्त्ता (पपुरिः) अच्छे प्रकार पूर्त्ति (पिता) पालन करने (कुटस्य) कुटिल मार्ग को (चर्षणिः) दिखलाने हारा सूर्य (हविषा) आहुति से बढ़कर (अपाम्) जलों के योग से (पिपर्त्ति) पूरण कर प्रजाओं का पालन करता है वैसे प्रजा का पालन करो ॥४॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि जैसे सविता वर्षा के द्वारा जिलाने के योग्य प्राणी और अप्राणियों को पुष्ट करता है वैसे ही सबको पुष्ट करें ॥४॥
विषय
सूर्य का रक्षण व मार्गदर्शन
पदार्थ
१. हे (नरा) - उन्नति - पथ पर ले - चलनेवाले प्राणापानो ! जब हम आपकी साधना करते हैं तब यह (अपां जारः) - जलों को, वाष्पीभूत करके उड़ाने के द्वारा, जीर्ण करता हुआ सूर्य (हविषा) - अग्नि में आहुतियों के द्वारा (पिपर्ति) - प्रजा का पालन करता है । प्राणसाधना से हम विलास की वृत्ति से ऊपर उठकर यज्ञिय वृत्तिवाले बनते हैं । इन यज्ञों के करने पर ये (हविः) - पदार्थ छोटे - छोटे कणों में विभक्त होकर सूर्य तक पहुँचता है [अग्नी प्रस्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते - मनु०] । वहाँ ये सूक्ष्म कण वृष्टि - बिन्दुओं को केन्द्र बनकर बरसने पर पौष्टिक अन्न के उत्पादन का हेतु होते हैं । एवं यह सूर्य हवि के द्वारा हमारा पालन करता है । इसी से यह (पपुरिः) - पालन व पूरण करनेवाला कहलाता है ।
२. यह सूर्य (पिता) - सबका रक्षक है और (कुटस्य) - मार्ग की कुटिलता का (चर्षणिः) - दिखानेवाला है और इस प्रकार उसमें संलिप्त होने से हमें बचानेवाला है, परन्तु यह सब होता तभी है जबकि हम प्राणों की साधना करते हैं; उसके अभाव में हम सूर्यप्रकाश में भी कुटिल मार्ग से ही चलते रहते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधक के लिए सूर्य रक्षा करनेवाला होता है तथा उसे गन्तव्य मार्ग से भटकने नहीं देता ।
विषय
अश्वियों की सिन्धु से उत्पत्ति का रहस्य ।
भावार्थ
(अपां जारः) अपनी किरणों के ताप से जलों को सूक्ष्मरूप से खींच लेनेवाला सूर्य जिस प्रकार (पपुरिः) सबका पालन करने वाला होकर (पिता) पिता रूप से (हविषा) वृद्धि से अन्न उपजाकर उससे (पिपर्त्ति) सबको पालन करता है और (कुटस्य चर्षणिः) समस्त कुटिल, टेढ़े मेढ़े मार्गों को प्रकाश से दिखाता भी है उसी प्रकार हे (नरा) गृहस्थ के बीच नायक नायिका रूप से विद्यमान स्त्री पुरुषो! आप दोनों (हविषा) अन्न द्वारा प्रजाओं का पालन करो। (कुटस्य) कुटिल मार्ग के देखनेवाले होकर (पिता) बालक के मातापिता के समान होकर सन्तानों का पालन करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१५ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्द—१, १० विराड्गायत्री । ३, ११, ६, १२, १४ गायत्री । ५, ७, ९, १३, १५, २, ४, ८ निचृद्गायत्री ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह सूर्य कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे नरा ! युवां यथा जारः पपुरिः च कुटस्य पिता चर्षणिः आदित्यः हविषा अधि विष्टपि अपां योगेन पिपर्त्ति तथा प्रजाः पालयताम् ॥४॥
पदार्थ
हे (नरा) नेतारावध्यापकोपदेशकौ= नेतृत्व करनेवाले अध्यापकों और उपदेशकों! (युवाम्)=तुम दोनों, (यथा) =जिस प्रकार से, (जारः) विभागकर्त्तादित्यः=विभाग करनेवाला सूर्य, (पपुरिः) प्रपूरको विद्वान्= अच्छे प्रकार से पूर्त्ति करनेवाला विद्वान्, (च)=और, (कुटस्य) कुटिलस्य मार्गस्य सकाशात्=कुटिल मार्ग का निकट से, (पिता) पालयिता=रक्षक है। (चर्षणिः) दर्शको मनुष्यः= दर्शक मनुष्य, (आदित्यः)=सूर्य, (हविषा) दानाऽऽदानेन= देने और लेने से, (अधि)=अधिक, (विष्टपि)=संसार में, (अपाम्) जलानाम्= जलों के, (योगेन)=योग से, (पिपर्त्ति) प्रपिपूर्त्ति =सबका पालन करता है, (तथा)=वैसे ही, (प्रजाः)=सन्तानों का, (पालयताम्)=पालन करो ॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जैसे सूर्य वर्षा आदि के द्वारा प्राणी और अप्राणियों को पुष्ट करता है, वैसे ही सब मनुष्यों को पुष्ट करे ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (नरा) नेतृत्व करनेवाले अध्यापकों और उपदेशकों! (युवाम्) तुम दोनों (यथा) जिस प्रकार से (जारः) विभाग करनेवाला सूर्य (च) और (पपुरिः) अच्छे प्रकार से पूर्त्ति करनेवाले विद्वान् (कुटस्य) कुटिल मार्ग के निकट से (पिता) रक्षक है। (चर्षणिः) दर्शक मनुष्य का (आदित्यः) सूर्य (हविषा) देने और लेने से (अधि) ऊपर (विष्टपि) संसार में (अपाम्) जलों के (योगेन) योग से (पिपर्त्ति) पालन करता है, (तथा) वैसे ही [तुम] (प्रजाः) सन्तानों का (पालयताम्)=पालन करो ॥४॥
संस्कृत भाग
पदार्थ(महर्षिकृतः)- (हविषा) दानाऽऽदानेन (जारः) विभागकर्त्तादित्यः (अपाम्) जलानाम् (पिपर्त्ति) प्रपिपूर्त्ति (पपुरिः) प्रपूरको विद्वान् (नरा) नेतारावध्यापकोपदेशकौ। अत्र सुपांसुलुग् इत्याकारादेशः। (पिता) पालयिता (कुटस्य) कुटिलस्य मार्गस्य सकाशात् (चर्षणिः) दर्शको मनुष्यः। चर्षणिरिति पदना०। निघं० ४।२। इमं मन्त्रं यास्कमुनिरेवं समाचष्टे। हविषाऽपां जारयिता पिपर्त्ति पपुरिरिति पृणाति निगमौ वा प्रीणाति निगमौ वा पिता कृतस्य कर्मणश्च पितादित्यः। निरु०। ५।२४। ॥४॥ विषयः- पुनः स कीदृशइत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे नरा ! युवां यथा जारः पपुरिश्च कुटस्य पिता चर्षणिरादित्यो हविषाधिविष्टप्यपां योगेन पिपर्त्ति तथा प्रजाः पालयताम् ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यो यथा सूर्यो वर्षादिद्वारा प्राण्यप्राणिनः पुष्णाति तथा सर्वान् पुष्येत् ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसा सूर्य जीवित प्राण्यांना व अप्राण्यांना पुष्ट करतो तसेच माणसांनी सर्वांना पुष्ट करावे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Ye men and women of the world, the sun, lover of the dawn, father, protector and illuminator of the tortuous paths and human habitations nourishes and promotes life with the consumption and creation of waters across the heavens over the earth.
Subject of the mantra
Then how is that Sun, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (narā)=leading teachers and preachers, (yuvām)=both of you, (yathā)=in the manner, (jāraḥ)=dissecting Sun,(ca) =and, (papuriḥ) =well accomplisher scholar, (kuṭasya) =by proximity of crooked road, (pitā) =is protector, (carṣaṇiḥ) =of visitor human, (ādityaḥ) =Sun, (haviṣā)=by giving and taking, (adhi)=above, (viṣṭapi) =in the world, (apām) =of waters, (yogena) =by combination, (pipartti) =nourishes, (tathā) =in the same way, [tuma]=you, (prajāḥ)= of children, (pālayatām)= nourish.||4||
English Translation (K.K.V.)
O leading teachers and preachers! Both of you as dissecting Sun and the scholar who fulfills in a good way, you are the protector from the crooked path. The viewer takes care of a man by the combination of the waters in the world more than giving and taking of the Sun, similarly you should take care of your children
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
O humans! Just as the Sun nourishes living beings and non-living beings through rain etc., let us nourish everyone in the same way.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O leading teachers and preachers, you should preserve and protect the people as the sun who is dissolver of all darkness and thus protector from crooked paths, displayer of right path with his light and who protects all by the combination of waters in the firmament and giving light.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(जार:) विभागकर्ता आदित्य: = Dissolver of darkness. (नरा) नेतारौ अध्यापकोपदेशकौ = Leading men, teachers and preachers. ( कुटस्य) कुटिलस्य मार्गस्य सकाशात् = From the crooked path. ( कुट-कौटिल्ये ) ( चर्षणिः) दर्शक: = Shower. विश्वचर्षणिः-पश्यतिकर्मा ( निघ० ३.११) चर्षणिरितिपदनाम ( निघ० ४.२) पद-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिव, ज्ञान प्रापक:
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A man should nourish and support all beings and things as the sun does by giving light and raining down waters etc.
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