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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 46/ मन्त्र 3
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    व॒च्यन्ते॑ वां ककु॒हासो॑ जू॒र्णाया॒मधि॑ वि॒ष्टपि॑ । यद्वां॒ रथो॒ विभि॒ष्पता॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒च्यन्ते॑ । वा॒म् । क॒कु॒हासः॑ । जू॒र्णाया॑म् । अधि॑ । वि॒ष्टपि॑ । यत् । वा॒म् । रथः॑ । विऽभिः॑ । पता॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वच्यन्ते वां ककुहासो जूर्णायामधि विष्टपि । यद्वां रथो विभिष्पतात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वच्यन्ते । वाम् । ककुहासः । जूर्णायाम् । अधि । विष्टपि । यत् । वाम् । रथः । विभिः । पतात्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 46; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (वच्यन्ते) उच्येरन्। संप्रसा#रणाच्च इत्यत्र वा*छंन्दसि इत्यनुवृत्तेः पूर्वरूपाभावाद्यणादेशः। (वाम्) युवां शिल्पविद्याध्यापकाध्येतारौ (ककुहासः) महान्तो विद्वांसः। ककुहइतिमहन्ना०। निघं० ३।३। (जूर्णायाम्) गन्तुमशक्यायां वृद्धावस्थायाम् (अधि) उपरिभावे (विष्टपि) अन्तरिक्षे (यत्) यः (वाम्) युवयोः (रथः) विमानादियानसमूहः (विभिः) यथा वयन्ति गच्छन्ति ये ते वयः पक्षिणस्तैः (पतात्) गच्छेत् ॥३॥ #[अ० ।६।१।१०७। सं०]*[अ० ६।१।१०५। सं०।]

    अन्वयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे शिल्पिनौ ! यदि जूर्णायां वर्त्तमानाः ककुहासो वां विद्या वच्यन्ते तर्हि वां युवयोरथो विभिः सह विष्टप्यधिपतात् ॥३॥

    भावार्थः

    यदि मनुष्याः परमविदुषां सकाशाच्छिल्पविद्यां गृह्णीयुस्तर्हि विमानादियानानि रचयित्वा पक्षिवदाकाशे गन्तु शक्नुयुः ॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे कारीगरो ! जो (जूर्णायां) वृद्धावस्था में वर्त्तमान (ककुहासः) बड़े विद्वान् (वाम्) तुम शिल्पविद्या पढ़ने-पढ़ाने वालों को विद्याओं का (वच्यन्ते) उपदेश करें तो (वाम्) आप लोगों का बनाया हुआ (रथः) विमानादि सवारी (विभिः) पक्षियों के तुल्य (विष्टपि) अन्तरिक्ष में (अधि) ऊपर (पतात्) चलें ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य लोग बड़े ज्ञानी के समीप से कारीगरी और शिक्षा को ग्रहण करें तो विमानादि सवारियों को रच के पक्षी के तुल्य आकाश में जाने आने को समर्थ होवें ॥३॥

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    विषय

    स्वर्ग में रथ का विचरण

    पदार्थ

    १. (यत्) - जब (वाम्) - हे अश्विदेवो ! आपका (रथः) - शरीररूपी रथ (विभिः) - इन्द्रियाश्वों से जुता हुआ (जूर्णायाम्) - अत्यन्त स्तुत (अधिविष्टपि) - स्वर्गलोक में (पतात्) - गति करता है तब (वाम्) - आपकी (ककुहासः) - स्तुतियाँ (वच्यन्ते) - उच्चरित होती हैं । 
    २. गतमन्त्र में कहा था कि ये प्राणापान 'दर' हैं, आधि - व्याधियों को समाप्त करनेवाले हैं । मनोतरा - ज्ञान के द्वारा वासनाओं से तरानेवाले हैं, धनों के प्राप्त करानेवाले हैं [धिया रयीणां देवा] । एवं ये प्राणापान शरीर व मानस स्वास्थ्य प्राप्त कराके हमारे इस निवास को स्वर्ग - सा बना देते हैं । उस स्वर्ग में हमारा यह शरीररूप रथ इन्द्रियाश्वों से विचर रहा होता है । यह स्वर्ग - निवास स्तुत्य व प्रशंसनीय तो होता ही है [जूर्णायाम्] । 
    ३. 'इस स्वर्ग में रहते हुए जीव को गर्व न हो जाए' इस दृष्टिकोण से कहते हैं कि हे प्राणापानो ! आपकी स्तुतियों उच्चरित होती हैं, अर्थात् आप निरन्तर प्रभु - स्तवन में प्रवृत्त होते हो ताकि यह हमें भूल न जाए कि यह सब - कुछ प्रभुकृपा का ही परिणाम है । प्रभुकृपा से ही हम इस पार्थिव निवास को स्वर्ग बना पाते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से शरीर में निवास स्वर्गापम बनता है, परन्तु उस स्वर्ग का हमें गर्व नहीं हो जाता । 
     

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    विषय

    अश्वियों की सिन्धु से उत्पत्ति का रहस्य ।

    भावार्थ

    हे उत्तम विद्वान् स्त्री पुरुषो! (यत्) जब (वां) तुम दोनों का (रथः) रथ, रमण विनोद करने का साधन (विभिः) पक्षियों के साथ (विष्टपि अधि) अन्तरिक्ष में भी (पतात्) जावे। (जूर्णायां) वृद्धावस्था में वर्त्तमान (ककुहासः) बड़े बूढ़े आदमी (वाम् वच्यन्ते) तुम दोनों को सदा उपदेश करते रहें। अध्यात्म में—जब वृद्ध जन तुम दोनों को सदा उपदेश करें तब ही तुम दोनों का (रथः) आत्मा (विभिः) परमहंस योगियों, या प्राणों के साथ (अधि विष्टपि) तापरहित, सुखमय दशा में (पतात्) विचरे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१५ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्द—१, १० विराड्गायत्री । ३, ११, ६, १२, १४ गायत्री । ५, ७, ९, १३, १५, २, ४, ८ निचृद्गायत्री ॥

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    विषय

    फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे शिल्पिनौ ! यदि जूर्णायां वर्त्तमानाः ककुहासः वां विद्या वच्यन्ते तर्हि वां युवयोः रथः विभिः सह विष्टपि अधि पतात् ॥३॥

    पदार्थ

    हे (शिल्पिनौ)= कारीगरो ! (यदि)=यदि, (जूर्णायाम्) गन्तुमशक्यायां वृद्धावस्थायाम्=जाने में अशक्त ऐसी वृद्धावस्था में, (वर्त्तमानाः)= वर्त्तमान, (ककुहासः) महान्तो विद्वांसः=महान विद्वान्, (वाम्) युवां शिल्पविद्याध्यापकाध्येतारौ=शिल्प विद्या के पढ़ने-पढ़ाने वाले, (विद्या)= विद्या का, (वच्यन्ते) उच्येरन्=वाचन करते हैं, (तर्हि)=इसलिये, (वाम्) युवयोः= युवां शिल्पविद्याध्यापकाध्येतारौ= शिल्प विद्या के पढ़ने-पढ़ाने वाले तुम दोनों, (रथः) विमानादियानसमूहः= विमान आदि यानों के समूह को, (विभिः) यथा वयन्ति गच्छन्ति ये ते वयः पक्षिणस्तैः=जैसे उड़ते और जाते हैं, ऐसे उन पक्षियों के, (सह)=साथ, (विष्टपि) अन्तरिक्षे= अन्तरिक्ष में, (अधि) उपरिभावे=ऊपर की ओर, (पतात्) गच्छेत्=चला जाये ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    यदि मनुष्य लोग परम विद्वानों के समीप से शिल्पविद्या को ग्रहण करें तो विमानादि यानों का निर्माण करके पक्षी के समान आकाश में जाने में समर्थ हो सकते हैं ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (शिल्पिनौ) कारीगरो! (यदि) यदि (जूर्णायाम्) चलने में अशक्त ऐसी वृद्धावस्था में (वर्त्तमानाः) वर्त्तमान (ककुहासः) महान विद्वान्, (वाम्) शिल्प विद्या के पढ़ने-पढ़ाने वाले (विद्या) विद्या का (वच्यन्ते) वाचन करते हैं। (तर्हि) इसलिये (वाम्) शिल्प विद्या के पढ़ने-पढ़ाने वाले तुम दोनों, (रथः) विमान आदि यानों के समूह को (विभिः) जैसे उड़ाते और जाते हैं, ऐसे उन पक्षियों के (सह) साथ (विष्टपि) अन्तरिक्ष में (अधि) ऊपर की ओर (पतात्) चले जाओ ॥३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यदि मनुष्याः परमविदुषां सकाशाच्छिल्पविद्यां गृह्णीयुस्तर्हि विमानादियानानि रचयित्वा पक्षिवदाकाशे गन्तु शक्नुयुः ॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (वच्यन्ते) उच्येरन्। संप्रसा#रणाच्च इत्यत्र वा*छंन्दसि इत्यनुवृत्तेः पूर्वरूपाभावाद्यणादेशः। (वाम्) युवां शिल्पविद्याध्यापकाध्येतारौ (ककुहासः) महान्तो विद्वांसः। ककुहइतिमहन्ना०। निघं० ३।३। (जूर्णायाम्) गन्तुमशक्यायां वृद्धावस्थायाम् (अधि) उपरिभावे (विष्टपि) अन्तरिक्षे (यत्) यः (वाम्) युवयोः (रथः) विमानादियानसमूहः (विभिः) यथा वयन्ति गच्छन्ति ये ते वयः पक्षिणस्तैः (पतात्) गच्छेत् ॥३॥ #[अ० ।६।१।१०७। सं०]*[अ० ६।१।१०५। सं०।] विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे शिल्पिनौ ! यदि जूर्णायां वर्त्तमानाः ककुहासो वां विद्या वच्यन्ते तर्हि वां युवयोरथो विभिः सह विष्टप्यधिपतात् ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे अत्यंत ज्ञानी (लोकांच्या) जवळ कारागिरी व शिक्षण ग्रहण करतील तर विमान वगैरे तयार करून ती पक्ष्याप्रमाणे आकाशात जाण्या-येण्यास समर्थ होतील. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ashvins, harbingers of light, knowledge and wealth across the Vasus, scientists and technologists, veterans of vision and wisdom celebrate your achievement when your chariot flies like a bird into the ancient sky over the heavens.

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    Subject of the mantra

    Then how are they, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (śilpinau)= craftsmen, (yadi)=if, (jūrṇāyām)=in old age unable to move, (varttamānāḥ) =present, (kakuhāsaḥ) =great scholar, (vām)=students and teachers of crafts, (vidyā)=of vidyā, (vacyante)=read, (tarhi)=therefore, (vām) =both students and teachers of crafts, (rathaḥ) =to the group of vehicles and aircrafts, (vibhiḥ) =as they fly and go, so do those birds, (saha) =with, (viṣṭapi) =of sky, (adhi)=upwards, (patāt)=go.

    English Translation (K.K.V.)

    O craftsmen! If unable to walk, in such an old age, the present great scholars, the teachers of craft education recite the knowledge. That's why both of you, who teach and teach crafts, fly a group of aircraft etc. and leave, go upward in the sky with those birds like this.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    If human beings acquire the knowledge of craftsmanship from the supreme scholars then they can become capable of flying in the sky like birds by building aircraft et cetera.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Artisans, if aged and experienced great scholars teach you various sciences, then your car in the form of aero plane etc. flies in the glorious heavens like the birds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    [ ककुहास: ] महान्तो विद्वांसः ककुह इति महन्नाम ( निघ० ३ . ३ ) = Great scholars. (विष्टपि) अन्तरिक्षे = In the firmament or middle region. ( रथ:) विमानादियानसमूहः = Chariot in the form of aero planes etc. ( विभिः) वयन्ति गच्छन्ति ये ते वयः पक्षिणः । = Birds.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    If men get the knowledge of the arts and industries sitting at the feet of great scholars (or scientists) they are able to fly in the air like the birds by constructing aero planes and other suitable vehicles.

    Translator's Notes

    Though Wilson and Griffith have not been able to understand that the Mantra has clear reference to aero planes or flying in the sky, even their faulty translation refers to it. For instance, Prof. Wilson's translation is- "Since your chariot proceeds (drawn) by your steeds, above the glorious heavens, your praises are proclaimed by us. Griffith's translation is— "Your giant courses hasten on over the region all in flames, when your car flies with winged steeds.

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