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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 46/ मन्त्र 11
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अभू॑दु पा॒रमेत॑वे॒ पन्था॑ ऋ॒तस्य॑ साधु॒या । अद॑र्शि॒ वि स्रु॒तिर्दि॒वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अभू॑त् । ऊँ॒ इति॑ । पा॒रम् । एत॑वे । पन्था॑ । ऋ॒तस्य॑ । सा॒धु॒ऽया । अद॑र्शि । वि । स्रु॒तिः । दि॒वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभूदु पारमेतवे पन्था ऋतस्य साधुया । अदर्शि वि स्रुतिर्दिवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभूत् । ऊँ इति । पारम् । एतवे । पन्था । ऋतस्य । साधुया । अदर्शि । वि । स्रुतिः । दिवः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 46; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (अभूत्) भवेत्। अत्र लङर्थे लुङ्। (उ) निश्चयार्थे (पारम्) परभागम् (एतवे) एतुम्। अत्र तुमर्थे से० इति तवे प्रत्ययः। (पन्थाः) मार्गः (ऋतस्य) जलस्य (साधुया) साधुना। अत्र सुपां सुलुग् इति याडादेशः। (अदर्शि) दृश्यताम्। अत्रापि लङर्थे लुङ्। (वि) विविधार्थे (स्रुतिः) स्रवणं गमनं यस्मिन्मार्गे सः (दिवः) प्रकाशमानादग्नेः ॥११॥

    अन्वयः

    पुनस्तदेवोपदिश्यते।

    पदार्थः

    यदि मनुष्यैः समुद्रादेः पारमेतवे यत्र दिव ऋतस्य विस्रुतिः पन्थाअभूत्तत्र स्थित्वा साधुया यानेन सुखतो देशान्तरमदर्शि तर्हि श्रीमन्तः कथं न स्युः ॥११॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः सर्वत्र गमनागमनार्थाय सरलान् शुद्धान् मार्गान् रचयित्वा तत्र विमानादिभिर्यानैर्यथावद्गमनं कृत्वा विविधानि सुखानि प्राप्तव्यानि ॥११॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी उत्तर का उपदेश अगले मन्त्र में करते हैं०।

    पदार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि समुद्रादि के (पारम्) पार (एतवे) जाने के लिये जहां (दिवः) प्रकाशमान सूर्य्य और (ऋतस्य) जल का (विस्रुतिः) अनेक प्रकार गमनार्थ (पन्थाः) मार्ग (अभूत्) हो वहां स्थिर होके (साधुया) उत्तम सवारी से सुखपूर्वक देश देशान्तरों को (अदर्शि) देखें तो श्रीमन्त क्यों न होवें ॥११॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को उचित हैं कि सर्वत्र आने जाने के लिये सीधे और शुद्ध मार्गों को रच और विमानादि यानों से इच्छापूर्वक गमन करके नाना प्रकार के सुखों को प्राप्त करें ॥११॥

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    विषय

    ऋत का मार्ग

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार 'बाँटकर खाना' निष्कामभाव से कर्तव्यकर्म में लगे रहना तथा जिह्वा आदि के विषयों में न फंसना' - यह मार्ग ही 'ऋत का मार्ग है । (ऋतस्य पन्थाः) - ऋत का यह मार्ग (साधुया) - समीचीनता से (पारम् एतवे) - संसार - सागर से पार जाने के लिए (अभूत् उ) - निश्चय से होता है । इस मार्ग पर चलते हुए मनुष्य संसार - सागर से पार हो जाता है । 
    २. इस मार्ग पर चलने से (दिवः) - प्रकाश की (विस्रुतिः) - [प्रसृता दीप्तिः - सा०] विस्तृत दीप्ति (वि अदर्शि) - दिखती है, अर्थात् ऋत के मार्ग पर चलने से ज्ञान की ज्योति भी बढ़ती है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम ऋत के मार्ग पर चलें । यह मार्ग हमें जन्म - मरण के चक्र से बचानेवाला होगा और हमारी ज्ञान की दीप्ति को बढ़ाएगा । 
     

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    विषय

    ताल और प्रतिक्षेपक द्वारा अग्नि उत्पन्न करने की विधि ।

    भावार्थ

    (ऋतस्य) समुद्र के अपार जल के भी (साधुया) अच्छी प्रकार (पारम् एतवे) पार जाने के लिए (पन्थाः अभूत् उ) मार्ग अवश्य है। और (दिवः) प्रकाश और सूर्य का भी (स्रुतिः) गमन करने का मार्ग (वि) विविध उपायों से (अदर्शि) देखा जाता है। पूर्व के मन्त्र ९ में (सिन्धूनां पदे वसु) समुद्रों के बीच में बसने लायक स्थान कहाँ है? और सूर्य और चन्द्र समुद्र के अतिरिक्त अपना रूप कहाँ रखते हैं ? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर स्पष्ट हुआ। अध्यात्म में—(ऋतस्य पन्थाः) सत्य का ही मार्ग इस संसार सागर के पार जाने के लिए सबसे उत्तम है। उसी मार्ग से (दिवः स्तुतिः) परम मोक्ष या ज्ञानी आत्मा का मार्ग भी (अदर्शि) देखा जा सकता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१५ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्द—१, १० विराड्गायत्री । ३, ११, ६, १२, १४ गायत्री । ५, ७, ९, १३, १५, २, ४, ८ निचृद्गायत्री ॥

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    विषय

    फिर उसी उत्तर का उपदेश इस मन्त्र में करते हैं।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यदि मनुष्यैः समुद्रादेः पारम् एतवे यत्र दिव ऋतस्य वि स्रुतिः पन्था अभूत् तत्र स्थित्वा साधुया यानेन सुखतः देशान्तरम् अदर्शि तर्हि श्रीमन्तः कथं न स्युः ॥११॥

    पदार्थ

    (यदि)=यदि, (मनुष्यैः)= मनुष्यों के द्वारा, (समुद्रादेः)= समुद्रादि के, (पारम्) परभागम्=दूसरे भाग में, (एतवे) एतुम्=जाने के लिये, (यत्र)=जहाँ, (दिवः) प्रकाशमानादग्नेः=प्रकाशमान अग्नि में, (ऋतस्य) जलस्य=जल का, (वि) विविधार्थे=विविधा रूप से, (स्रुतिः) स्रवणं गमनं यस्मिन्मार्गे सः=जिस मार्ग में जाना है, ऐसा सुना गया है, ऐसा, (पन्थाः) मार्गः=मार्ग, (अभूत्) भवेत्=होवे, (तत्र)=वहाँ, (स्थित्वा)= स्थित होकर, (साधुया) साधुना=सुन्दर तरीके से, (यानेन)=यान द्वारा, (सुखतः)= सुख से, (देशान्तरम्)=एक स्थान से दूसरे को, (अदर्शि) दृश्यम्= देखें, (तर्हि)=तो, (श्रीमन्तः)= धनवान्, (कथम्)=क्यों, (न)=न, (स्युः)=होवें ॥११॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों के द्वारा सर्वत्र आने-जाने के लिये सरल और शुद्ध मार्गों को रचकर वहाँ विमान आदि यानों से ठीक-ठीक गमन करके नाना प्रकार के सुखों को प्राप्त करना चाहिए ॥११॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यदि) यदि (मनुष्यैः) मनुष्यों के द्वारा (समुद्रादेः) समुद्र आदि के, (पारम्) दूसरे भाग में (एतवे) जाने के लिये, (यत्र) जहाँ (दिवः) प्रकाशमान अग्नि में (ऋतस्य) जल के (वि) विविध रूप से, (स्रुतिः) सुने हुए जिस मार्ग से जाना है, ऐसा (पन्थाः) मार्ग, (अभूत्) होवे। (तत्र) वहाँ (स्थित्वा) स्थित होकर (साधुया) सुन्दर तरीके से (यानेन) यान द्वारा (सुखतः) सुख से (देशान्तरम्) एक स्थान से दूसरे स्थान को (अदर्शि) देखें, (तर्हि) तो (श्रीमन्तः) धनवान् (कथम्) क्यों (न) न (स्युः) होवें ॥११॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अभूत्) भवेत्। अत्र लङर्थे लुङ्। (उ) निश्चयार्थे (पारम्) परभागम् (एतवे) एतुम्। अत्र तुमर्थे से० इति तवे प्रत्ययः। (पन्थाः) मार्गः (ऋतस्य) जलस्य (साधुया) साधुना। अत्र सुपां सुलुग् इति याडादेशः। (अदर्शि) दृश्यताम्। अत्रापि लङर्थे लुङ्। (वि) विविधार्थे (स्रुतिः) स्रवणं गमनं यस्मिन्मार्गे सः (दिवः) प्रकाशमानादग्नेः ॥११॥ विषयः- पुनस्तदेवोपदिश्यते। अन्वयः- यदि मनुष्यैः समुद्रादेः पारमेतवे यत्र दिव ऋतस्य विस्रुतिः पन्थाअभूत्तत्र स्थित्वा साधुया यानेन सुखतो देशान्तरमदर्शि तर्हि श्रीमन्तः कथं न स्युः ॥११॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैः सर्वत्र गमनागमनार्थाय सरलान् शुद्धान् मार्गान् रचयित्वा तत्र विमानादिभिर्यानैर्यथावद्गमनं कृत्वा विविधानि सुखानि प्राप्तव्यानि ॥११॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी सर्वत्र गमनागमन करण्यासाठी सहज व निर्दोष मार्ग निर्माण करून विमान इत्यादी यानांनी इच्छापूर्वक गमन करून नाना प्रकारचे सुख भोगावे. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The path of the laws of science and nature, as the path of Truth, is for simple and sure travel across the seas of existence to the cherished goal. See the flow of light divine from the doors of heaven.

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    Subject of the mantra

    Then the same answer is preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yadi) =if, (manuṣyaiḥ) =by humans, (samudrādeḥ) =of ocean etc., (pāram) = in the another part, (etave) =for going, (yatra) =where, (divaḥ) prakāśamāna agni meṃ (ṛtasya) jala ke (vi)=variously, (srutiḥ) Having heard, the way to go is like this, (panthāḥ)=way, (abhūt) =be, (tatra) =there, (sthitvā) =being stationed, (sādhuyā)= gracefully, (yānena) =by vehicle, (sukhataḥ) =with comfort, (deśāntaram)= from one place to another, (adarśi) =must see, (tarhi) =then, (śrīmantaḥ) =wealthy, (katham) =why,(na) =not, (syuḥ) =be.

    English Translation (K.K.V.)

    If, there should be such a way for humans to go to the other part of the ocean et cetera, where they have to go through various forms of water in the light of fire, listening to it. Staying there and looking from one place to another with pleasure in a beautiful vehicle, then why not become rich.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    By making simple and pure faultless routes for people to go everywhere, they should get different types of pleasures by traveling there properly by aircrafts et cetera vehicles.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    If men make straight paths to go to the other shore of the sea and use in the Vehicles the fire and the water in proper proportion, travelling by such nice vehicles, they can happily and easily go to other countries, why should they not be then prosperous by carrying on their business there?

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ऋतस्य) जलस्य (ऋतमिति उदक नाम निघ. १.१२ ) = Of the water. ( स्त्रुतिः) स्रवणं गमनं यस्मिन् मार्गे सः = Path. (दिव:) प्रकाशमानात् अग्ने: = Form the bright fire.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should build straight and easy paths for their journey everywhere and then travelling by aero planes and other chariots, they should enjoy happiness of various kinds.

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