ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 46/ मन्त्र 14
यु॒वोरु॒षा अनु॒ श्रियं॒ परि॑ज्मनोरु॒पाच॑रत् । ऋ॒ता व॑नथो अ॒क्तुभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वोः । उ॒षाः । अनु॑ । श्रिय॑म् । परि॑ऽज्मनोः । उ॒प॒ऽआच॑रत् । ऋ॒ता । व॒न॒थः॒ । अ॒क्तुऽभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवोरुषा अनु श्रियं परिज्मनोरुपाचरत् । ऋता वनथो अक्तुभिः ॥
स्वर रहित पद पाठयुवोः । उषाः । अनु । श्रियम् । परिज्मनोः । उपआचरत् । ऋता । वनथः । अक्तुभिः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 46; मन्त्र » 14
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 35; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 35; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(युवोः) सभासेनेशयोः (उषाः) सूर्य्याचन्द्रमसोः प्रातःप्रकाशः (अनु) पश्चादर्थे (श्रियम्) विद्याराजलक्ष्मीम् (परिज्मनोः) यः परितः सर्वतोऽजतः प्रक्षिपतो गच्छतस्तयोः (उपाचरत्) उपचारिणीव वर्त्तते (ऋता) ऋतौ यथार्थसुगुणस्वरूपौ। अत्र सुपांसुलुग् इत्याकारादेशः। (वनथः) संभजेथाम् (अक्तुभिः) रात्रिभिः। अक्तुरिति रात्रिना०। निघं० १।७। ॥१४॥
अन्वयः
तयोः सकाशात्किंप्राप्नुयुरित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे ऋता सभासेनाधिपती ! यथोषा अक्तुभिरुपाचरत्तथा ययोः परिज्मनोर्युवोर्न्यायो रक्षणं चोपाचरत् तौ युवां श्रियमनुवनथः ॥१४॥
भावार्थः
राजप्रजाजना अन्योन्येषु प्रीतिं कृत्वा महदैश्वर्य्यं प्राप्य सदा सर्वोपकारे प्रयतंताम् ॥१४॥
हिन्दी (4)
विषय
इन दोनों से क्या प्राप्त करें इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (ऋता) उचित् गुण सुन्दरस्वरूप ! सभासेनापति ! जैसे (उषाः) प्रभात समय (अक्त्तुभिः) रात्रियों के साथ (उपाचरत्) प्राप्त होता है वैसे जिन (परिज्मनोः) सर्वत्र गमन कर्त्ता पदार्थों को प्रकाश से फेंकने हारे सूर्य्य और चन्द्रमा के सदृश वर्त्तमान (युवोः) आपका न्याय और रक्षा हमको प्राप्त होवे आप (श्रियम्) उत्तम लक्ष्मी को (अनुवनथः) अनुकूलता से सेवन कीजिये ॥१४॥
भावार्थ
राजा और प्रजाजनों को चाहिये कि परस्पर प्रीति से बड़े ऐश्वर्य्य को प्राप्त होकर सदा सबके उपकार में यत्न किया करें ॥१४॥
विषय
श्री - ऋत + अक्तु
पदार्थ
१. हे प्राणापानो ! (परिज्मनोः युवोः) - शरीर में सर्वत्र गति करनेवाले आपके (अनु) - अनुपात में ही (उषाः) - उषः काल (श्रियम्) - शोभा को (उपाचरत्) - समीपता से प्राप्त होता है । उषः काल में जागरण स्वयं मनुष्य के लिए हितकर है, उसे स्वस्थ बनानेवाला एवं तेजस्विता प्राप्त करानेवाला है, परन्तु यह सब - कुछ होता तभी है जबकि मनुष्य प्राणसाधना करता है ।
२. हे प्राणापानो ! आप (अक्तुभिः) - ज्ञान की रश्मियों के साथ (ऋता) - सत्यों व यज्ञों का (वनथः) - सम्भजन - सेवन करते हो अथवा [वन् - win] विजय करते हो ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से शरीर 'श्री' सम्पन्न होता है, मन 'ऋत' सत्य से युक्त होता है और मस्तिष्क 'अक्तु' ज्ञान की रश्मियों से परिपूर्ण होता है ।
विषय
ताल और प्रतिक्षेपक द्वारा अग्नि उत्पन्न करने की विधि ।
भावार्थ
(युवोः) बराबर व्यतीत होनेवाले दिन रात्रि के बीच (श्रियम् अनु उषा) शोभाकर जिस प्रकार उषा आती है उसी प्रकार (परिज्मनोः) समस्त देशों में यात्रा करनेवाले (युवोः) तुम दोनों की (श्रियम् अनुम्) राज्यसम्पदा के अनुरूप उसको बढ़ानेवाली ही (उषाः) उत्तम कामना या नव उदय होने का तेज (उप अचरत्) तुम दोनों को प्राप्त हो। तुम दोनों (ऋता) सत्य व्यवहार वाले होकर (अक्तुभिः) बहुत दिनों तक (श्रियम् वनथ) ऐश्वर्य सम्पदा को भोग करो। सभा-सेनाध्यक्ष के पक्ष में—(परिज्मनोः) सर्वत्र विपक्षी पर शर प्रहार करनेवाले दोनों का राज्यलक्ष्मी के अनुरूप ही (उषाः) सूर्योदय के समान प्रताप का उदय होता है। वे सब दिन (ऋता) सत्य मार्गों का सेवन करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१५ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्द—१, १० विराड्गायत्री । ३, ११, ६, १२, १४ गायत्री । ५, ७, ९, १३, १५, २, ४, ८ निचृद्गायत्री ॥
विषय
इन दोनों सूर्य और चन्द्र से क्या प्राप्त करें इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे ऋता सभासेनाधिपती ! यथा उषा अक्तुभिः उपाचरत् तथा ययोः परिज्मनोः युवोः न्यायः रक्षणं च उपाचरत् तौ युवां श्रियम् अनु वनथः ॥१४॥
पदार्थ
हे (ऋता) ऋतौ यथार्थसुगुणस्वरूपौ= यथार्थ सुन्दर गुण सुन्दर स्वरूपवाले, (सभासेनाधिपती)= सभापति और सेनापति ! (यथा)=जैसे, (उषाः) सूर्य्याचन्द्रमसोः प्रातःप्रकाशः=सूर्य और चन्द्रमा का प्रातः का प्रकाश, (अक्तुभिः) रात्रिभिः=रात्रि के द्वारा, (उपाचरत्) उपचारिणीव वर्त्तते=सेवित जैसा है, (तथा)=वैसे ही, (ययोः)=जिन दोनों के, (परिज्मनोः) यः परितः सर्वतोऽजतः प्रक्षिपतो गच्छतस्तयोः= जो हर यात्रा करते हुए जाते हैं, ऐसे (युवोः) सभासेनेशयोः=सभा और सेना के स्वामी, (न्यायः)= न्याय की, (रक्षणम्)= रक्षा में, (च)= भी, (उपाचरत्) उपचारिणीव वर्त्तते= सेवित जैसा होते हैं। (तौ)=वे दोनों, (युवाम्)=तुम दोनों, (श्रियम्) विद्याराजलक्ष्मीम् = विद्या और राजलक्ष्मी से, (अनु) पश्चादर्थे=बाद में, (वनथः) संभजेथाम्=सेवित करो ॥१४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
राजा और प्रजाजनों को चाहिये कि परस्पर प्रीति करके बड़े ऐश्वर्य्य को प्राप्त करके सदा सबके उपकार में प्रयत्न किया करें ॥१४॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी- शास्त्रों में राजा की समृद्धि को राजलक्ष्मी कहा गया है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (ऋता) यथार्थ सुन्दर गुण और सुन्दर स्वरूपवाले, (सभासेनाधिपती) सभापति और सेनापति ! (यथा) जैसे (उषाः) सूर्य और चन्द्रमा का प्रातः का प्रकाश (अक्तुभिः) रात्रि के द्वारा (उपाचरत्) सेवित जैसा होता है, (तथा) वैसे ही (ययोः) जिन दोनों के, (परिज्मनोः) जो हर ओर यात्रा करते हुए जाते हैं, ऐसे (युवोः) सभा और सेना के स्वामी, (न्यायः) न्याय की (रक्षणम्) रक्षा में (च) भी (उपाचरत्) सेवित जैसे होते हैं। (तौ) वे (युवाम्) तुम दोनों, (श्रियम्) विद्या और राजलक्ष्मी से, (अनु) बाद में (वनथः) सेवित होओ ॥१४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (युवोः) सभासेनेशयोः (उषाः) सूर्य्याचन्द्रमसोः प्रातःप्रकाशः (अनु) पश्चादर्थे (श्रियम्) विद्याराजलक्ष्मीम् (परिज्मनोः) यः परितः सर्वतोऽजतः प्रक्षिपतो गच्छतस्तयोः (उपाचरत्) उपचारिणीव वर्त्तते (ऋता) ऋतौ यथार्थसुगुणस्वरूपौ। अत्र सुपांसुलुग् इत्याकारादेशः। (वनथः) संभजेथाम् (अक्तुभिः) रात्रिभिः। अक्तुरिति रात्रिना०। निघं० १।७। ॥१४॥ विषयः- तयोः सकाशात्किंप्राप्नुयुरित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे ऋता सभासेनाधिपती ! यथोषा अक्तुभिरुपाचरत्तथा ययोः परिज्मनोर्युवोर्न्यायो रक्षणं चोपाचरत् तौ युवां श्रियमनुवनथः ॥१४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- राजप्रजाजना अन्योन्येषु प्रीतिं कृत्वा महदैश्वर्य्यं प्राप्य सदा सर्वोपकारे प्रयतंताम् ॥१४॥
मराठी (1)
भावार्थ
राजा व प्रजा यांनी परस्पर प्रेमाने अत्यंत ऐश्वर्य प्राप्त करून सदैव सर्वांवर उपकार करण्याचा यत्न करावा. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Ashvins, inspiring and protective powers of nature and humanity, ever on the move like the sun and moon, let the dawn of light and joy follow upon your beauty and glory. High-priests of truth and universal law, shine, illuminate and create the joy of life by nights and days.
Subject of the mantra
What to get from both these Sun and Moon, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (ṛtā)=having truly beautiful qualities and beautiful appearance, (sabhāsenādhipatī)= chairman of assembly and commander, (yathā) =like, (uṣāḥ)=morning light of Sun and Moon, (aktubhiḥ) =by the night, (upācarat) =is like served, (tathā) =in the same way, (yayoḥ) = both of whom, (parijmanoḥ)=who go traveling everywhere, (yuvoḥ)=chairman of assembly and commander, (nyāyaḥ) =of justice, (rakṣaṇam) =in protection, (ca) =also, (upācarat)=are like being served, (tau) =they, (yuvām) =both of you,, (śriyam)=by vidya and Rajlakshmi, (anu) =afterwards, (vanathaḥ)=get serviced.
English Translation (K.K.V.)
O the one with truly beautiful qualities and beautiful form, the chairman of the assembly and the commander-in-chief! Just as the morning light of the sun and the Moon are served by the night, so are the lords of assembly and army, both of whom, traveling everywhere, are also served in the protection of justice. They, both of you, be served later by vidya (knowledge) and Rajlakshmi.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The king and the people should always try to do good to everyone by having great opulence by loving each other.
TRANSLATOR’S NOTES-
The prosperity of the king has been called Rajalakshmi in vedic scriptures.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should be got from them (Ashvinau) is taught in the fourteenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O president of the Assembly and Chief Commander of the Army, you who are truthful, virtuous and circumambient (going everywhere on duty) when justice and protection follow you as the dawn follows the sun and the moon, you can enjoy all prosperity of knowledge and royal wealth.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(उषा:) सूर्याचन्द्रमसोः प्रातः प्रकाशः = The morning light of the sun and the moon. ( श्रियम्) विद्याराजलक्ष्मीम् = Prosperity of knowledge and royal wealth.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The ruler and the subjects should love one another intensely and thus having achieved much prosperity, should always endeavor to do good to all.
Translator's Notes
Here by अश्विनौ Rishi Dayananda has taken सभासेनाधिपती as अश्व: according to वीर्य बा अश्व: (शत० २.१.४ | २३.२४) means strength or सौ बा आदित्योऽश्व: ( तेत्तिरीय० ३.९.२३.२ ) and both of them are full of virility and are like the sun. ( परिज्मनोः) यौ परितः सर्वतः प्रजतो गच्छत स्तौ = Those who go everywhere for the discharge of their duties. अज-गतिक्षेपणयोः
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